शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

स्वर्ण कारीगर भुखमरी की कगार पर
सोना ओढ़े टाट
जया वाजपेई
साठ के दशक में मुम्बई दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण बाजार बन कर उभरा तो देश के दूसरे बड़े शहरों में भी ज्वैलरी का धंधा गति पकडऩे लगा. इस होड़ में उत्तर प्रदेश भी पीछे नहीं रहा. कानपुर में ज्वैलरी कारोबार काफी तेज गति से विकसित हुआ. आज आलम यह है कि मात्र बिरहाना रोड जो कि 'बड़ी बाजारÓ के रूप में जाना जाता है में रोजाना करीब डेढ़ करोड़ के आभूषण का कारोबार होता है. सर्राफा कारोबारियों की मानें तो प्रदेश में आभूषण कारोबार में सबसे अधिक राजस्व सरकार को इसी शहर से मिलता है. तेजी से विकसित हुए आभूषण कारोबार के चलते राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल यहां तक कि बांग्ला देश तक से कारीगर इस शहर में बड़े पैमाने पर आकर बसने लगे.
सबके जीवन में चमक बिखेरने वाला सोना आभूषण गढऩे वालों के जीवन में चमक नहीं बिखेर पा रहा. कुछ सौ रुपये के वेतन या फिर ठेकेदारी पर उनका जीवन लोहा पीटने वालों से भी बदतर हो गया. पूरा-पूरा दिन बड़े ध्यान से स्वर्ण आभूषणों को बनाने से लेकर उस पर मुंह से आग फूंक-फंूक कर टांका लगाने तथा तेजाब (एसिड) जैसे जहरीले पदार्थ से उसकी धुलाई एवं पॉलिश की लंबी प्रक्रिया को अंजाम देने में ये कारीगर दिन-रात एक करते हैं. विमल रॉय को ही ले, ये एक ऐसे कारीगर हैं जिनकी उम्र ही आभूषण बनाते हुए गुजर गई. इनके पिता कन्हैया लाल बांग्ला देश वहां १९६२ में हुए दंगों के दौरान पलायन करके यहां आ गये. ये १९६३ में रोजी-रोटी की तलाश में कानपुर आ गये. स्वर्ण कारीगीरी में दक्ष होने के कारण इन्हें जल्दी काम भी मिलने लगा. उसके बाद कन्हैया लाल ने इन्हें भी स्वर्ण आभूषण बनाने में दक्ष कर दिया. इन्होंने तमाम स्वर्ण व्यवसायियों के लिए स्वर्ण आभूषण तैयार किया पर आज विमल राय इस व्यवसाय को छोडऩा चाहते हैं. वे कहते हैं स्वर्णकार को दूसरे कलाकारों की तरह सामाजिक प्रतिष्ठा मिलनी तो दूर पेट भर भोजन तक मुश्किल से नसीब होता है. परन्तु यह भी सत्य है कि इस कारीगरी के अलावा हमारे पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है. चौक सर्राफा एसोसिएशन, धोबी मोहाल के अध्यक्ष सुरेन्द्र बाबू का कहना है कि स्वर्ण कारोबार में तेजी आने के बाद एक लाख से ऊपर आभूषण कारीगर के साठ के दशक में कानपुर में सक्रिय हुए थे. इनमें से लगभग ४० हजार कारीगर बाहर के प्रदेशों के थे. परंतु आज स्थिति दूसरी है मशीनों से आभूषण बनने और कारीगरों को उचित पारिश्रमिक न मिलने से कारीगरों की संख्या घट रही है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि स्वर्ण कारोबार कई गुना बढऩे के बाद आज शहर में मात्र ६० हजार कारीगर बचे हैं. जो बचे हैं वो किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं. आज भारत भले ही विश्व के बड़े स्वर्ण उपयोग वाले देशों की कतार में आगे खड़ा हो. देश में घरों, मन्दिरों में पीढ़ी दर पीढ़ी २० हजार टन स्वर्ण भण्डार और आभूषण हो, लेकिन फिर भी देश में तीन लाख से अधिक स्वर्ण मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा. उल्टा स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है. कानपुर में आभूषण कारोबार को ले तो यहां पर दो थोक व्यापार के बाजार चौक सर्राफा व नयागंज है. यहां रोजाना डेढ़ से दो करोड़ के बीच का कारोबार होता है. जिस अनुपात में कारोबार में वृद्धि हुई और निरंतर जारी है, उस अनुपात में कानपुर के ६० हजार स्वर्ण कारीगरों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. दूसरे प्रदेशों से अपनी आंखों में उन्नति का सपना लेकर आये ये कारीगर आज दो से तीन हजार रुपये प्रतिमाह के वेतन पर गुजारा कर रहे हैं. यही कारण है कि कारीगर की नई पीढ़ी अपने इस पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़ रही है. नारायण पाल, ऋषिकेश पाल, राधा कृष्ण, पप्पू, लक्ष्मी दास, विश्व शंकर जैसे सैकड़ों कारीगर अब रोजी रोटी के दूसरे साधन तलाश कर रहे हैं. दूसरी तरफ जो आज भी इस पेशे से जुड़े हैं वे तंगी से गुजारा कर रहे हैं और न ही उनकी आय में बढ़ोत्तरी हो रही है और न ही काम करने के लिए हवादार कार्य स्थल मिल रहा है. आशीत पाल, सुशेन्दु बाबू, सुनील कुमार, सुरेश गौढ़ पाल, केदार नाथ, राज कुमार जैसे कारीगर आज घुटन भरे जहरीले माहौल में कार्य करने को मजबूर हैं. जीवन पर्यन्त कारीगरी करने वाले में कारीगर सोने की तरह अपने जीवन को गला देते हैं और अंत में भयंकर बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. तमाम कारीगर श्वांस की बीमारी से ग्रस्त हैं. इतना सब होने के बाद भी इन्हें स्वर्णकारों की तरह सम्पन्नता प्राप्त नहीं है और न डीलर जितनी इज्जत. १२-१२ घण्टे लगातार एक ही स्थान पर बैठ कर काम करने वालों को आज भी मजदूर कहा जाता है.खुली अर्थव्यवस्था एवं मशीनीकरण भी इनकी जहालत के लिए जिम्मेदार है. स्वर्ण कारीगरों की हालत स्वास्थ्य ठीक न होने तथा मशीनीकरण से उनकी रोजी-रोटी छिन चुकी है. इस विषय पर जब हेलो कानपुर ने चौक सर्राफा एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेन्द्र बाबू इस विषय में बोलने को तैयार नहीं है फिर वे स्वीकारते हैं कि स्वर्ण कारीगरों की हालत अच्छी नहीं है. एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि मैं कारीगरों पर आश्रित नहीं हूं. इस कारण कोई मुझ पर उनके शोषण का आरोप नहीं लगा सकता है. हास्यपद बात यह है कि प्रतिवर्ष 'सर्व स्वर्णकार सभाÓ का आयोजन चौक सर्राफा करती है परंतु इस महासभा में भी हजारों कारीगरों के हितों की बात नहीं होती. इन कारीगरों पर यह शेर बिल्कुल फिट बैठता है-संगीत जो निकला वह सबने सुनासाज पर क्या गुजरी यह किसको पताएक नजरआभूषण बाजार में दुकानों की संख्या१.चौक सर्राफा, धोबी मोहाल-२५००२.चौ सर्राफा-३००३.जनरलगंज-२००४.लाल बंगला-५००५.किदवई नगर-४००६.गोविन्द नगर-१५०७.बर्रा-२००८.पी रोड-३०० से ऊपर९.काकादेव-१३५१०.बिरहाना रोड-५०० से अधिककिस बाजार में कितने कारीगरचौक सर्राफा-५०० से अधिकचौक सर्राफा धोबी मोहाल-५००० से अधिकजनरलगंज-८०० से अधिकलाल बंगला-६०० से अधिकनील वाली गली-१५०० से ऊपरनहीं बन पा रहा है कारीगर संघ-सर्राफा व्यवसायियों का संघ प्रत्येक सर्राफा बाजार में है, परंतु उन्हीं स्वर्णकारों के लिए काम करने वाले कारीगर का न तो अपना कोई फोरम है और न संघ. संगठन न होने से स्वर्ण कारीगर स्वर्ण व्यापारियों के दबाव में कार्य करते हैं.घातक रोगों से ग्रस्त हैं कारीगर-घन श्याम सिंह वर्मा, राज कुमार वर्मा, काला कृष्णा जैसे कई कानपुरी कारीगर आभूषण बनाने तथा बारीक काम करने के लिए पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध थे. आज वो हमारे बीच नहीं हैं क्योंकि ये समय से पहले ही काल का गाल बन गये. इनके फेफड़े और गुर्दे खराब हो गये थे. यदि यह कहा जाये कि सभी कारीगर किसी न किसी रोग से ग्रस्त हैं तो गलत न होगा. एक कारीगर बमुश्किल ४० से ४५ साल की उम्र तक काम कर सकता है. उसके बाद वह किसी काम का नहीं रहता. एक जगह बैठे इन्हें घुटनों तथा पीठ दर्द की तो शिकायत हो ही जाती है साथ ही आग की तपन से आंख की झिल्ली तक फट जाती हैं और तो और एसिड की झरप से इन्हें त्वचा रोग (सेंहुआ) भी हो जाता है. १० में से ८ कारीगरों के फेफड़े और गुर्दे खराब हो जाते हैं.शोषण का दंश झेलना हमारी मजबूरी है बांग्ला देश से यहां आकर बस गये एक बुजुर्ग कारीगर है पन्ना लाल. ७० वर्षीय पन्नालाल की बूढ़ी आंखों में आर्थिक विपन्नता से उपजी हताशा साफ झलकती है. वे आज भी कारीगरी करते हैं. पन्नालाल पाल १९६२ में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़का उसी समय ये कानपुर आकर बस गये. पन्नालाल कहते हैं कि रोजी रोटी तो जैस-तैसे चल रही है लेकिन इस उम्र में भी यह स्थिति है कि दो जून के भोजन के कारीगरी करना मेरी मजबूरी है, देखिये दो महीने से बैठा हूं पर मुझे कोई नहीं मिल रहा है. जिस उम्र में परलोक की चिंता करते हैं उसमें मैं जीवन बसर करने की फिक्र करने को मजबूर हूं. पन्नालाल कहते हैं कि स्वर्ण कारीगरों के इस हाल को देख कर ऐसा लगता है कि आने वाले १० साल बाद आपको कोई आभूषण बनाता नजर नहीं आयेगा क्योंकि इस व्यवसाय में न तो पैसा है और न ही इज्जत सिर्फ शोषण है.१५ वर्षों से स्वर्ण कारीगरी का काम कर रहे दिलीप पाल बताते हैं कि जब मेरे पापा १९८२ में बंगाल से कानपुर आया-आया था जब मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी. जब से बाहर के व्यवसायियों और मशीनों का कारखाना का दौर चला तब से हम लोगों की स्थिति मद से बदतर होती चली जा रही है. आज आलम यह है कि मैं अपने परिवार का पेट भी ठीक से नहीं पाल पाता हूं. इस भुखमरी का शिकार मेरे दो नवजात शिशुओं को बनना पड़ा. मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं अपनी गर्भवती पत्नी को प्रसव के दौरान अस्पताल ले जा पाता. इस कारण घर पर जन्म देते ही मेरे दोनों शिशुओं ने दम तोड़ दिया.५४ वर्षीय अमरचंद पाल बताते हैं कि ४० वर्षों से स्वर्ण कारीगरी कर रहा हूं. युवावस्था में जो सपने देखे थे टूट चुके हैं. आज १० ग्राम के आभूषण को एक कारीगर चार से पांच दिन में बनाता है वहीं मशीन एक किलो के माल को एक दिन में बना देती है और इसमें खर्च भी कम आता हे. यही कारण है कि आज स्वर्ण कारीगरों की स्थिति बदहाल है.सच ये भी हैउदार हुए बिरहाना रोड के सर्राफा व्यवसायीसर्राफा व्यवसायी, खास तौर पर बिरहाना रोड के सर्राफा व्यवसायी जो हर रोड लाखों का धंधा करता है वो इस समय स्वर्ण कारीगरों पर अपनी उदारता की अमृत वर्षा कर रहा है. अब आप सोच रहे होंगे कैसे? तो साहब आपको बता दें कि कुछ बुजुर्ग कारीगरों ने हेलो कानपुर को बताया कि बिरहाना रोड तमाम सर्राफा व्यवसायी आयात कर सहित दूसरे कर बचाने के लिए इन आभूषण कारीगरों का इस्तेमाल करते हैं. वे आभूषण बाहर से बने-बनाये मंगाते हैं और इस चोरी से बचने के लिए कागजों में दिखाते हैं कि ज्वैलरी हैंडमेड है अर्थात् कारीगरों के द्वारा बनाई गई है. इसके लिए बाउचर पर कारीगरों के साइन करवा लेते हैं. इस तरह वो हर चोरी से बच जाते हें. इस काम को करने के लिए इन कारीगरों को दो हजार से पांच हजार रुपये प्रति माह मिल जाते हैं. इस तरह सम्पन्न और प्रतिष्ठित सर्राफा व्यवसायी न केवल कारीगरों का गलत इस्तेमाल करते हैं बल्कि ग्राहकों को धोखा भी देते हैं. इसमें तमाम सर्राफा व्यवसायियों जैसे पीवी सोसाइटी ज्वैलर्स, कादम्बरी ज्वैलर्स, काशी ज्वैलर्स के नाम का खुलासा हुआ है. हालांकि सर्राफा व्यवसायी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं.

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