बुधवार, 18 नवंबर 2009

हिन्दी को राष्ट्र सिंहासन दो

प्रमोद तिवारी

महाराष्ट्र विधान सभा में राज ठाकरे के जिन चार गुण्डा विधायकों ने हिन्दी बोलने पर अबु आजमी को तमाचा मारा अगर उन्हें महाराष्ट्र विधान सभा के भीतर ही उल्टा लटका दिया जाये तब भी यह अपराध के मुकाबले न के बराबर सजा होगी. लेकिन इस देश के किसी भी राजनीतिक दल को यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वह हिन्दी का अपमान करने वाले इन चार गुण्डा विधायकों को तो छोडि़ए किसी टपोरी तक को सजा देने की बात कह सके. इसमें क्या शक कि पूरा देश राज ठाकरे के मनसे की हिन्दी विरोधी हिंसात्मक हरकत से तिलमिलाया हुआ है. राज ठाकरे और उनके मूर्ख विधायक अगर मुम्बई के बाहर मिल जाएं तो शायद उन्हें अपने किये पर पछतावा करने का भी वक्त न मिले. इतना गुस्सा है आम भारतियों में, जिनमें मराठी भी शामिल हैं. सिर्फ नागरिकों में ही नहीं राजनीतिकों में भी जबरदस्त गुस्सा दिखाई दे रहा है. मामला कुछ है ही ऐसा. कोई कह रहा है राज ठाकरे और उनके विधायकों को गिरफ्तार कर जेल में डाल देना चाहिए. कोई मनसे की मान्यता समाप्त करने की बात कर रहा है तो कोई ईंट का जवाब पत्थर से देने का पक्षधर है. कानपुर में पिछले सप्ताह हिन्दी प्रेमियों ने सड़क पर निकलकर अपने गुस्से का इजहार किया. नारे लगाये, पुतले फूंके, धरना-प्रदर्शन किया और फिर कुछ न कर पाने की तिलमिलाहट लेकर धीरे-धीरे अपने कामों में लग गये. आखिर आम नागरिक और कर ही क्या सकता है. बाकी जो राजनीतिक लोग हैं वे सब के सब नौटंकी बाज हैं. हिन्दी अगर आज राष्ट्र भाषा होती तो क्या महाराष्ट्र की घटना जन्म लेती. किसने नहीं बनने दिया हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा? इन्हीं राजनीतिकों ने. माना कि आजादी के बाद भाषाई विविधता एक प्रश्न था लेकिन इसके समाधान की दिशा में आज दिन तक किस नेता या किस पार्टी ने क्या प्रयास किया. किसी ने नहीं. आज अगर महाराष्ट्र विधान सभा की घटना को सिर्फ एक घटना मान कर जवाबी या संवैधानिक कार्रवाई की जाती है तो यह समस्या का भड़काऊ समाधान होगा. अगर वाकई महाराष्ट्र विधान सभा की घटना का कोई सटीक जवाब है तो बस इतना सा कि सभी राजनीतिक दल एक साथ एक मंच पर आयें और संविधान की मंशा के अनुसार हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित करें. अगर वाकई हिन्दी ही वह भाषा है जिससे यह देश एक सूत्र में बंध सकता है. तो फिर डर किस बात का. एक तरह से मनसे विधायकों ने देश की राजनीति को एक अधूरे पड़े बेहद जरूरी काम को पूरा करने का मौका दिया है. आखिर आजादी के आन्दोलन की भाषा हिन्दी ही तो थी. यह बात कौन नहीं समझेगा. लेकिन इसे समझाने वही निकलेगा जिसके पास दृण इच्छा शक्ति हो और समग्र राष्ट्र चिंतन. और अगर यह संभव नहीं है तो देश के राजनीतिक हिन्दी प्रेमी होने का स्वांग छोड़ें. कांग्रेस, भाजपा, सपा, सभी राज ठाकरे और उनके संगठन पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हंै. घटना की निन्दा कर रहे हैं. है न अजीब बात.. मांग करने वाले वही हैं, निन्दा करने वाले वही हैं जिन्हें खुद मांग पूरी करनी है, खुद ही कार्रवाई करनी है.

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