सोमवार, 23 नवंबर 2009

खरीबात

सुगम यातायात के लिए

प्रशासन सैन्य प्रयास करें

प्रमोद तिवारी
स्थितियों के आगे जिस तरह आदमी समपर्ण कर देता है उसी तरह शहर के ट्रैफिक के आगे यातायात पुलिस ने हथियार डाल रखे हैं. गोविन्द नगर, चावला मार्केट चौराहे पर चार सिपाही चौराहे के चारों कोनो पर मौजूद भी हैं. हाथ हिलाकर यातायात को बारी-बारी से निकलने का संकेत भी दे रहे हैं. और ट्रैफिक चौराहे की चारों दिशाओं से आ भी रहा है और जा भी रहा है. कोई किसी की मान नहीं रहा. एक दूसरे पर आंखें तरेरते, मां-बहन सेंकते बोनट-मेडगाड को ठोंकते बढ़े जा रहे हैं...बढ़े जा रहे हैं. मानो ढेरों मेंढक एक छोटे से गड्ढे में आगे निकलने के लिए उछल रहे हों. फजलगंज, जरीब चौकी, विजय नगर, गोविन्द नगर, सीटीआई चौराहा पर सुबह और शाम हर रोज यही स्थिति बनती है. शहर के अखबारों में प्रत्येक दिन इस 'रोनी-सूरतÓ की सव्यख्या तस्वीरें भी छपती हैं लेकिन प्रशासन और पुलिस सिर्फ ड्यूटी बजाने भर की चहल-कदमी करने के बाद खाने, सोने और तनख्वाह लेने चला जाता है. वह असहाय है. कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है. बढ़ती आबादी, टूटी-फूटी सड़कें, भयंकर अतिक्रमण -ट्रैफिक सिपाहियों का टोटा, ट्रैफिक सिग्नलों की दुर्दशा, यातायात नियमों पर अविश्वास, विक्रमों की बेताली चाल, जानवरों की आवारगी, नो इंट्री की कमाई और भी न जाने क्या-क्या? एक, दो, चार वजहें हों तो कोई कुछ करे भी. इतनी वजहों से पैदा हुई समस्या केवल 'ड्यूटीÓ निभाने से थोड़े ही दूर होने वाली हैं. इसके लिए नागरिक प्रशासन को सैन्य प्रयास करना होगा. और आम नागरिकों को इसके लिए ठीक उसी तरह खामोश सहयोग के लिए तैयार होना होगा जैसा अशांतिकाल में शांति अव्यवस्था की बहाली के लिए कफ्र्यू का सहयोग किया जाता है. लगता है कि समस्या की गंभीरता को सामाजिक मनोविज्ञान कतई नहीं समझा जा रहा है. कानपुर शहर के आम आदमी का 'टॉलरेंसÓ ट्रैफिक अराजकता के कारण लगातार खंूखार होता जा रहा है. आते-जाते, बात-बात में खून-खराबा के पीछे शहर के गुण्डा ट्रैफिक का भी बड़ा हाथ है. कानपुर में आदमी जाम में, गड्ढे में, भीड़ में ऐसे कराह रहा है जैसे चुटहिल हड्डी का दर्द. घर से दफ्तर और दफ्तर से घर पहुंचते-पहुंचते पति-पत्नी को और साहब चपरासी को मुस्कराता देख आग बबूला हो जाता है. कहीं का गुस्सा कहीं फूटता है. राह की अराजकता देहरी के भीतर प्रवेश करती जा रही है चुपके से. इस तरह जानलेवा घरेलू हिंसा तक में खिझाऊ ट्रैफिक एक कारण बनता जा रहा है.नये डीआईजी निश्चित अपना माथा ठोंकते होंगे कि आखिर कानपुर के हिंसक मिजाज से कैसे निपटा जाये. जरा-जरा सी बातों में खून बहाना, जेल जाना अगर शहर की प्रवृत्ति बन रही है तो इसके लिए शहर का वातावरण कम जिम्मेदार नहीं है. वातावरण बनता है बेहतर नागरिक सुविधाओं से. बिजली है नहीं आदमी तमतमाया रहता है. पानी है नहीं आदमी चिडि़चिड़ाया करता है. सड़क पर जगह नहीं है आदमी गरियाया करता है. जब पूरे शहर की दशा कमोवेश एक सी होगी तो कब किसका पारा खतरे के निशान को पार कर जाये क्या पता..?सड़क दुर्घटनाओं में मौतें भी अपराध की ही श्रेणी में आती है. ध्यान से देखिये कि सड़क पर होने वाली मौत में आपको ट्रैफिक का गैर कानूनी इस्तेमाल अवश्य मिलेगा. और यह गैर कानूनी इस्तेमाल आज कानपुर शहर में सड़क पर चलने की मजबूरी बन गई है. मुझे नहीं लगता जिस तरह की लचर निगरानी में ट्रैफिक कंट्रोल की कोशिश की जा रही है इससे कोई सुधार होगा. शहर को चौराहे-चौराहे पर मार-पीट के लिए तैयार रहना चाहिए. यातायात का दूसरा नाम प्रवाह भी है. प्रवाह रुकेगा तो वह जो भी सामने होगा, उससे टकरायेगा. पानी का प्रवाह रोकते-रोकते पहाड़ों का रेत होना किसे नहीं पता..! इसलिए शहर कलक्टर, शहर कप्तान, मेयर साहब और सड़कों के मालिकान (पीडब्ल्यूडी, नगर निगम, केडीए) आपस में बैठकर शहर यातायात को हर ले जाने वाले राक्षस के वध के लिए 'वाराहÓ का रूप धारण करें. अब यह जरूरी हो गया है.1

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