बुधवार, 4 नवंबर 2009

25 वर्ष की '84

प्रमोद तिवारी

कानपुर के सिखों को हम समय के आइने में दो तरह से देख सकते हैं. एक देश विभाजन से पहले और बाद के सिख, दूसरे सन् Ó८४ से पहले और बाद के सिख. सन् Ó४७ के विभाजन के बाद जो हिन्दू और सिख कानपुर आये वे न सिर्फ यहां बसे बल्कि इस बस्ती की आर्थिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक शक्ति में सिखों को विशिष्ट सम्मान का दर्जा दिलाया. यह दर्जा किसी ने उन्हें खैरात में नहीं दिया. कड़ी मेहनत, कड़ा अनुशासन और निस्वार्थ सेवा भाव ने उन्हें यह सामाजिक ओहदा दिलाया. बताने वाले बताते हैं कि अविभाज्य हिन्दुस्तान (पंजाब) में भी सिखों का 'रसूकÓ किसी तरह कम नहीं था. लेकिन कुछ शैतानी ताकतों ने सन् Ó४७ में भी और कुछ शैतानी ताकतों ने Ó८४ में भी साम्प्रदायिक सौहार्द में ऐसा जहर घोला कि पूरी की पूरी कौम उजड़े बंजारों सरीखी हो गई. लेकिन इसे कानपुर का कड़ा पानी और सिख कौम की फितरत ही कही जायेगी कि जब भी कभी किसी ने इन्हें उजाडऩे की कोशिश की या साजिश की तो कड़ा, कृपाण, कच्छा, केश और कंघी धारी कनपुरिए सिख कई गुना ताकत से उभरे और शहर की मुख्य धारा बनकर नगरीय सौहार्द की ताकत बने. यह कोरी शब्दों की लफ्फाजी नहीं है. समय-समय पर तरह-तरह के साम्प्रदायिक और जातीय तनाव के क्षण शहर में आते-जाते रहते हैं लेकिन एक अकेला Ó८४ है, उसके बाद से आज तक शहर के साम्प्रदायिक सौहार्द में 'सिखोंÓ की ओर से अमृत ही छलका है, विष नहीं. पलट कर देख लो पुलिस और प्रशासन का रिकार्ड बुक.
कहीं भी कोई घटना दर्ज नहीं है जिसमें सिख साम्प्रदायिक तनाव का कारण बने हों. आखिर यह साल-दो-साल का रिकार्ड नहीं है बल्कि जख्मों से भरी Ó८४ से आज तक २५ बरस की कहानी है. २५ बरस की हो गई Ó८४. इस चौरासी के २५ बरसों ने कानपुर के सिखों को क्या दिया? चाहे प्रशासन हो, शासन हो, प्रदेश सरकार हो या केन्द्र सरकार. सभी ने मरहम दिए लेकिन आधे-अधूरे जख्म को हरा करने वाले बाकी बचे नेता लोग उन्होंने झूठ और फरेब से भले आश्वासनों से पीडि़तों को बरगलाया. वरना बात क्या है कि २५ वर्ष में हर तरह की सरकारें आईं, केन्द्र में भी और राज्य में भी लेकिन दंगा, पीडि़त सिखों के मुआवजे और पुनर्वास का अध्याय पूरा नहीं हो सका.नेताओं और सरकारों पर से सिखों का विश्वास बहुत पहले ही हट गया था. तभी तो उन्होंने मुआवजे और पुनर्वास पैकेज के झुनझुने को आगे के जीवन का अकेला जरिया नहीं माना. कड़ी मेहनत, अनुशासन और कर्म प्रधान जीवन शैली पर विश्वास किया और नतीजा सामने है. शहर में जिन सिख परिवारों को जलाकर राख कर दिया था वे सभी पुनर्निर्माण के शिखर पर हैं और पहले से कहीं ज्यादा सरसब्ज हैं. वैसे २५ बरस की Ó८४ की भरी जवानी की दशा यह है कि आज भी आधे के आस-पास Ó८४ दंगा पीडि़त सिख 'राहत लाभÓ से वंचित हैं.


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