बुधवार, 4 नवंबर 2009


खाली थाली वाली दिवाली


प्रमोद तिवारी

पूड़ी-पकवान, मिठाइयां, मेवे, उपहार, नये-नये परिधान, भरपूर रोशनी और सत्यमेव जयते का उल्लास जब कार्तिक की अमावस में छोटे-छोटे दीपपुंजों से चारों ओर फूटता है तो अपने यहां दीवाली हो जाती है. प्रसन्नता पर्वों का स्थाई भाव होता है. एक तरह से विभिन्न पर्वों में हम तरह-तरह से अपनी प्रसन्नता को मनाते हैं. सारे के सारे एक साथ प्रसन्न खाते-पीते हैं, नाचते-गाते हैं, तरह-तरह के रस्मों-रिवाज निभाते हैं. फिर प्रसन्न-प्रसन्न अपनी दीन-दुनिया में वापस उतर जाते हैं. दीन-दुनिया का पर्वोंसे सीधा रिश्ता होता है. तभी तो जैसी दुनिया होती है पर्व भी धीरे-धीरे वैसे ही होते जाते हैं. जब दुनिया उदास है तो त्यौहार प्रसन्न प्रफुल्ल कैसे हो सकते हैं. वह चाहें दीवाली हो, ईद हो या क्रिसमस. लेकिन जब पूड़ी-पकवान रुलाने लगें, मिठाइयां डराने लगें, मेवे मुंह चिढ़ाने लगें, उपहार रिझाने लगें, नये-नये परिधान पुराने लगें, चारों ओर घुप अंधेरा हो और झूठ, फरेब का और रोशनी के नाम पर केवल वातायन हो जहरीला करती हुई आतिशी शोर हो तो पर्व की लीक पिटाई भले कर ली जाये लेकिन उसका स्थाई भाव 'प्रसन्नताÓ को मनाना संभव नहीं है. इस बार की दीपावली हमारे शहर के लिए कुछ ऐसी ही है.आप ही बताइये ३० रुपये किलो आलू, ४० रुपये किलो प्याज, ७८ रुपये किलो दाल, ३४ रुपये किलो शक्कर, ६० रुपये किलो तेल, १२ रुपये किलो नमक वाली मंडी में आम पर्व प्रेमी पूड़ी-पकवान मिठाइयां, मेवे, उपहार की भला कैसे सोच सकता है. सीधा-सीधा पेट भरने वाले 'सामानÓ पर प्रहार हो गया है. शहर का आम आदमी अपनी थाली में एक साथ दाल, चावल, सब्जी, प्याज रखने की सामथ्र्य खो बैठा है. इन स्थितियों में जगमगाती झलरों वाले बाजारों में ऑफरों से लैस किसी त्यौहारी संहिता का क्या माने रह जाता हैं. चाहें गणेश-लक्ष्मी वाले नये-नये चांदी के नोट हों, शुगर पीडि़तों के लिए शुगर फ्री मिठाइयां हों, कारों, इलेक्ट्रॉनिक्स के सामानों और जेवरातों के लिए एक से एक आकर्षक किफायती ऑफर हो लेकिन जब ये सारी चीजें सिर्फ कुछ लोगों के लिए ही हैं. इन्हें आगे बढ़कर अपनी देहरी भीतर लाने की सामथ्र्य सबके पास न हो तो ये किसी अवसर विशेष पर लगने वाले हाट के सामान तो हो सकते हैं लेकिन त्यौहार के सामान नहीं हो सकते. वह तो आलू, प्याज, शक्कर, तेल, नमक ही है. इन पर सबका समान वश है और इन्हें हर त्यौहार की रसोई में रहना ही होता है. आप सोच रहे होंगे इसने गंभीर चिंतनीय लेख में अचानक आलू, प्याज, तेल, नमक कहां से आ जाता है. दरअसल इस बार की दीवाली का सबसे गंभीर चिंतनीय पक्ष ही यही है कि तब-जब खाली है थाली, फिर काहे की दीवाली.हर पर्व का एक समान संहिता होती है. जो समान रूप से सभी पर लागू होती है. एक सा खाना चाहे राजा का हो या रंक का, एक सा विविध विधान चाहें राजा का हो या रंक का, एक सा उत्सवी रास चाहें राजा के लिए हो या रंक के लिए. सब कुछ एक से लेकिन पर्व के रूप-स्वरूप के लिए यह एकरूपता प्रथम अनिवार्यता होती है. यह तो सब कुछ 'एक सा वालीÓ बात है यह तभी संभव हो सकती है जब सभी के पास 'सब कुछÓ समान रूप से हो. जैसे आलू, दाल, सब्जी, शक्कर, तेल, नमक... आदि इत्यादि. आज भी इनकी कीमत चाहें इनकी औकात से कई गुणा हो गई हों लेकिन हर थाली इन्हें बुलाती है. यह बात अलग है कि कभी आलू है तो कभी दाल, कभी प्याज नहीं है, तो कभी शक्कर. इस बार की दीवाली में थाली पर संकट है. फिर अधूरी थाली तो हर गृहलक्ष्मी का अधूरा श्रृंगार होता है. रही बात आम उत्सव प्रेमियों की तो इसके लिए बुजुर्ग पहले ही कह गये हैं भूखे भजन न होय गोपाला. सेंसेक्स महंगाई की दर, सर्वेक्षणों और आंकड़ों के दुनियावीकरण के दौर में इस बार की दीवाली भले ही सर्वाधिक रोशन घोषित हो लेकिन दीवाली के एक दिन पहले और दीवाली के एक दिन बाद पूरे शहर की थाली में दाल, चावल, रोटी, साग एक साथ नहीं था. यह घोर अंधकार का प्रमाण है किसी रोशनी का उत्सव नहीं. 1

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