शनिवार, 28 नवंबर 2009

कामदीक्षा

काम, कला और ६४ अंग

अनेक कामशास्त्रियों ने कामशास्त्र के ६४ अंग बताये हैं. कुछ आचार्यों का कहना है कि कामशास्त्र के ६४ अंग और कला के ६४ रूप एक ही बात है. क्योंकि कलाएं भी तो सम्भोग मानी जाती है. रचनात्मकता जैसे कला का मूल तत्व है इसी प्रकार संभोग भी रचना की अंतिम परिणति है. कलाओं की ६४ संख्या के कारण ही शायद कामशास्त्र को भी चौंसठ कलाओं वाला माना जाने लगा है. जैसे ऋग्वेद के दशमण्डलीय होने के कारण ही तो उसे दशतयी कहा जाता है ऋग्वेद के दस मण्डलों के अनुकरण पर ही कामशास्त्र के अन्तर्गत साम्पगयोगिक अधिकरण के रचयिता पचाल बाभ्रव्य ने ही ऋग्वेद का विभाजन ६४ भागों में किया है उसी ने कदाचित् कामशास्त्र ग्रन्थ की महत्ता को प्रकट करने के लिए ऋग्वेद के समान ही साम्प्रयोगिक अधिकरण को भी चौंसठ अंगों वाला बना दिया है-ऐसा भी कुछ आचार्यों का मत है बाभ्रवीय आचार्योंके अनुसार-मैथुन के आठ प्रमुख भेद हैं-१.आलिंगन २.चुम्बन ३.नखक्षत ४.दन्तक्षत ५.संवेशन (साथ -साथ लेटना ) ६.सीत्कृत (सी -सी की ध्वनि करना ) ७.पुरूषायित अथवा विपरीत रति (स्त्री का ऊपर चढकर अथवाउसकी छाती पर लेटकर सम्भोग करना )तथा ८.औपरिष्टक अथवा मुख-मैथुन.इन आठों में प्रत्येक के पुन: आठ-आठ भेद होने से इनकी संख्या चौंसठ हो जाती है उपर्युक्त कथन के विरूद्घ वात्स्यायन लिखते हैं -बाभ्रवीय आचार्यों का यह मत उपयुक्त नही, क्योंकि एक तो इन आठ मैथुनों में से प्रत्येक मैथुन के आठ- आठ भेद नहीं है किसी मैथुन के अधिक भेद हैं तो किसी के कम. इसके अतिरिक्त बाभ्रवीयों के साम्प्रयोगिक अधिकरण में इन आठ मैथुनों के अलावा प्रहणन, विरूत, पुरूषेपसृप्त तथा चित्ररत आदि नाम से कई अन्य मैथुनों का भी उल्लेख हुआ है जिस प्रकार 'सप्तपर्ण Ó नाम से प्रसिद्घ वृक्ष सात पत्तों वाला नहीं होता, जिस प्रकार 'पंचवर्ण बलिÓ पांच वर्णे (रंगों) वाली नही होती, उसी प्रकार बाभ्रवीय आचार्यों के कथन को भी सामान्य रूप से रूढ़ वचन ही मानना चाहिए.1 पी नन्दी


बात मामाओं की


भगवान इस जीवन में मामा तो दुश्मन को भी न बनाये. गधा, घोड़ा, उल्लू या उसका प_ा सब चलेगा लेकिन मामा के लिए कोई स्कोप नहीं है. मुझे लगता है कि मामाओं की ये दुर्दशा इतिहास के मामा लोग कंस और शकुनि ने बनाई है. पहले शहर के स्कूली लौंडे पुलिस वालों को मामू कहकर पुकारते थे, पुलिस चिढ़ती भी खूब थी और कंस बनके डंडों से सेवा भी करती थी.दरअसल आज जिन मामा जी से आज मैं आपको मिलाना चाहता हूं वो ही बेहद अदभुत इंसान हैं. इनकी माइज के लोग सिंधु घाटी की सहायता के समय पाये जाते थे. बट, बैरल और बाडी सब रावण के अनुज जैसी है और आवाज ऐसी कि लोग सुनते डाइपर गीला कर दें. दशहरे के दिन ये बेचारे घर में ही लुके रहते हैं. पता नहीं कौन मुआ रावण समझ के पलीता लगाड़े. इन दिनों शहर के छोकरे मामा को वीडियोगेम बनाये हुए हैं जब देखो खेलते रहते हैं. शहर के एक विधायक ने सुलभ मनोरंजन के लिए अपनी निधि से इनके लिए एक चबूतरा भी बनवा दिया है. यहां शहर भर के कुरीच अपने मामा से खेलने आते हैं. गेंद जरा सी ढीली हुई नहीं कि बॉलर के ऊपर से छक्का पक्का समझो. मामा बेचारे छक्का खाये-खाये खुद छक्का बन गये हैं. मुझे तो डर लगता है कि किसी दिन पायल पांडे उन्हें अपनी टीम में शामिल न कर लें. इसीलिए सयाने पहले ही कह गये हैं कि लौंडे-लफाडिय़ों को मुंह नहीं लगाना चाहिए. अब मामा को समझाये कौन? मामा छूटते गरियाने लगता है. बात ठीक भी है शकुनि के तो एक सैकड़ा मांगे थे यहां पूरा शहर उनका भांजा है सबको झेलना मुश्किल काम है. मामा से खेलने वाले छोकरे सुबह से अड्डे पर लग जाते हैं दो एक घण्टे मामा से खेलने के बाद आई टॉनिक लेते हुए दूसरी सुबह का इंतजार करने लगते हैं. अगर आपके पास सुबह थोड़ा टाइम हो तो इस खेल में जरूर शामिल होइये, बहुत मजा आयेगा, मामा की गारंटी है भांजों के लिए.

छूट गई

ऊपर एक बात छूट गई थी मामा के बारे में प्रकाश पडऩे से रह गया था. उनका हाल न मोका और न तोका ठौर वाला हाल है. 1

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

भारत की
तालीबानी
खप पंचायतें?

देश की राजधानी दिल्ली के आस-पास हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान के २५००० गांवों में खप पंचायतों का शासन चलता है देश का नहीं. इनका अस्तित्व ६०० ई.से आया यह हमारे देश के संविधान और कानून को नहीं मानते. यह गैंगरेप, फांसी, गांव निकाला की सजायें देते हैं. इनकी अपनी सेना है. ८४ गांवों की जिसमें एक जाति के लोग रहते हैं जिससे एक खप होती है. ऐसी ३०० खप है इनकी सर्वोच्च खप है. इनका कहना है-ह्म् यदि तुम खप का मामला पुलिस के पास ले गये तो उनसे अपनी जान की रक्षा करने को भी कहना.ह्म् यदि तुम अपने ही गोत्र में विवाह करोगे तो तुमको मारा जायेगा. हम बिरादरी को दूषित नहीं होने देंगे.ह्म् हम उच्चतम न्यायालय को नहीं मानते. हमारा आदेश अन्तिम है उसे कोई न्यायालय नहीं बदल सकता.ह्म् गलती या आदेशों की अवेलना करने वाले लड़के य लड़की को मारने का अवसर तुमको बिरादरी के प्रति निष्ठा का अवसर देता है.यह खप प्रत्येक सप्ताह चार लोगों को फांसी सुनाते हैं. इसी कारण इन गांवों में सेक्स का अनुपात ६८३ से ३७० आ गया है. इन्होंने नाचने और क्रिकेट पर भी रोक लगा दी है. अब इन्होंने इसे धन कमाने का साधन भी बना लिया है बच्चों का अपहरण कर उन्हें संतान रहित दम्पत्ति को ५०,००० में बेच देते हैं. फिर उसे ६०००० रुपये लेकर वापस कर देते हैं. गांवों से निकाले गये व्यक्तियों की जमीन पर खप कब्जा कर लेती है. वे राजनीति को भी प्रभावित करते हैं क्योंकि उनके पास वोट संख्या है वे उनको वोट देते हैं जो उनके नियमों को बनवाते हैं. आश्चर्य है केन्द्र सरकार कहती है यह राज्यों का मामला है राज्य सरकारें कहती हैं यह सामाजिक मामला है समाज निर्णय लेने में सूक्ष्म है उन्हें कोई गलती नहीं नजर आती है. पुलिस भी उनसे सहमत है अतएव कार्यवाही नग्न है. सरकार और समाज अपना उत्तरदायित्व समझे और सतीप्रथा की तरह इसे रोकें. इन क्षेत्रों का इनके कारण विकास भी नहीं हो रहा है. इन अपराधों के लिए अलग से नियम बनाये जा सकते हैं जो इनके नियमों के विरुद्ध विवाह करते हैं उन्हें गांव से निकाल देते हैं. एक लाख रुपये लेकर अन्यथा हत्या. क्रिकेट और डांस में झगड़ा होता है जुआ होता है अतएव नहीं करने देते. ६२ वर्ष की आजादी के बाद भी यदि इच्छानुसार विवाह नहीं कर सकते. खेल नहीं सकते, नृत्य नहीं कर सकते तो हम गुलाम हंै हमारे जीवन पर दूसरे का अधिकार. हमारी सरकार पर हत्यारे, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी कब्जा किये बैठे हैं. वे सब कुछ कर सकते हैं पता नहीं आगे क्या होगा?1

न्यूक्लीयर प्लांट के लिए भारत और अमरीका में समझौता

अणु शक्ति के उपयोग के लिए न्यूक्लीयर प्लांट लगाने के लिए भारत और अमरीका में समझौता हुआ है. अमरीका को पिछले ३६ वर्षों में विश्व में कहीं भी न्यूक्लीयर प्लांट लगाने का ठेका नहीं मिला है. भारत में प्लांट लगाना उसके लिये सुनहरा अवसर है परंतु न्यूक्लीयर प्लांट लगाने से होने वाले खतरों का बोझ वह नहीं उठाना चाहता है. उसने भोपाल चैर्नोबिल हादसों को देखते हुए अपनी जिम्मेदारी कम से कम करना चाहता है. अभी तक प्लांट लगाने वाली कंपनी को हादसों से होने वाले नुकसान के लिए अधिक से अधिक धनराशि का बीमा लेना पड़ता है इसके अतिरिक्त देश की सरकार को ५०० मिलियन डॉलर का सुरक्षा कवच भी देना पड़ता है. अमरीका ने इसे एक कानून बनाकर बीमा की धनराशि ६० मिलियन डॉलर और सुरक्षा कवच पर आने वाला खर्च उस देश पर डाल दिया जहां प्लांट लगेगा. अमरीका चाहती है भारत इसके लिए कानून बना दे. न्यूक्लीयर प्लांट से जो विकिरण होता है वह खतरनाक जहर है जिसका असर लंबे समय तक होता है और छोटी से छोटी मात्रा भी कैंसर और जैनेटिक हानि करता है. रेडियो एक्टिव प्लूटोनियम-२३९, २४४०० वर्ष और यूरेनियम-२३५, ७१० मिलियन वर्ष तक हानि पहुंचाते रहते हैं.विज्ञान ने अभी तक इन बेकार या काम न आने वाले प्लूटोनियम एवं यूरेनियम को इस प्रकार रखने या नष्ट करने का उपाय नहीं ढूंढ़ पाया है ताकि इनसे होने वाले कैंसर या जैनेटिक नुकसान को रोका जा सके. न्यूक्लीयर प्लांट लगाना आवश्यक है ऊर्जा पैदा करने के लिए अमरीका इस कार्य के लिए अरबों डॉलर कमायेगा परंतु उनसे होने वाले हादसों के लिए बीमे पर केवल ६० मिलियन डॉलर और सुरक्षा कवच पर केवल ११.६ मिलियन डॉलर खर्च करना चाहता है अधिक से अधिक बोझ भारत सरकार वहन करे. ऐसा कानून बनाना या समझौता करना पूर्णत: देश के हित में नहीं है.1 (लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)
खरीबात
एक बार फुटपाथ-फुटपाथ

मैराथन बस!
प्रमोद तिवारी
देश में शायद ऐसा कोई दूसरा शहर नहीं होगा जहां सड़क के बीचो-बीच पैदल, साइकिल, स्कूटर, कार, टेम्पो, लोडर, छोटा हाथी, हाफडाला, खडख़ड़ा, भैंसा-ठेला, बस, ट्रक, गाय, भैंस, सुअर और कुत्ता एक साथ चलते हों. शहर का ऐसा कोई भी इलाका नहीं है जहां किसी भी तरह के जीव या वाहन के आने जाने की रोक हो. केवल वीआईपी रोड और माल रोड पर दिन में कुछ वाहन नजर नहीं आते बाकी हर जगह हर समय जो जहां चाहे जैसे चाहे आ जा सकता है. लेकिन लोग आ जा कहां पा रहे हैं. पूरे शहर में तो जाम काबिज है. शाम पांच बजे से लेकर सात बजे तक तो शहर का हर प्रमुख चौराहा वाहनों की रेलमपेल में फंसा रहता है. ऊपर से शहर की इस त्रासद तस्वीर को सुधारने की दिशा में कोई काम करता भी नजर नहीं आता. चाहे होमगार्ड वाला हो, चाहे सिपाही हो या ट्रैफिक का जवान सब के सब हाथ-पांव डाले असहाय से ड्यूटी बजाते दिखाई पड़ते हैं लेकिन स्थिति उनके बूते से बाहर है. हां इन लोगों के पास ट्रैफिक कंट्रोल करने का साधन और साहस भले न हो लेकिन वाहन चेकिंग और ट्रकों तथा लोडरों की ओवर लोडिंग के बहाने वसूली का प्रशंसनीय पराक्रम है. शहर में ट्रैफिक का एक पुलिस कप्तान भी होता है. लेकिन यह कप्तान भी लगता है हार गया है और शहर को उसकी राह और चाल के भरोसे छोड़ दिया है. शहर के यातायात के चौपटीकरण के लिए तीन कारण प्रमुख हैं जिसमें सबसे पहला नम्बर आता है यहां के व्यापारियों का. खुद को बेहद काम का और शांत बताने वाला शहर का व्यापारी आज शहर की सड़कों और फुटपाथों का सबसे बड़ा लुटेरा हो गया है. दूसरा शहर की चाल का पर्याय बना विक्रम. यह एक ऐसी सवारी है जिसके बिना फिलहाल तो शहर का चल पाना मुश्किल लगता है. यही मजबूरी इन टेम्पुओं और विक्रमों को बेढंगी चाल चलने की छूट देती हैं. जाम के ज्यादातर कारणों में इन्हीं सवारी वाहनों की उटपटांग , बेढंगी चाल और आगे निकलने की होड़ सामने आती है. अगर शहर के विक्रमों पर किसी तरह का अंकुश सम्भव हो सके तो फिलहाल यातायात थोड़ा आसान हो सकता है. तीसरा कारण है यातायात व्यवस्था का प्रशासनिक ढांचा. कहीं भी ट्रैफिक सिग्नलों का कोई मतलब नहीं है (दो-चार चौराहों को छोड़कर). धीरे-धीरे पांच वर्ष होने को आये शहर में स्वचलित ट्रैफिक सिग्नल सिस्टम को. जिस दिन से यह सिस्टम आया है उसी दिन से भ्रष्ट है. इन तीनों ही कारणों को दूर करने के लिए किसी भी तरह की आर्थिक या कानूनी अड़चन सामने नहीं है. व्यापारी लोग सड़क से अपने कब्जे हटा लें, विक्रम वाले अपने रास्ते, स्टाफ और स्पीड पर अपना ही नियंत्रण कर लें और जो सरकारी मुलाजिम यातायात के नाम पर जो वेतन पाते हैं वे नमक हलाली कर दें यानी अपनी ड्यूटी को ईमानदारी सेे अंजाम दे दें तो शहर की तीन चौथाई यातायात व्यवस्था अपने आप दुरुस्त हो जाएगी लेकिन जिस शहर में सड़क के बीचो-बीच एक साथ हर तरह की भीड़ चलती हो वहां नागरिक समझदारी की बात करना बेमानी ही है. तो फिर आखिर क्या किया जाये. बतौर कनपुरिया नागरिक मेरे मन में एक विचार आया है. आप भी जरा गौर से सुनें या पढ़ें-मैं गुमटी में रहता हूं. गुमटी के दानों ओर कौशलपुरी और दर्शनपुरवा घनी आबादी के इलाके हैं. मेरा अह्वान है कि दोनों ही इलाकों के लोग राजकीय श्रमहितकारी केन्द्र में एकत्र हों और सिर्फ एक घोषणा करें कि वे फजलगंज से लेकर गुमटी गुरुद्वारे तक फुटपाथ मार्च करेंगे. अब पैदल-पैदल फुटपाथ पर चलने से तो कोई रोक नहीं सकता. हजारों पांव जब एक साथ फुटपाथ की तरफ बढ़ेंगे न तो चाहे जितना बड़ा व्यापारी संगठन हो या निठल्ला प्रशासन रास्ता अपने आप साफ हो जायेगा. तमाम कारणों से समय-समय पर मैराथन दौड़ें आयोजित की जाती हैं. एक बार अगर यह शहर फुटपाथ-फुटपाथ मैराथन का आयोजन कर दे तो अतिक्रमण के साथ-साथ जाम की आधी समस्या हल हो जाये. लेकिन इसे करे कौन? शायद हम.1
स्वर्ण कारीगर भुखमरी की कगार पर
सोना ओढ़े टाट
जया वाजपेई
साठ के दशक में मुम्बई दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण बाजार बन कर उभरा तो देश के दूसरे बड़े शहरों में भी ज्वैलरी का धंधा गति पकडऩे लगा. इस होड़ में उत्तर प्रदेश भी पीछे नहीं रहा. कानपुर में ज्वैलरी कारोबार काफी तेज गति से विकसित हुआ. आज आलम यह है कि मात्र बिरहाना रोड जो कि 'बड़ी बाजारÓ के रूप में जाना जाता है में रोजाना करीब डेढ़ करोड़ के आभूषण का कारोबार होता है. सर्राफा कारोबारियों की मानें तो प्रदेश में आभूषण कारोबार में सबसे अधिक राजस्व सरकार को इसी शहर से मिलता है. तेजी से विकसित हुए आभूषण कारोबार के चलते राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल यहां तक कि बांग्ला देश तक से कारीगर इस शहर में बड़े पैमाने पर आकर बसने लगे.
सबके जीवन में चमक बिखेरने वाला सोना आभूषण गढऩे वालों के जीवन में चमक नहीं बिखेर पा रहा. कुछ सौ रुपये के वेतन या फिर ठेकेदारी पर उनका जीवन लोहा पीटने वालों से भी बदतर हो गया. पूरा-पूरा दिन बड़े ध्यान से स्वर्ण आभूषणों को बनाने से लेकर उस पर मुंह से आग फूंक-फंूक कर टांका लगाने तथा तेजाब (एसिड) जैसे जहरीले पदार्थ से उसकी धुलाई एवं पॉलिश की लंबी प्रक्रिया को अंजाम देने में ये कारीगर दिन-रात एक करते हैं. विमल रॉय को ही ले, ये एक ऐसे कारीगर हैं जिनकी उम्र ही आभूषण बनाते हुए गुजर गई. इनके पिता कन्हैया लाल बांग्ला देश वहां १९६२ में हुए दंगों के दौरान पलायन करके यहां आ गये. ये १९६३ में रोजी-रोटी की तलाश में कानपुर आ गये. स्वर्ण कारीगीरी में दक्ष होने के कारण इन्हें जल्दी काम भी मिलने लगा. उसके बाद कन्हैया लाल ने इन्हें भी स्वर्ण आभूषण बनाने में दक्ष कर दिया. इन्होंने तमाम स्वर्ण व्यवसायियों के लिए स्वर्ण आभूषण तैयार किया पर आज विमल राय इस व्यवसाय को छोडऩा चाहते हैं. वे कहते हैं स्वर्णकार को दूसरे कलाकारों की तरह सामाजिक प्रतिष्ठा मिलनी तो दूर पेट भर भोजन तक मुश्किल से नसीब होता है. परन्तु यह भी सत्य है कि इस कारीगरी के अलावा हमारे पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है. चौक सर्राफा एसोसिएशन, धोबी मोहाल के अध्यक्ष सुरेन्द्र बाबू का कहना है कि स्वर्ण कारोबार में तेजी आने के बाद एक लाख से ऊपर आभूषण कारीगर के साठ के दशक में कानपुर में सक्रिय हुए थे. इनमें से लगभग ४० हजार कारीगर बाहर के प्रदेशों के थे. परंतु आज स्थिति दूसरी है मशीनों से आभूषण बनने और कारीगरों को उचित पारिश्रमिक न मिलने से कारीगरों की संख्या घट रही है. इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि स्वर्ण कारोबार कई गुना बढऩे के बाद आज शहर में मात्र ६० हजार कारीगर बचे हैं. जो बचे हैं वो किसी तरह अपना पेट पाल रहे हैं. आज भारत भले ही विश्व के बड़े स्वर्ण उपयोग वाले देशों की कतार में आगे खड़ा हो. देश में घरों, मन्दिरों में पीढ़ी दर पीढ़ी २० हजार टन स्वर्ण भण्डार और आभूषण हो, लेकिन फिर भी देश में तीन लाख से अधिक स्वर्ण मजदूरों की स्थिति में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा. उल्टा स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है. कानपुर में आभूषण कारोबार को ले तो यहां पर दो थोक व्यापार के बाजार चौक सर्राफा व नयागंज है. यहां रोजाना डेढ़ से दो करोड़ के बीच का कारोबार होता है. जिस अनुपात में कारोबार में वृद्धि हुई और निरंतर जारी है, उस अनुपात में कानपुर के ६० हजार स्वर्ण कारीगरों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. दूसरे प्रदेशों से अपनी आंखों में उन्नति का सपना लेकर आये ये कारीगर आज दो से तीन हजार रुपये प्रतिमाह के वेतन पर गुजारा कर रहे हैं. यही कारण है कि कारीगर की नई पीढ़ी अपने इस पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़ रही है. नारायण पाल, ऋषिकेश पाल, राधा कृष्ण, पप्पू, लक्ष्मी दास, विश्व शंकर जैसे सैकड़ों कारीगर अब रोजी रोटी के दूसरे साधन तलाश कर रहे हैं. दूसरी तरफ जो आज भी इस पेशे से जुड़े हैं वे तंगी से गुजारा कर रहे हैं और न ही उनकी आय में बढ़ोत्तरी हो रही है और न ही काम करने के लिए हवादार कार्य स्थल मिल रहा है. आशीत पाल, सुशेन्दु बाबू, सुनील कुमार, सुरेश गौढ़ पाल, केदार नाथ, राज कुमार जैसे कारीगर आज घुटन भरे जहरीले माहौल में कार्य करने को मजबूर हैं. जीवन पर्यन्त कारीगरी करने वाले में कारीगर सोने की तरह अपने जीवन को गला देते हैं और अंत में भयंकर बीमारी की चपेट में आ जाते हैं. तमाम कारीगर श्वांस की बीमारी से ग्रस्त हैं. इतना सब होने के बाद भी इन्हें स्वर्णकारों की तरह सम्पन्नता प्राप्त नहीं है और न डीलर जितनी इज्जत. १२-१२ घण्टे लगातार एक ही स्थान पर बैठ कर काम करने वालों को आज भी मजदूर कहा जाता है.खुली अर्थव्यवस्था एवं मशीनीकरण भी इनकी जहालत के लिए जिम्मेदार है. स्वर्ण कारीगरों की हालत स्वास्थ्य ठीक न होने तथा मशीनीकरण से उनकी रोजी-रोटी छिन चुकी है. इस विषय पर जब हेलो कानपुर ने चौक सर्राफा एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेन्द्र बाबू इस विषय में बोलने को तैयार नहीं है फिर वे स्वीकारते हैं कि स्वर्ण कारीगरों की हालत अच्छी नहीं है. एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि मैं कारीगरों पर आश्रित नहीं हूं. इस कारण कोई मुझ पर उनके शोषण का आरोप नहीं लगा सकता है. हास्यपद बात यह है कि प्रतिवर्ष 'सर्व स्वर्णकार सभाÓ का आयोजन चौक सर्राफा करती है परंतु इस महासभा में भी हजारों कारीगरों के हितों की बात नहीं होती. इन कारीगरों पर यह शेर बिल्कुल फिट बैठता है-संगीत जो निकला वह सबने सुनासाज पर क्या गुजरी यह किसको पताएक नजरआभूषण बाजार में दुकानों की संख्या१.चौक सर्राफा, धोबी मोहाल-२५००२.चौ सर्राफा-३००३.जनरलगंज-२००४.लाल बंगला-५००५.किदवई नगर-४००६.गोविन्द नगर-१५०७.बर्रा-२००८.पी रोड-३०० से ऊपर९.काकादेव-१३५१०.बिरहाना रोड-५०० से अधिककिस बाजार में कितने कारीगरचौक सर्राफा-५०० से अधिकचौक सर्राफा धोबी मोहाल-५००० से अधिकजनरलगंज-८०० से अधिकलाल बंगला-६०० से अधिकनील वाली गली-१५०० से ऊपरनहीं बन पा रहा है कारीगर संघ-सर्राफा व्यवसायियों का संघ प्रत्येक सर्राफा बाजार में है, परंतु उन्हीं स्वर्णकारों के लिए काम करने वाले कारीगर का न तो अपना कोई फोरम है और न संघ. संगठन न होने से स्वर्ण कारीगर स्वर्ण व्यापारियों के दबाव में कार्य करते हैं.घातक रोगों से ग्रस्त हैं कारीगर-घन श्याम सिंह वर्मा, राज कुमार वर्मा, काला कृष्णा जैसे कई कानपुरी कारीगर आभूषण बनाने तथा बारीक काम करने के लिए पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध थे. आज वो हमारे बीच नहीं हैं क्योंकि ये समय से पहले ही काल का गाल बन गये. इनके फेफड़े और गुर्दे खराब हो गये थे. यदि यह कहा जाये कि सभी कारीगर किसी न किसी रोग से ग्रस्त हैं तो गलत न होगा. एक कारीगर बमुश्किल ४० से ४५ साल की उम्र तक काम कर सकता है. उसके बाद वह किसी काम का नहीं रहता. एक जगह बैठे इन्हें घुटनों तथा पीठ दर्द की तो शिकायत हो ही जाती है साथ ही आग की तपन से आंख की झिल्ली तक फट जाती हैं और तो और एसिड की झरप से इन्हें त्वचा रोग (सेंहुआ) भी हो जाता है. १० में से ८ कारीगरों के फेफड़े और गुर्दे खराब हो जाते हैं.शोषण का दंश झेलना हमारी मजबूरी है बांग्ला देश से यहां आकर बस गये एक बुजुर्ग कारीगर है पन्ना लाल. ७० वर्षीय पन्नालाल की बूढ़ी आंखों में आर्थिक विपन्नता से उपजी हताशा साफ झलकती है. वे आज भी कारीगरी करते हैं. पन्नालाल पाल १९६२ में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़का उसी समय ये कानपुर आकर बस गये. पन्नालाल कहते हैं कि रोजी रोटी तो जैस-तैसे चल रही है लेकिन इस उम्र में भी यह स्थिति है कि दो जून के भोजन के कारीगरी करना मेरी मजबूरी है, देखिये दो महीने से बैठा हूं पर मुझे कोई नहीं मिल रहा है. जिस उम्र में परलोक की चिंता करते हैं उसमें मैं जीवन बसर करने की फिक्र करने को मजबूर हूं. पन्नालाल कहते हैं कि स्वर्ण कारीगरों के इस हाल को देख कर ऐसा लगता है कि आने वाले १० साल बाद आपको कोई आभूषण बनाता नजर नहीं आयेगा क्योंकि इस व्यवसाय में न तो पैसा है और न ही इज्जत सिर्फ शोषण है.१५ वर्षों से स्वर्ण कारीगरी का काम कर रहे दिलीप पाल बताते हैं कि जब मेरे पापा १९८२ में बंगाल से कानपुर आया-आया था जब मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी. जब से बाहर के व्यवसायियों और मशीनों का कारखाना का दौर चला तब से हम लोगों की स्थिति मद से बदतर होती चली जा रही है. आज आलम यह है कि मैं अपने परिवार का पेट भी ठीक से नहीं पाल पाता हूं. इस भुखमरी का शिकार मेरे दो नवजात शिशुओं को बनना पड़ा. मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं अपनी गर्भवती पत्नी को प्रसव के दौरान अस्पताल ले जा पाता. इस कारण घर पर जन्म देते ही मेरे दोनों शिशुओं ने दम तोड़ दिया.५४ वर्षीय अमरचंद पाल बताते हैं कि ४० वर्षों से स्वर्ण कारीगरी कर रहा हूं. युवावस्था में जो सपने देखे थे टूट चुके हैं. आज १० ग्राम के आभूषण को एक कारीगर चार से पांच दिन में बनाता है वहीं मशीन एक किलो के माल को एक दिन में बना देती है और इसमें खर्च भी कम आता हे. यही कारण है कि आज स्वर्ण कारीगरों की स्थिति बदहाल है.सच ये भी हैउदार हुए बिरहाना रोड के सर्राफा व्यवसायीसर्राफा व्यवसायी, खास तौर पर बिरहाना रोड के सर्राफा व्यवसायी जो हर रोड लाखों का धंधा करता है वो इस समय स्वर्ण कारीगरों पर अपनी उदारता की अमृत वर्षा कर रहा है. अब आप सोच रहे होंगे कैसे? तो साहब आपको बता दें कि कुछ बुजुर्ग कारीगरों ने हेलो कानपुर को बताया कि बिरहाना रोड तमाम सर्राफा व्यवसायी आयात कर सहित दूसरे कर बचाने के लिए इन आभूषण कारीगरों का इस्तेमाल करते हैं. वे आभूषण बाहर से बने-बनाये मंगाते हैं और इस चोरी से बचने के लिए कागजों में दिखाते हैं कि ज्वैलरी हैंडमेड है अर्थात् कारीगरों के द्वारा बनाई गई है. इसके लिए बाउचर पर कारीगरों के साइन करवा लेते हैं. इस तरह वो हर चोरी से बच जाते हें. इस काम को करने के लिए इन कारीगरों को दो हजार से पांच हजार रुपये प्रति माह मिल जाते हैं. इस तरह सम्पन्न और प्रतिष्ठित सर्राफा व्यवसायी न केवल कारीगरों का गलत इस्तेमाल करते हैं बल्कि ग्राहकों को धोखा भी देते हैं. इसमें तमाम सर्राफा व्यवसायियों जैसे पीवी सोसाइटी ज्वैलर्स, कादम्बरी ज्वैलर्स, काशी ज्वैलर्स के नाम का खुलासा हुआ है. हालांकि सर्राफा व्यवसायी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं.

प्रमोद तिवारी

सोना १८ हजारी हो गया तब, जब बाजार में सन्नाटा है. कौन खरीदता है फिर सोना. जब दीपावली में कानपुर सर्राफा बाजार में हुई सोने की खरीद से सुर्खियों में आया तो सोना-चांदी का व्यापार करने वाले फूले नहीं समाये लेकिन आयकर वालों की आंखें बिरहाना रोड और चौक सर्राफे की ओर घूम गर्इं. सोना और सोने के आभूषण बेंचने वालों से खरीददारों के डिटेल मांगे गये. कायदे से पक्का व्यापार करने वाले कानपुर के दिग्गज प्रतिष्ठानों को सहयोगी भाव रखना चाहिए था. लेकिन उल्टा हुआ. शहर के सोना व्यापारियों की एक जुटता बनीं और मुख्यमंत्री से आयकर की जांच-पड़ताल को स्वर्ण व्यापारियों का उत्पीडऩ बताया गया. शहर की सोना लॉबी एक बार फिर भारी पड़ी. उसका एतराज सोने की चमक में अर्थवान हो गया. जांच-पड़ताल सब बंद हो गई. आखिर क्यों न बंद होती. जब सोना खरीदने वाली ज्यादातर डीलों में सरकारी अधिकारियों की भी भागीदारी है. सूत्रों के अनुसार दीपावली के अवसर पर कानपुर के अधिकारी वर्ग में से कुछ एक ने आधा-आधा किलो, एक-एक किलो सोने की खरीद की. इस खरीद में भला कितनी पक्की लिखा-पढ़ी होगी, कौन बतायेगा. खरीददार का नाम और अगर नाम सामने आयेगा भी तो कम से कम असली खरीददार का तो नहीं होगा. शहर में दीपावली के बाद से मची सोना मण्डी की इस किचकिच ने हेलो कानपुर को भी शहर के सोने और सुनारों की ओर मुखातिब किया. अपन तो सड़क छाप मुद्दे उठाते हैं और कमाल यह होता है कि हमारे सड़क छाप मुद्दे आसमान फाड़ हो जाते हैं. हमने जब आभूषण बनाने वाले स्वर्णकारों से शहर की सोना मण्डी की नब्ज की असलियत पूछी तो साफ हो गया यहां सोना भले पक्का बेंचा जाता हो लेकिन व्यापारी पीतल के हैं. कारीगरों ने जो बताया उससे शहर में बड़े पैमाने पर सोने की तस्करी और कर चोरी का पता चलता है. शहर के बड़े-बड़े शो-रूम इसमें लिप्त हैं. कारीगरों ने हेलो कानपुर को पहचान गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि बिरहाना रोड में कई बड़े जैवैलरी वाले सोने का काला धंधा कर रहे हैं. इस धंधे की जड़ें बहुत गहरी हैं. कारीगर बताते हैं कि यह लोग बाहर से बने-बनाये आभूषण मंगवाते हैं और उन्हें अपने यहां का निर्माण उत्पाद बताकर बेंचते हैं. इस काम को करने में ये सोने के व्यापारी स्वर्णकारों से आभूषण बनवाई के फर्जी बाउचर साइन करा लेते हैं और इसके एवज में तीन से चार हजार रुपये तक कारीगरों को देते हैं. चूंकि स्वर्णकारों का लौह काल चल रहा है अर्थात् स्वर्णकारी भुखमरी की कगार पर है. इसलिए मजबूरी में कारीगर पेट के खातिर इन्हें बड़े सोना व्यापारियों के चोरी में शामिल हो जाते हंै. सोना व्यापारियों का यह खेल वर्षों से चल रहा है. इस खेल में सोना भी एक नंबर का बन रहा है. बिक्री कर विशेषज्ञों से इस संबंध में बात करने पर उन्होंने बताया कि यह केवल चोरी का ही मामला थोड़े ही है आखिर जिस आभूषण की फर्जी कारीगरी का असली भुगतान किया जाता है उसके कच्चा माल (सोना-चांदी) के आवागमन का भी तो हिसाब-किताब होना चाहिए. जिस आभूषण की बनवाई दी जाती है उसका कच्चा माल भी तो दर्शाया जाता होगा. जब बाहर से बने-बनाये आभूषण पर लोकल मोहर (निर्माण का भुगतान) लगाई जाती है तो सोने की 'खपतÓ का सवाल नहीं जबकि यह खपत निश्चित ही दर्शाई जाती होगी. इसका मतलब हुआ बने बनाये आभूषणों को अपना उत्पाद बताकर सिर्फ कर चोरी ही नहीं हो रही है बल्कि तस्करी से लाये गये सोने-चांदी को नंबर एक का भी बनाया जा रहा है. शहर में सोने के व्यापारी दो नम्बर के सोने को एक नम्बर का भी बना रहे हैं. अगर स्वर्णकारों का कथन सही है फिर तो यह खुला काला बाजार है. कर विशेषज्ञ दिनेश प्रकाश कहते हैं कि सोने की तस्करी आज भी पूरी दुनिया में न सिर्फ व्यापारिक कलंक की तरह है बल्कि इंसानियत पर खतरा है. इसमें बड़ा दखल आतंकवादियों का है. कौन नहीं जानता कि दाउद कितना बड़ा सोने का तस्कर है और सोने की तस्करी में कितने बड़े पैमाने पर हवाला शामिल है. चौक सर्राफा कमेटी के अध्यक्ष सुरेन्द्र बाबू कारीगरों की जानकारी को निराधार बताते हैं. कहते हैं बिरहाना रोड में क्या हो रहा है हमें नहीं मालूम लेकिन चौक सर्राफा बाजार में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है. बिरहाना रोड के स्वर्ण व्यापारी व कमेटी अध्यक्ष ने इस संबंध में हेलो कानपुर से बात करना मुनासिब नहीं समझा. अपने प्रतिष्ठान में मौजूद रहते हुए कहला दिया-'साहब नहीं हैं.Ó

सोमवार, 23 नवंबर 2009

पुलिस की गीता
ये कोई महिला थाने में तैनात महिला की इन साइड स्टोरी नहीं है बल्कि भगवान श्रीकृष्ण की गीता से मिलता-जुलता अपने शहर की पुलिस का ज्ञान है. ओरिजनल गीता वेद व्यास जी ने कही और गणेश भगवान ने कागज पर उकेरी थी. जिसे मैं आपको बताना चाहता हूं ये कोहना थाने की पुलिस की गीता है. एक आदमी कोहना थाने वहां शुरू होता है पुलिस का गीता उवाच. बच्चा क्यों परेशान होते हो, किसी के बाप हमेशा तो बैठे नहीं रहते हैं जो पैदा हुआ वो मरेगा जरूर. जो चला गया उसके बारे में काहे का शोक. आत्मा तो अमर है उसको हमने अपनी जीडी में दर्ज कर हवालात में डाल दिया है. उसे हर कोई नहीं देख पायेगा, उसे देखने के लिए खाकी कपड़े पहनने होंगे और एक डंडा हाथ में थामना पड़ेगा. मरने वाले के बेटे को बाप के जाने का गम बिल्कुल नहीं है. उसे पुलिस के इस गीता ज्ञान ने दुख की परिभाषा से कहीं ऊपर उठा दिया है.मुझे यहां एक बात समझ नहीं आ रही है कि कोहना पुलिस को ये श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त कहां से हुआ? रात-दिन लुच्चे लफंगों की सोहबत और बातें हिमालय से भी ऊंची. मुझे ऐसा लगता है कि कोना थाने के बाजू भैरोघाट है वहीं आसपास के दीवारों में गीता ज्ञान लिखा हुआ है वहीं पढ़-पढ़ के ये सब इतने बड़े ज्ञानी हो गये हैं. यहां एक बात और मेरे खांचे में ठीक बैठ गई है कि शहर में चुने लुटेरे और अपराधी पुलिस के इसी ज्ञान के चलते मौज मार रहे हैं. पुरानी कहावत है कि सोना खोना और पाना दोनों अशुभ हैं. शहर की पुलिस सोना पाने वालों के अशुभ के इंतजार में है. वहीं परमात्मा सबको दण्ड देंगे. शहर पुलिस का यही ज्ञान अगर अपने प्रदेश सरकार के भेजे में बैठ जाये तो सालाना अरबों-खरबों रुपये बचाये जा सकते हैं. सरकार बेकार में पुलिस अदालत बचाये बैठी है. पुलिस जिन्हें अपनी गोली से मारकर इस संसार से मुक्ति दिलाती है उनके परिवार को पुलिस का शुक्र गुजार होना चाहिए कि कितनी आसानी से पुलिस ने आपके मृतक को भवसागर से निजात दिला दी.जरूरत है !एक राजनीति पार्टी में दो पदों की. बाप-बेटे अभी हाल ही में कुर्सी विहीन हुए हैं. कृपया सपा, कांग्रेस आवेदन न करें.1
शिक्षा भी

बिकने वाली

चीज है

देश की सुरक्षा क्या हथियारों के द्वारा, जवानों के द्वारा की जा सकती है. यह तो केवल एक पहलू है जो अधूरा है. विश्व में हथियारों का व्यापार सबसे बड़ा है उसके बाद खाद्य पदार्थोंका. क्यों कि इनके द्वारा ही विकसित देश अपने को सुरक्षित रख सकते हैं. हमारी सेना देश को सुरक्षित रख सकती है यदि उसका एक ठोस आधार है. वह आधार है खेती बाड़ी की सुरक्षा, शिक्षा की सुरक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा, शिक्षा की सुरक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा. इन तीन सुरक्षाओं के अभाव में अपने को सुरक्षित समझना मूर्खता है. खेती की सुरक्षा के लिए बीज, पानी, बिजली अच्छी मिट्टी और कीटनाशक चाहिए. इनके न मिलने से किसान हमेशा कमजोर रहेगा कर्जदार रहेगा, आत्म हत्या करेगा हमारे खेती के साधनों पर विदेशी कम्पनियों का कब्जा रहेगा. अब भी ३० प्रतिशत बीज विदेशी कम्पनियां बेचती हैं. हमको खेती को पूर्णत: अपने ही द्वारा सुरक्षित बनाना होगा. किसान का ज्ञान उसकी आर्थिक स्थिति उच्च स्तर की हो. शिक्षा में वर्तमान में १० प्रतिशत को उत्तम श्रेणी की शिक्षा मिल रही ९० प्रतिशत को महत्वहीन शिक्षा अतएव १० प्रतिशत शासन कर रहे हैं. ९० प्रतिशत शासित है. शिक्षा का औद्योगिकीकरण होने से वह भी एक बिकने वाली चीज हो गई है. कक्षा एक के विद्यार्थी से १० हजार रुपये लेबोरेट्री की फीस ली जाती है. इंजीनियरिंग कॉलेज चिकित्सा की संस्थाओं को मान्यता धन देकर मिल रही है. इन संस्थाओं से पास होने वाले विद्यार्थियों को नौकरी और काम नहीं मिलता. दो प्रकार की शिक्षा चल रही है. एक अमीरों की निजी कॉलेजों में दूसरी गरीबों की सरकारी कॉलेजों में जहां न तो भवन है न ही शिक्षक ६से १४ वर्ष के बच्चों का अनिवार्य शिक्षा देना इन्हीं सरकारी स्कूलों में होगा वे क्या ज्ञान देंगे. ९० प्रतिशत अधूरे ज्ञान जानने वाले नागरिक बनेंगे. शिक्षा तो एक ही प्रणाली से प्रत्येक अमीर और गरीब बच्चे को मिलना चाहिए यह है शिक्षा सुरक्षा. स्वास्थ्य के क्षेत्र में कितना भ्रष्टाचार है चिकित्सकों का मुख्य उद्देश्य धन कमाना अधिक से अधिक जांचें कराकर रोगी की जेब खाली कराना आम बात है. हमारे डॉक्टर विकसित देश चले जाते हैं आज भी अच्छी संस्थाएं ट्रस्ट द्वारा बिना लाभ के चलाई जा रही है. देश के खेती की शिक्षा की, स्वास्थ्य की सुरक्षा चाहिए तभी देश सुरक्षित रहेगा. यदि इनमें सुधार न हुआ तो अगले १०-१५ वर्ष में गृह युद्ध की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है. प्रत्येक नागरिक तभी सुरक्षा के लिए जान देने को तैयार रहेगा क्योंकि उसे खेती, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुरक्षा मिल रही है तभी तो वह इनके लिए लड़ रहा है या कहता है हमें देश ने क्या दिया.1

(लेखक पूर्व स्वास्थ्य निदेशक हैं)

चौथा कोना

हेलो कानपुर की

आभा और निखरे

सुबोध शर्मा, (मुंबई में युवा पत्रकार हैं)

मुझे याद है कि वर्ष २००५ में जब हेलो कानपुर का प्रकाशन शुरू हुआ था. उन दिनों शहर के अखबार युवा पीढ़ी की पसंद, सकारात्मक पत्रकारिता, बदलते परिवेश की तस्वीर और आवश्यक व्यावसायिक नजरिए की दलीलों से शहर की एक तरह से छद्म तस्वीर पेश कर रहे थे. जन जीवन से जुड़े मुद्दों की जगह लिजलिजी, चापलूसी से भरी ऐसी सुहावनी पत्रकारिता की बयार चल रही थी कि शहर स्वर्ग लग रहा था. सुबह अखबार खोलते ही उसके मत्थे पर युवाओं की पसंद अद्र्ध नग्न मल्लिका शेरावतों के दर्शन होते थे. सकारात्मक पत्रकारिता की बानगी में कुत्ते की तरह लडऩे वाले धनाड्य दम्पत्तियों पर 'आइडियल कपलÓ के राइटप पढऩे को मिल रहे थे. सरकारी, गैर सरकारी संगठनों की बताशा फोड़ प्रकाशित योजनाओं में ये शहर विकास रथ पर तूफानी गति से दौड़ता दिख रहा था.व्यावसायिकता के नाम पर विज्ञापनी लेखों का खबरीला प्रस्तुतीकरण चरम पर था. उस व$क्त लगा था कि शहर के साथ बड़ा धोखा हो रहा है. तभी हेलो कानपुर के तीखी भाषा में मीडिया को पुनर्भाषित किया, अपने ही (मीडिया) कृत्यों पर तल्ख प्रतिक्रिया दी, सीधे-सीधे सड़क पर पड़े कराह रहे आम आदमी के मुद्दों और सरोकारों को बेधड़क अंदाज में छाया. पहले तो इन 'बड़ोंÓ ने इसे उपेक्षा भाव से देखा, फिर नकारने लगे और जब हेलो पाठकों के स्नेह से यात्रा लगातार पड़ाव पार करने लगी तो हेलो कानपुर की भाषा, कथ्य और विषय को सभी ने धीरे-धीरे अपना लिया. इस बार कानपुर में प्रवास के दौरान मैंने देखा कि 'जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहाराÓ शहर के इन चारो अग्रणी अखबारों ने आज मुहिम के तहत शहर के आम सरोकारों को अपना विशेष मुद्दा बना रखा है. जागरण अगर यातायात को मुद्दा बनाये हुए है तो उजाला व हिन्दुस्तान अपराधों की बरसात पर आग बबूला है. राष्ट्रीय सहारा साहित्यिक, सांस्कृतिक मूल्यों के लिए शहर की वह सेवा कर रहा है जो पूर्व के समय में किसी भी अखबार में नहीं देखने को मिली. उन दिनों मैं कानपुर में ही काम करता था. बाद में तबादला हो गय, मुम्बई चला गया. उन दिनों हम लोगों के बीच हेलो कानपुर की भाषा, शैली, निष्पक्षता और निडरता की खूब चर्चा रहती थी. आज मैं कानपुर के अखबार की दुनिया में एक पाठक की हैसियत से हूं, बस वह भी मुंबई में बैठा हुआ. पिछले दिनों प्रमोद तिवारी जी से एक कवि सम्मेलन में मुलाकात हुई. मैं दर्शक दीर्घा में था. युवा नेता निर्मल तिवारी ने अपने सम्बोधन में 'हेलो कानपुरÓ को शहर का अकेला सच्चा अखबार न सिर्फ बताया बल्कि हेलो कानपुर के कई मुद्दों पर किये कार्योंकी याद दिलाई. मुझे भी याद आया अगर हेलो कानपुर न होता तो शायद 'लॉटरीÓ (जुआं) फिर से शहर को खा जाती. स्मैक के खिलाफ पुलिस का अभियान हेलो कानपुर का अभियान था. हर थाना क्षेत्र में कौन, कहां, कैसे और कितने में स्मैक बच रहा था उसका पूरा ब्यौरा छापना कानपुर शहर की पत्रकारिता की अब तक की सबसे बड़ी साहसिक पहल है. ईश्वर करे हेलो कानपुर की आभा और निखरे. मैं इन दिनों मुम्बई में हूं. मराठी मानुस का राग सुन रहा हूं. डर रहा था हेलो कानपुर का राग बेराग न हो गया हो लेकिन जब यहां आया तो प्रमोद जी ने बताया हेलो कानपुर अब शहर से जुड़े जिलों में भी पढ़ा जा रहा है. मुझे अच्छा लगा. हेलो कानपुर में अब देश व प्रदेश की भी चर्चा होगी. मैं मुंबई में हेलो कानपुर का नियमित पाठक हूं. आज भी बड़ा सुख मिलता है.1

खरीबात

सुगम यातायात के लिए

प्रशासन सैन्य प्रयास करें

प्रमोद तिवारी
स्थितियों के आगे जिस तरह आदमी समपर्ण कर देता है उसी तरह शहर के ट्रैफिक के आगे यातायात पुलिस ने हथियार डाल रखे हैं. गोविन्द नगर, चावला मार्केट चौराहे पर चार सिपाही चौराहे के चारों कोनो पर मौजूद भी हैं. हाथ हिलाकर यातायात को बारी-बारी से निकलने का संकेत भी दे रहे हैं. और ट्रैफिक चौराहे की चारों दिशाओं से आ भी रहा है और जा भी रहा है. कोई किसी की मान नहीं रहा. एक दूसरे पर आंखें तरेरते, मां-बहन सेंकते बोनट-मेडगाड को ठोंकते बढ़े जा रहे हैं...बढ़े जा रहे हैं. मानो ढेरों मेंढक एक छोटे से गड्ढे में आगे निकलने के लिए उछल रहे हों. फजलगंज, जरीब चौकी, विजय नगर, गोविन्द नगर, सीटीआई चौराहा पर सुबह और शाम हर रोज यही स्थिति बनती है. शहर के अखबारों में प्रत्येक दिन इस 'रोनी-सूरतÓ की सव्यख्या तस्वीरें भी छपती हैं लेकिन प्रशासन और पुलिस सिर्फ ड्यूटी बजाने भर की चहल-कदमी करने के बाद खाने, सोने और तनख्वाह लेने चला जाता है. वह असहाय है. कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है. बढ़ती आबादी, टूटी-फूटी सड़कें, भयंकर अतिक्रमण -ट्रैफिक सिपाहियों का टोटा, ट्रैफिक सिग्नलों की दुर्दशा, यातायात नियमों पर अविश्वास, विक्रमों की बेताली चाल, जानवरों की आवारगी, नो इंट्री की कमाई और भी न जाने क्या-क्या? एक, दो, चार वजहें हों तो कोई कुछ करे भी. इतनी वजहों से पैदा हुई समस्या केवल 'ड्यूटीÓ निभाने से थोड़े ही दूर होने वाली हैं. इसके लिए नागरिक प्रशासन को सैन्य प्रयास करना होगा. और आम नागरिकों को इसके लिए ठीक उसी तरह खामोश सहयोग के लिए तैयार होना होगा जैसा अशांतिकाल में शांति अव्यवस्था की बहाली के लिए कफ्र्यू का सहयोग किया जाता है. लगता है कि समस्या की गंभीरता को सामाजिक मनोविज्ञान कतई नहीं समझा जा रहा है. कानपुर शहर के आम आदमी का 'टॉलरेंसÓ ट्रैफिक अराजकता के कारण लगातार खंूखार होता जा रहा है. आते-जाते, बात-बात में खून-खराबा के पीछे शहर के गुण्डा ट्रैफिक का भी बड़ा हाथ है. कानपुर में आदमी जाम में, गड्ढे में, भीड़ में ऐसे कराह रहा है जैसे चुटहिल हड्डी का दर्द. घर से दफ्तर और दफ्तर से घर पहुंचते-पहुंचते पति-पत्नी को और साहब चपरासी को मुस्कराता देख आग बबूला हो जाता है. कहीं का गुस्सा कहीं फूटता है. राह की अराजकता देहरी के भीतर प्रवेश करती जा रही है चुपके से. इस तरह जानलेवा घरेलू हिंसा तक में खिझाऊ ट्रैफिक एक कारण बनता जा रहा है.नये डीआईजी निश्चित अपना माथा ठोंकते होंगे कि आखिर कानपुर के हिंसक मिजाज से कैसे निपटा जाये. जरा-जरा सी बातों में खून बहाना, जेल जाना अगर शहर की प्रवृत्ति बन रही है तो इसके लिए शहर का वातावरण कम जिम्मेदार नहीं है. वातावरण बनता है बेहतर नागरिक सुविधाओं से. बिजली है नहीं आदमी तमतमाया रहता है. पानी है नहीं आदमी चिडि़चिड़ाया करता है. सड़क पर जगह नहीं है आदमी गरियाया करता है. जब पूरे शहर की दशा कमोवेश एक सी होगी तो कब किसका पारा खतरे के निशान को पार कर जाये क्या पता..?सड़क दुर्घटनाओं में मौतें भी अपराध की ही श्रेणी में आती है. ध्यान से देखिये कि सड़क पर होने वाली मौत में आपको ट्रैफिक का गैर कानूनी इस्तेमाल अवश्य मिलेगा. और यह गैर कानूनी इस्तेमाल आज कानपुर शहर में सड़क पर चलने की मजबूरी बन गई है. मुझे नहीं लगता जिस तरह की लचर निगरानी में ट्रैफिक कंट्रोल की कोशिश की जा रही है इससे कोई सुधार होगा. शहर को चौराहे-चौराहे पर मार-पीट के लिए तैयार रहना चाहिए. यातायात का दूसरा नाम प्रवाह भी है. प्रवाह रुकेगा तो वह जो भी सामने होगा, उससे टकरायेगा. पानी का प्रवाह रोकते-रोकते पहाड़ों का रेत होना किसे नहीं पता..! इसलिए शहर कलक्टर, शहर कप्तान, मेयर साहब और सड़कों के मालिकान (पीडब्ल्यूडी, नगर निगम, केडीए) आपस में बैठकर शहर यातायात को हर ले जाने वाले राक्षस के वध के लिए 'वाराहÓ का रूप धारण करें. अब यह जरूरी हो गया है.1

कल्याण अकेले कारण नहीं
मौलाना आफाक, कन्नौज
कल्याण सिंह का निष्कासन और बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण की मांग से मुसलमान फिर से समाजवादी पार्टी की ओर लौट आयेगा यह एक मुगालता है. जो लोग यह समझ रहे हैं कि मुसलमान समाजवादी पार्टी से इसलिए दूर हुआ कि मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह से हाथ मिला लिया था यह पूरा सच नहीं है.मुसलमानों ने कोई एक झटके में सपा से किनारा नहीं किया है. उसका धीरे-धीरे मोह भंग हुआ. मन्दिर-मस्जिद के मसले पर मुलायम सिंह ने बीस बरस पहले तो स्टैण्ड लिया था वह सपा के पक्ष में मुस्लिम ध्रुवीकरण का कारण बना लेकिन मुसलमान मुलायम में केवल मस्जिद की राजनीति ही नहीं चाहता था. उसे चाहिए था एक अपना सियासी रहनुमा जो मुसलमानों के वकार को समझे. अन्य कौमी हुकोको की तरह मुसलमानों को भी उनका हक मिले. मुलायम सिंह यादव भी केवल मुसलमानों की जजबातों से खेलते रहे. 'यादवोंÓ की ज्यादतियां, परिवारवाद, कोरी बयानबाजी से मुसलमान खीझा. सियासी काबिलियत का उनके यहां कोई मयार नहीं दिखा. ठेका, पद मौका सब अपनों में ही बांट दिया. थानों-चौकी में उर्दू के 'बोर्डÓ लगवाने भर से मुसलमानों का भला थोड़े ही होता था. मुसलमान धीरे-धीरे समझ गया कि मियां भी दूसरे नेताओं से ज्यादा अलग नहीं है. मुसलमानों की नाराजगी अकेले 'कल्याणÓ के कारण नहीं थी. यह तो कुछ मुलायम विरोधियों का प्रोपोगंडा है. इसलिए अब कल्याण को निकाल फेंकने से मुसलमानों के खुश होने का सवाल नहीं उठता. मुसलमाना समझता है कि क्या चल रहा है. कांग्रेस के उभरने की बौखलाहट में ये कदम उठाये जा रहे हैं. बाकी अगर मुलायम की मुस्जिद बनवाने की मांग करते हैं तो मांग जायज ही कही जायेगी. लेकिन इस मांग में खुलूस नहीं दिखता राजनीतिक दांव नजर आता है.1


जया द्विवेदी
मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी से कल्याण सिंह को निकाल दिया है और एक बार फिर मुस्लिम जनता को अपनी तरफ आकर्षित करने कोशिश मे लग गये हैं. समाजवादी पार्टी के लिए मुस्लिम जनता का पहले जैसा सपोर्ट पाने के लिए मुलायम सिंह कह रहे है कि कांग्रेस 'बाबरी मस्जिदÓ फिर से बनाये लेकिन क्या मुलायम सिंह के इतना कहने भर से और कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी से निकालने भर से मुस्लिम जनता मुलायम सिंह की तरफ आकर्षित हो जायेगी? मोहम्मद रजा साहब, कानपुर के शहर काजी हैं देखिए, मुस्लिम जनता अब काफी जागरूक है. मुलायम सिंह अपनी पार्टी से चाहे तो कल्याण सिंह को हटायें अथवा बाबरी मस्जिद बनाने की कांग्रेस से अपील करें लेकिन अब उनकी बातों में मुस्लिम जनता आने वाली नहीं है. आज तक कोई भी पार्टी हो सभी मुस्लिम जनता को झूठे वादों तथा बातों का लॉलीपाप दिखाती रही है. लेकिन अब सिर्फ बातों से काम नहीं चलेगा. अब जबतक राजनैतिक पार्टियां हमारी बुनयादी जरूरतों को पूरा नहीं करेंगी तब तक मुस्लिम जनता किसी भी पार्टी के वोट बैंक को नहीं भरेगी. मुलायम सिंह ने कुछ समय पहले जो कार्य मिले उनसे मुस्लिम जनता उनसे काफी नाराज थी. लेकिन यदि अभी भी वो मुस्लिमों के हितों में कुछ करेंगे तो मुस्लिम जनता उनकी तरफ झुक सकती है अब सिर्फ बातों से काम नहीं चलेगा.मो.जावेद नय्यर, इकबाल लाइब्रेरी के सचिव हैं.उनका कहना है कि मेरे विचार से तो ऐसा नहीं लगता की मुलायम सिंह ने कोई ऐसी गलती की है जिसे माफ करने तक की बात आ जाये. उनका कल्याण सिंह को अपनी पार्टी से हटाना काबिल-ए-तारीफ है. लेकिन उनका बाबरी मस्जिद की मांग उठाना बिल्कुल गलत है. क्योंकि वहां न तो बाबरी मस्जिद बन पायेगी और न मन्दिर. यह एक विवादित मुद्दा है जिसे न ही टटोलें तो मुलायम सिंह के लिए बेहतर रहेगा. मुलायम सिंह एक ऐसा नेता है जिसने मुस्लिमों के हितों में कार्य किये और उन्हें कभी उपेक्षित नहीं किया. मुलायम सिंह की सरकार को ठेस पहुंचाने वाले रहे अमर सिंह. अगर मुलायम सरकार अमर सिंह की नीतियों पर न चलती तो मुस्लिम जनता मुलायम से कभी खफा नहीं होती. मुलायम सिंह यदि मुस्लिमों के हितो में कार्य करते हैं, अमर सिंह की नीतियों पर नहीं चलते तो मुस्लिम जनता उनके पास वापिस लौट भी सकती है. लेकिन बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठाना बिल्कुल बेबुनयादी बात है.
मो.असफाक अली, रेलवे के भूतपूर्व अभियंता हैं. उनका भी तकरीबन यही मानना है कि सपा चाहे तो कल्याण को निकाले अथवा वापिस फिर से बुला ले या फिर वो अपने ही हाथों से पूरी बाबरी मस्जिद बनाने का दावा करे लेकिन अब पढ़ी-लिखी मुस्लिम जनता उनकी बातों में आने वाली नहीं है. अब सभी उनका खेल समझ चुके हंै. उस समय उन्हें मुस्लिम जनता की याद नहीं आयी थी जब उन्होंने पिछड़ी जाति का वोट बैंक बढ़ाने के लिए कल्याण सिंह को अपनी पार्टी में शमिल किया था तब तो याद नहीं आई थी मुलायम को मुस्लिम जनता की. देखिये ये सब राजनैतिक बातें हैं, वो कुछ भी कहें अब मुस्लिम जनता उनके बहकावे में आने वाली नहीं है. अध्यापक मो.रिहान कहते है कि मुलायम सिंह अब कुछ भी कहे उनके कहने का अब कोई असर मुस्लिम जनता पर नहीं पड़ेगा. उन्होंने जो कार्य किया उसका परिणाम भी भुगत लिया है लेकिन अब उन्हें वापिस गद्दी चाहिए लेकिन अब उन्हें कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा. इस कारण उन्होंने कल्याण सिंह को अपनी पार्टी से निकाल दिया और बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कर रहे हैं.

शनिवार, 21 नवंबर 2009

खरी बात

फिर आग की कोशिश

प्रमोद तिवारी

मुलायम सिंह यादव कह रहे हैं कांग्रेस बाबरी मस्जिद को जिंदा करें. कल्याण सिंह कह रहे हैं अयोध्या में राम का भव्य मन्दिर उनके जीवन की अंतिम इच्छा है.इन जो ताजा इच्छाओं का निहितार्थ शायद आजम खां कहीं बेहतर समझ रहे हैं. जिस दिन मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह का कथित निष्कासन किया उसके तुरंत बाद उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह यादव के अचानक बदले रुख पर यकीन करना मुश्किल है. इतनी तेजी से सीन बदल रहे हैं एक के बाद एक मानो कोई एपिसोड चल रहा हो. जिसकी कहानी, पटकथा और संवाद सब पहले से ही तैयार कर लिए गये हों. अगले दिन कल्याण सिंह ने भी ताल ठोंक दी. कहा सपा में जाना जीवन की सबसे बड़ी भूल थी. अब एक ही इच्छा शेष है कि मेरे जीते जी अयोध्या में राम का भव्य मन्दिर बन जाए. फिरशायद २४ या ४८ घण्टे और बीते होंगे कि मुलायम ने मांग कर दी कांग्रेस बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण कराये. इस तरह दोनों दुश्मन दोस्तों ने तय कर लिया है कि प्रदेश को फिर से मन्दिर-मस्जिद की राजनीति में झोंका जाये. क्योंकि साम्प्रदायिक राजनीति के भाड़ के ये ही दो बड़े भड़भूजे हैं. एक को मस्जिद की बरबादी ने हीरो बनाया दूसरे को मन्दिर की बरबादी ने हीरो बनाया. इन दोनों ही हीरों ने प्रदेश को ९० के दशक में सिवाय घण्टा, घडिय़ाल, यज्ञ-अजान और खून-खराबा के अलावा कुछ नहीं दिया. और अब जबकि प्रदेश धर्म और जाति की जकडऩ से बाहर आकर विकास की राजनीति का प्रतिस्पर्धा चाहता है तो मुलायम-कल्याण इसे फिर से साम्प्रदायिक आग में झोंक देना चाहते हैं. हालांकि प्रदेश अभी जाति की राजनीतिक गर्त से बाहर नहीं आया है. लेकिन इन दोनों नेताओं का यह ताजा पैंतरा बासी कढ़ी में उबाल की उम्मीद सरीखा है. न हिन्दुओं को इसमें कल्याण दिख रहा है और न ही मुसलमानों को इसमें कोई मुलामियत समझ में आ रही है. बल्कि ये दोनों नेता मन्दिर-मस्जिद का राग अलाप कर अपनी बची-कुची राजनीतिक शाख के लिए कालिदास और बने जा रहे हैं.

बुधवार, 18 नवंबर 2009

हिन्दी को राष्ट्र सिंहासन दो

प्रमोद तिवारी

महाराष्ट्र विधान सभा में राज ठाकरे के जिन चार गुण्डा विधायकों ने हिन्दी बोलने पर अबु आजमी को तमाचा मारा अगर उन्हें महाराष्ट्र विधान सभा के भीतर ही उल्टा लटका दिया जाये तब भी यह अपराध के मुकाबले न के बराबर सजा होगी. लेकिन इस देश के किसी भी राजनीतिक दल को यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वह हिन्दी का अपमान करने वाले इन चार गुण्डा विधायकों को तो छोडि़ए किसी टपोरी तक को सजा देने की बात कह सके. इसमें क्या शक कि पूरा देश राज ठाकरे के मनसे की हिन्दी विरोधी हिंसात्मक हरकत से तिलमिलाया हुआ है. राज ठाकरे और उनके मूर्ख विधायक अगर मुम्बई के बाहर मिल जाएं तो शायद उन्हें अपने किये पर पछतावा करने का भी वक्त न मिले. इतना गुस्सा है आम भारतियों में, जिनमें मराठी भी शामिल हैं. सिर्फ नागरिकों में ही नहीं राजनीतिकों में भी जबरदस्त गुस्सा दिखाई दे रहा है. मामला कुछ है ही ऐसा. कोई कह रहा है राज ठाकरे और उनके विधायकों को गिरफ्तार कर जेल में डाल देना चाहिए. कोई मनसे की मान्यता समाप्त करने की बात कर रहा है तो कोई ईंट का जवाब पत्थर से देने का पक्षधर है. कानपुर में पिछले सप्ताह हिन्दी प्रेमियों ने सड़क पर निकलकर अपने गुस्से का इजहार किया. नारे लगाये, पुतले फूंके, धरना-प्रदर्शन किया और फिर कुछ न कर पाने की तिलमिलाहट लेकर धीरे-धीरे अपने कामों में लग गये. आखिर आम नागरिक और कर ही क्या सकता है. बाकी जो राजनीतिक लोग हैं वे सब के सब नौटंकी बाज हैं. हिन्दी अगर आज राष्ट्र भाषा होती तो क्या महाराष्ट्र की घटना जन्म लेती. किसने नहीं बनने दिया हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा? इन्हीं राजनीतिकों ने. माना कि आजादी के बाद भाषाई विविधता एक प्रश्न था लेकिन इसके समाधान की दिशा में आज दिन तक किस नेता या किस पार्टी ने क्या प्रयास किया. किसी ने नहीं. आज अगर महाराष्ट्र विधान सभा की घटना को सिर्फ एक घटना मान कर जवाबी या संवैधानिक कार्रवाई की जाती है तो यह समस्या का भड़काऊ समाधान होगा. अगर वाकई महाराष्ट्र विधान सभा की घटना का कोई सटीक जवाब है तो बस इतना सा कि सभी राजनीतिक दल एक साथ एक मंच पर आयें और संविधान की मंशा के अनुसार हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित करें. अगर वाकई हिन्दी ही वह भाषा है जिससे यह देश एक सूत्र में बंध सकता है. तो फिर डर किस बात का. एक तरह से मनसे विधायकों ने देश की राजनीति को एक अधूरे पड़े बेहद जरूरी काम को पूरा करने का मौका दिया है. आखिर आजादी के आन्दोलन की भाषा हिन्दी ही तो थी. यह बात कौन नहीं समझेगा. लेकिन इसे समझाने वही निकलेगा जिसके पास दृण इच्छा शक्ति हो और समग्र राष्ट्र चिंतन. और अगर यह संभव नहीं है तो देश के राजनीतिक हिन्दी प्रेमी होने का स्वांग छोड़ें. कांग्रेस, भाजपा, सपा, सभी राज ठाकरे और उनके संगठन पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हंै. घटना की निन्दा कर रहे हैं. है न अजीब बात.. मांग करने वाले वही हैं, निन्दा करने वाले वही हैं जिन्हें खुद मांग पूरी करनी है, खुद ही कार्रवाई करनी है.

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

४४ साल पुराना थप्पड़


हिन्दी को कौन नहीं अपमानित कर रहा. आज की ताजा पीढ़ी, उनके मां-बाप, ये नेता लोग, ये अमीर, ये गरीब, कौन है आज हिन्दी का तिलकधारी. मराठी तो फिर भी भारत की ही एक भाषा है. मगर हम तो अंग्रेजी पर लट्टू हैं. सही बात तो यह है कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही ढपोरशंखी है. हम कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं , सोचते कुछ हैं, जानते कुछ हैं और मानते कुछ हैं तभी तो महाराष्ट्र विधान सभा के तमाचे की असली गूंज को न हम सुन पा रहे हैं न समझ पा रहे हैं.
हिन्दी के मुंह पर पहला तमाचा इस देश की राजनीति ने १९६५ में ही जड़ दिया था. ९ नवम्बर २ हजार ९ को महाराष्ट्र विधान सभा में अबू आजमी के मुंह पर पडऩे वाला तमाचा तो उसकी अनुगूंज है. देश के आजाद होने के बाद से आज दिन तक हिन्दी तो रोज ही 'तमचियाईÓ जा रही है. राज ठाकरे के चार मराठी गुण्डे जब अबू आजमी को थपडिय़ाकर देश के हिन्दी मीडिया के सामने कह रहे थे कि हिन्दी राष्ट्र भाषा नहीं है...हिन्दी राज भाषा नहीं है..तो दोस्तों, वे गलत नहीं कर रहे थे. यह वास्तव में हिन्दी भारत की न तो राजभाषा है और न ही राष्ट्र भाषा और अगर हमारे दिल-दिमाग में 'हिन्दीÓ कहीं रची बसी है तो सिर्फ इसलिए कि वह इस देश के बहुसंख्यों की मात्र भाषा है व्यवहार की भाषा है. चूंकि हिन्दी के जरिए जीवन चलाने वालों की संख्या देश में सबसे ज्यादा है इसलिए वह लगती है देश की राष्ट्र भाषा लेकिन है नहीं. क्योंकि संविधान ने उसे आज दिन तक अपनाया नहीं है.जब देश आजाद हुआ था तो संविधान में हिन्दी को राष्ट्र की राज भाषा घोषित किया गया था. चूंकि भारत विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाला देश है इसलिए एक व्यवस्था दी गई थी कि देश के जो क्षेत्र (राज्य) अहिन्दी भाषी हैं वे पूरे देश की भाषाई मुख्य धारा 'हिन्दीÓ में शामिल होने के लिए तैयारी करें और इसके लिए १५ वर्ष का समय निश्चित किया गया. इस तरह १९५० में लागू संविधान की मंशा के अनुसार हिन्दी को १९६५ में इस देश की राज भाषा और राष्ट्र भाषा दोनों का ही दर्जा मिल जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं..! मित्रों! आपको बताएं कि तुर्की की आजादी के बाद वहां के दृढ़ इच्छा शक्ति वाले 'सत्ता नायकÓ कमाल पाशा ने २४ घण्टे के भीतर अपनी देसी भाषा तुर्की को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठा दिया था. वहां भी भारत की तरह ही कई विषमताएं व विसंगतियां थीं. वहां भी तरह-तरह के सवाल उठे थे. तुर्की के राष्ट्र चिंतकों का मानना था कि एक भाषा तुर्की को पूरे देश का संवाद माध्यम बनाने में कई साल लगेंगे. जब यह सवाल 'पाशाÓ के सामने आया तो उनका जवाब था कि आप लोग समझ लें कि जो समय आप लोगों को चाहिए वह इसी वक्त पूरा हो चुका है. अब जो भी काम होगा 'तुर्कीÓ में ही होगा. १९१९ में २४ घण्टे लगे एक देश को अपनी देसी भाषा को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठाने में. और यहां सन् १९४७ से दो हजार ९ तक की ६२ साल की यात्रा हो गई है हिन्दी न तो राज भाषा बन पाई है और न ही राष्ट्र भाषा. ऊपर से हिन्दी बोलने के गुनाह में अबू आजमी के मुंह पर तमाचा ऊपर से पड़ गया. यह तमाचा किसी और ने नहीं संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने ही मारा. राज ठाकरे के गुण्डों की इतनी हिम्मत सिर्फ इसलिए पड़ गई कि सन् १९६५ में देश की संसद हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा घोषित करने का साहस नहीं दिखा पाई थी. उल्टा इस प्रश्न पर संविधान में एक संशोधन कर दिया गया कि जब तक देश का प्रत्येक प्रांत हिन्दी को राज भाषा और राष्ट्र भाषा मानने के लिए तैयार नहीं होगा तब तक हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित नहीं किया जा सकता. वर्ष १९६५ में देश की आजादी कुल ६० करोड़ के आस-पास थी और मिजोरम की आबादी तब केवल पांच लाख के आस-पास रही होगी. अब अगर मिजोरम नहीं चाहता कि देश की राज भाषा या राष्ट्र भाषा हिन्दी बने. तो समझो ६० करोड़ पर ५ लाख की आपत्ति अंतिम है. तब के उदार राष्ट्रहित चिंतकों ने दलील दी थी कि हम किसी पर जबरिया हिन्दी नहीं थोपेंगे...! यह क्या है..यह कौन सी राजनीतिक शक्ति है जो अपने सरकारी काम काज के लिए, व्यवहार के लिए देश को एक भाषा नहीं दे सकती. हिन्दी तो अनाथ है. यह तो केवल इसलिए जिंदा है कि इसे बोलने वाले और व्यवहार में लाने वाले लोग अभी इस देश में जिंदा हैं. वरना क्या है हिन्दी के पास 'हिन्दुस्तान मेंÓ न सरकारी संरक्षण, न संवैधानिक अधिकार, रही बात जन व्यवहार की तो आपने देख ही लिया कि एक विधायक को भारत के संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने में हिन्दी का प्रयोग करने पर चार मराठी विधायकों ने थप्पड़ों से मारा. दरअसल यह थप्पड़ तो देश की पूरी राजनीति ने उस दिन ही बो दिया था जिस दिन हिन्दी को राष्ट्र व राज भाषा बनाने के मुहूर्त में एक संशोधन के जरिए अहिंदी भाषियों की कृपा की आस में अनिश्चित काल के लिए लावारिस छोड़ दिया गया था.

बुधवार, 11 नवंबर 2009

पालने में बुढ़ा गये बच्चे

बाल दिवस पर विशेष


जया द्विवेदी

सुविख्यात कवि पं०शिव ओम अम्बर का एक शेर है-'जन्म से बोझ पा गये बच्चे, पालने में बुढ़ा गये बच्चेÓ अभी १४ नवम्बर को जब जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिवस मनाया जायेगा तो पूरे देश में एक दिवसीय बाल प्रेम का जश्नी-तूफान उठ खड़ा होगा. यह एक सिलसिला है सिर्फ. जैसे हिन्दी दिवस पर हिन्दी प्रेम फूटता है. ठीक वैसे ही यह बाल दिवस भी है. तभी तो हमारे देश में बाल श्रम के निषेध के लिए कानून है. सरकार नहीं चाहती कि बचपन बोझ ढोये जन्म से ही. इसके लिए उसने तरह-तरह के कार्यक्रम चला रखे हैं. श्रम विभाग समय-समय पर कानूनी कार्रवाई करता है. सरकार की मंशा होती है कि बच्चे पढऩे-लिखने की उम्र में पढ़े-लिखे अच्छे नागरिक बन कर मुख्य धारा में आएं. लेकिन ऐसा हो कहां पाता है. जमीनी हमीकत इसके विपरीत है.बाल दिवस के इस शुभ अवसर पर हम आपका ध्यान कुछ ऐसे बाल श्रमिकों की तरफ ले जा रहे हैं जिन्होंने अपना बचपन नहीं देखा.रवि-कमाये नहीं तो खायें क्या?रवि की उम्र अभी मात्र १२ साल की है. और वह एक छोले-भटूरे की एक दुकान में सुबह ७ बजे से लेकर रात ८ बजे तक प्लेटें धोता है. बदले में मालिक एक प्लेट छोला-भटूरा और दिन का बीस रुपया देता है. इन २० रुपये से रवि अपने घर के लिये एक किलो आटा खरीद कर लेकर जाता है. जिससे उसकी मां रात के लिए और अगले दिन सुबह के लिए रोटी बनाती है. रवि जब मात्र आठ साल का था तब उसके पिता की मृत्यु हो गई. जब रवि के पिता की मृत्यु हुई उस समय रवि के दो और छोटे भाई थे जिसका पालन-पोषण करना था. रवि की मां गंगाजली स्वभाव से बेहद सीधी होने के कारण कोई काम नहीं कर सकी. इस कारण गंगाजली ने मजबूरन नन्हें रवि के हाथों से किताबें छीनकर काम का रास्ता दिखा दिया. तब से लेकर आज तक रवि सुबह से लेकर रात तक काम ही कर रहा है. जब वि से हेलो कानपुर संवाददाता ने पूछा कि रवि क्या तुम पढऩा चाहते हो? तो नन्हें से रवि के आंखों में आंसू भर गये. उसने जो जवाब दिया वो दिल दहला देने वाला था. रवि ने कहा जब मेरे पापा थे तो मैं पढऩे जाता था. मैं पढऩे में भी होशियार था लेकिन पापा के मरने के बाद मेरा काम करना मजबूरी बन गया. अभी भी मैं पढऩा चाहता हूं लेकिन क्या करूं. २० रुपये सेआने वाले आटे से भर पेट रोटी तो मिलती नहीं, पढ़ाई कहां से करूंगा. और अगर मैं दलिया खाने के लालच में पढऩे लगा तो मेरा परिवार क्या खायेगा. रवि कहता है मैं पढऩा चाहता हूं, बच्चों के साथ खेलना चाहता हूं लेकिन ऐसा नहीं कर सकता, यह मेरी मजबूरी है.इमरान-काम करना मजबूरी हैइमरान की दास्ता तो शायद रवि से भी दुख भरी है. इमरान का एक हंसता-खेलता परिवार था. जिसमें वो उसकी मां छोटी बिट्टी, पिता, बब्लू तथा दो भाई और दो बहनो समेत इमरान रहता था. लेकिन अब से छ: महीने पहले सब कुछ बदल गया. इमरान के सारे सपने चकनाचूर हो गये. इमरान के पिता ड्राइवर थे. अब से छ: महीने पहले एक रोड एक्सीडेंट में इमरान ने अपने पिता को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया. इमरान के पिता अपने पीछे एक विकलांग पत्नी तथा पांच छोटे-छोटे बच्चे छोड़ गये. इमरान की सबसे बड़ी बहन १२ साल की है और इमरान अभी मात्र आठ साल का है. इसके बाद इमरान के छ: साल, ४ साल तथा छ: महीने के दो भाई तथा एक बहन और हैं. इमरान तथा इमरान की बड़ी बहन अफसाना दोनों मिलकर काम करते हैं तब जाकर बहुत मुश्किल से घर के दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है. इमरान की बड़ी बहन अफसाना एक घर में चौका-बर्तन करती है और इमरान एक ड्राइक्लीनर की दुकान में काम करता है. इमरान सुबह ९ बजे दुकान पर जाता है और दुकान की सफाई करता है. सभी के घर जा-जाकर ड्राइक्लीन के लिए कपड़े लाता है. वो पैदल ही सभी के घर जाता है और जब कपड़े ड्राईक्लीन हो जाते हैं तो उसे फिर से घर-घर में देने जाता है. इमरान की अपाहिज मां घर पर पड़ी अपनी लाचारी पर रोती रहती है. इमरान का काम करना उसकी मजबूरी है. इमरान को कमर तोड़ मेहनत के बाद मात्र आठ सौ रुपये प्रति माह और उसकी बहन अफसाना को पांच सौ रुपये प्रति माह मिलते हैं. नीरज-मैं पैसा कमाना चाहता हूं१३ साल के नीरज ने अपने जीवन में इतने आर्थिक संकट देखे कि वो पढ़ाई-लिखाई बंद करके काम की तलाश में कानपुर शहर में निकल पड़ा. नीरज ने आज तक अपने पिता की कमाई नहीं देखी. क्योंकि रिक्शा चलाने वाले नीरज के पिता रमेश जितना कमाते हैं उतना जुए और शराब में गंवा देते हैं. नीरज के पिता पैसे देने के बजाए मां द्वारा बचाये गये चंद पैसे भी मार-पीट करके ले जाते हैं. इस कारण नीरज को लगा अगर वो पढ़ाई-लिखाई में वक्त बर्बाद करेगा तो पैसा नहीं कमा पायेगा और अगर वो पैसा नहीं कमायेगा तो घर में उसकी मां और तीन छोटे-छोटे भाई-बहन भूखे मर जायेंगे. इस कारण नीरज ने फजलगंज स्थित रिम फैक्ट्री में नौकरी कर ली. जहां वो बेल्डिंग तथा रिम पॉलिशिंग का काम करता है. इसके बदले में उसे एक हजार रुपये मिलते हैं. इन पैसों से नीरज अपने घर का खर्चा चलाता है. नीरज सुबह आठ बजे फैक्ट्री चला जाता है और रात में १० बजे अपने घर वापस आता है. नीरज से जब पूछा गया कि क्या वो पढऩा चाहता है तो नीरज ने साफ शब्दों में कहा कि पढ़ाई खाने को नहीं देती बल्कि पैसा खाने को देता है और मैं पैसा कमाना चाहता हूं. सिर्फ पैसा कमाना चाहता हूं. नीरज जिस काम को फैक्ट्री में करता है वो काम सच में बहुत खतरनाक है. बेल्डिंग तथा पॉलिशिंग के दौरान आंखों में चिंगारी तथा हाथ जलने का डर रहता है लेकिन उसके बाद भी नीरज इस काम को करता है क्योंकि उसे अपने परिवार का पेट जो भरना है.मुन्ना-मुझे दूध नहीं मिलता हैदूध पीने को तरसता मुन्ना अभी मात्र छ: साल का है लेकिन उसे बस्ते और दूध के ग्लास की जगह, बिस्कुट फैक्ट्री की राह दिखा दी गई है. मुन्ना के ३ भाई-बहन और हैं. मुन्ना के पिता आज से एक साल पहले कहीं चले गये. तबसे लेकर आज तक वो घर वापस नहीं आये. तब से मुन्ना दादा नगर की एक बिस्कुट फैक्ट्री में काम कर रहा है. घर में उसकी मां भी घर में छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर एक बंगले का झाड़ू-पोछा करने जाती है. मुन्ना बताता है कि १२ घण्टे वहां काम करते-करते मेरे घुटनों में दर्द होने लगता है. घर जाता हूं तो मां से दूध मांगता हूं लेकिन मेरे छोटे भाई-बहन दूध मेरे जाने के पहले ही पी जाते हैं. इस कारण मुझे दूध नहीं मिल पाता है. मैं सुबह ८ बजे फैक्ट्री जाता हूं और रात को ८ बजे फैक्ट्री से निकलता हूं. तब जा कर ९ बजे घर आ पाता हूं.अंकुर-मैं बेटर का काम करता हूं८ साल का अंकुर बेटर है. एक दो बार होटल में प्लेट टूटने के कारण अंकुर ने अपने मालिक से मार भी खाई लेकिन मार खाने से ज्यादा जरूरी उसका पैसा कमाना है. अंकुर की मां लीला अपने शराबी पति से तंग आकर अपने पड़ोसी के साथ कहीं चली गई. दिन-रात शराब के नशे में धुत्त पिता का कोई अता-पता नहीं रहता है. अंकुर की दो छोटी बहने हैं. जिन्हें भूख लगती है अपनी और अपनी दो बहनों की भूख मिटाने के कारण अंकुर होटल में बेटर का काम करता है. अंकुर को किसी का कोई सहारा नहीं अब वो स्वयं अपना और अपनी दे छोटी बहनों का सहारा बना हुआ है. वो चाहता है कि मैं अपने माता-पिता के कारण नहीं पढ़ पाया तो कम से कम अपनी बहनों को तो पढ़ा लूं. और खूब पढ़ायेंगे.1

बुधवार, 4 नवंबर 2009

धोखे के बाद विश्वास
विशेष संवाददाता
८४ दंगे के बाद स्थितियां सामान्य होते ही तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने दंगा पीडि़तों को हुये नुकसान के लिये मंडलायुक्त और शहर के जिलाधिकारी को निर्देशित किया था. उस समय ११५ करोड़ रुपये के नुकसान का आंकलन किया गया था. जान और माल के नुकसान संबंधी कुल २९८० मुकदमें विभिन्न थानों में कायम हुये थे. मुख्यमंत्री श्री तिवारी ने उस दौरान ८६ करोड़ रुपया मुआवजे के तौर पर देने की हामी भरी थी और दंगा पीडि़तों को आश्वस्त किया था कि किसी से भी करों की वसूली नहीं की जायेगी. लेकिन मुआवजे की कौन कहे करों की वसूली भी नहीं रुकी, दंगे की मार से छलनी हो चुका सिख सरकारी के देयों के भुगतान में भी कई बार छलनी हुआ और कई बार जलालत भी झेली. इसके बाद २८८७ दंगापीडि़तों ने शपथपत्र के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की जिस पर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से हर दंगा पीडि़त के दावे की जांच कर भुगतान करने को कहा. पीडि़तों ने क्लेम दाखिल कर मुआवजे की रसीदें भी ली. सरकार ने अपने अमले को घर-घर भेज कर जांच कराई और प्रमाण एकत्र कराये और इसके बाद फिर चुप्पी साध कर बैठ गई. इसके बाद एस.के मुखर्जी आयोग की सिफारिशों के अनुरूप कुछ दंगा पीडि़तों को ८७ से ८९ तक नाममात्र का अनुदान दिया गया. इसके बाद राज्य सरकार ने दंगा पीडि़तों को २०० वर्गमीटर के प्लाट, विधवाओं को पेंशन व आश्रितों को नौकरीदेने का आश्वासन दिया, 'तीन-तीन शासनादेश जारी किये लेकिन उसका लाभ कुछ चलते-फिरते नेतानुमा सिख ही उठा पाये. धर्मवीर सिंह छतवाल उर्फ गिल्लू बाबू का कहना है कि २०० वर्गमीटर की जगह ८५ व ९० गज के ही प्लाट दिये गये. तमाम पीडि़तों ने के.डी.ए. में १०-१० हजार रुपये जमा करके प्लाट मांगे थे लेकिन उनमें भी के.डी.ए. ने केवल उन्हें ही प्लाट दिये जिनका जुगाड़ और जेब दुरस्त थी, आज भी तमाम लोगों के के.डी.ए. में पैसे जमा हैं. ८४ रायट विक्टिम एसोसिएशन के अध्यक्ष मंजीत सिंह आनंद का कहना है कि राज्य सरकार ने दंगा पीडि़तों के कुछ नहीं किया. सन् २००६ में जब सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई थी उसके बाद जो भी हुआ है आधा-अधूरा है. पूर्व एमएलसी कुलदीप सिंह कहते हैं कि २५ वर्षोंका मेरा अनुभव है कि केन्द्र सरकार ने फिर भी सिखों के प्रति ईमानदारी से सहानुभूति दिखाने की कोशिश की लेकिन हर बार राज्य सरकार ने रोड़े लगाये. अभी ताजा स्थिति ही देख लें. केन्द्र में जब मन मोहन सरकार आई तो उसने घोषणा की कि कानपुर के Ó८४ के दंगा पीडि़तों को राज्य सरकार ने जो भी मुआवजा दिया है वह उसका स्टीमेट बनाकर भेजें. केन्द्र सरकार उसका दस गुणा राज्य सरकार को देगी. राज्य सरकार अपनी दी राशि काटकर शेष दंगा पीडि़तों को बांट दे. इसके लिए केन्द्र का २ हजार ५ का जीओ भी है. राज्य सरकार को केवल अपना 'स्टीमेटÓ बनाकर भेजना है. लेकिन काम भी आज तक प्रदेश सरकार नहीं कर पाई. हालांकि खानापूरी के लिए कहते हैं काम हो गया. कुलदीप सिंह बताते हैं कि जब वोरा जी राज्यपाल थे तो 'प्रॉपर्टी लॉसÓ के मुआवजे के लिए तय हुआ था कि अगर किसी का नुकसान ५० हजार रुपये से कम है तब भी उसे ५० हजार मिलेंगे. अगर ५० हजार से ज्यादा है तो चाहें जितना ज्यादा हो उसे एक लाख रुपये मिलेंगे. नुकसान का ऑकलन थाने में दर्ज 'एफ आई आरÓ के अनुसार होगा. इस तरह के प्रॉपर्टी केन्द्र की १० गुणा की घोषणा के अनुसार लास के दो स्लैब ५ लाख और १० लाख बनते हैं. लेकिन हुआ क्या...? हुआ यह कि प्रदेश सरकार ने एक मुखर्जी कमेटी बनाकर पहले दो-दो, चार-चार हजार रुपये 'भवन क्षतिÓ में बांट दिये और अब उसी का दस गुणा करके राशि दी जा रही है.एक नहीं अनेकों अड़ंगे बाजी का इतिहास है राज्य सरकार का. युवा सिखों का वर्तमान टेंपरामेंट अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य सुखविंदर सिंह लाडी की इस बात से भली भांति समझा जा सकता है कि पैकेज-वैकेज की रट लगाने वाले दंगाइयों को सजा के नाम पर चुप्पी क्यों साध जाते हैं. पीडि़तों के लिए असली मरहम रुपये नहीं दोषियों को सजा है.कुल मिलाकर वर्तमान परिदृश्य में कानपुर का सिख पूरी तरह से मस्त है. वह पुराने काले अध्याय के पृष्ठ नहीं पलटना चाहता. उसे अपने बूते स्वर्णिम वर्तमान और भरोसेमंद भविष्य बनाना है जिसके लिए उसे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं. सिवाय गुरु महाराज की कृपा के.

25 वर्ष की '84

प्रमोद तिवारी

कानपुर के सिखों को हम समय के आइने में दो तरह से देख सकते हैं. एक देश विभाजन से पहले और बाद के सिख, दूसरे सन् Ó८४ से पहले और बाद के सिख. सन् Ó४७ के विभाजन के बाद जो हिन्दू और सिख कानपुर आये वे न सिर्फ यहां बसे बल्कि इस बस्ती की आर्थिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक शक्ति में सिखों को विशिष्ट सम्मान का दर्जा दिलाया. यह दर्जा किसी ने उन्हें खैरात में नहीं दिया. कड़ी मेहनत, कड़ा अनुशासन और निस्वार्थ सेवा भाव ने उन्हें यह सामाजिक ओहदा दिलाया. बताने वाले बताते हैं कि अविभाज्य हिन्दुस्तान (पंजाब) में भी सिखों का 'रसूकÓ किसी तरह कम नहीं था. लेकिन कुछ शैतानी ताकतों ने सन् Ó४७ में भी और कुछ शैतानी ताकतों ने Ó८४ में भी साम्प्रदायिक सौहार्द में ऐसा जहर घोला कि पूरी की पूरी कौम उजड़े बंजारों सरीखी हो गई. लेकिन इसे कानपुर का कड़ा पानी और सिख कौम की फितरत ही कही जायेगी कि जब भी कभी किसी ने इन्हें उजाडऩे की कोशिश की या साजिश की तो कड़ा, कृपाण, कच्छा, केश और कंघी धारी कनपुरिए सिख कई गुना ताकत से उभरे और शहर की मुख्य धारा बनकर नगरीय सौहार्द की ताकत बने. यह कोरी शब्दों की लफ्फाजी नहीं है. समय-समय पर तरह-तरह के साम्प्रदायिक और जातीय तनाव के क्षण शहर में आते-जाते रहते हैं लेकिन एक अकेला Ó८४ है, उसके बाद से आज तक शहर के साम्प्रदायिक सौहार्द में 'सिखोंÓ की ओर से अमृत ही छलका है, विष नहीं. पलट कर देख लो पुलिस और प्रशासन का रिकार्ड बुक.
कहीं भी कोई घटना दर्ज नहीं है जिसमें सिख साम्प्रदायिक तनाव का कारण बने हों. आखिर यह साल-दो-साल का रिकार्ड नहीं है बल्कि जख्मों से भरी Ó८४ से आज तक २५ बरस की कहानी है. २५ बरस की हो गई Ó८४. इस चौरासी के २५ बरसों ने कानपुर के सिखों को क्या दिया? चाहे प्रशासन हो, शासन हो, प्रदेश सरकार हो या केन्द्र सरकार. सभी ने मरहम दिए लेकिन आधे-अधूरे जख्म को हरा करने वाले बाकी बचे नेता लोग उन्होंने झूठ और फरेब से भले आश्वासनों से पीडि़तों को बरगलाया. वरना बात क्या है कि २५ वर्ष में हर तरह की सरकारें आईं, केन्द्र में भी और राज्य में भी लेकिन दंगा, पीडि़त सिखों के मुआवजे और पुनर्वास का अध्याय पूरा नहीं हो सका.नेताओं और सरकारों पर से सिखों का विश्वास बहुत पहले ही हट गया था. तभी तो उन्होंने मुआवजे और पुनर्वास पैकेज के झुनझुने को आगे के जीवन का अकेला जरिया नहीं माना. कड़ी मेहनत, अनुशासन और कर्म प्रधान जीवन शैली पर विश्वास किया और नतीजा सामने है. शहर में जिन सिख परिवारों को जलाकर राख कर दिया था वे सभी पुनर्निर्माण के शिखर पर हैं और पहले से कहीं ज्यादा सरसब्ज हैं. वैसे २५ बरस की Ó८४ की भरी जवानी की दशा यह है कि आज भी आधे के आस-पास Ó८४ दंगा पीडि़त सिख 'राहत लाभÓ से वंचित हैं.



खाली थाली वाली दिवाली


प्रमोद तिवारी

पूड़ी-पकवान, मिठाइयां, मेवे, उपहार, नये-नये परिधान, भरपूर रोशनी और सत्यमेव जयते का उल्लास जब कार्तिक की अमावस में छोटे-छोटे दीपपुंजों से चारों ओर फूटता है तो अपने यहां दीवाली हो जाती है. प्रसन्नता पर्वों का स्थाई भाव होता है. एक तरह से विभिन्न पर्वों में हम तरह-तरह से अपनी प्रसन्नता को मनाते हैं. सारे के सारे एक साथ प्रसन्न खाते-पीते हैं, नाचते-गाते हैं, तरह-तरह के रस्मों-रिवाज निभाते हैं. फिर प्रसन्न-प्रसन्न अपनी दीन-दुनिया में वापस उतर जाते हैं. दीन-दुनिया का पर्वोंसे सीधा रिश्ता होता है. तभी तो जैसी दुनिया होती है पर्व भी धीरे-धीरे वैसे ही होते जाते हैं. जब दुनिया उदास है तो त्यौहार प्रसन्न प्रफुल्ल कैसे हो सकते हैं. वह चाहें दीवाली हो, ईद हो या क्रिसमस. लेकिन जब पूड़ी-पकवान रुलाने लगें, मिठाइयां डराने लगें, मेवे मुंह चिढ़ाने लगें, उपहार रिझाने लगें, नये-नये परिधान पुराने लगें, चारों ओर घुप अंधेरा हो और झूठ, फरेब का और रोशनी के नाम पर केवल वातायन हो जहरीला करती हुई आतिशी शोर हो तो पर्व की लीक पिटाई भले कर ली जाये लेकिन उसका स्थाई भाव 'प्रसन्नताÓ को मनाना संभव नहीं है. इस बार की दीपावली हमारे शहर के लिए कुछ ऐसी ही है.आप ही बताइये ३० रुपये किलो आलू, ४० रुपये किलो प्याज, ७८ रुपये किलो दाल, ३४ रुपये किलो शक्कर, ६० रुपये किलो तेल, १२ रुपये किलो नमक वाली मंडी में आम पर्व प्रेमी पूड़ी-पकवान मिठाइयां, मेवे, उपहार की भला कैसे सोच सकता है. सीधा-सीधा पेट भरने वाले 'सामानÓ पर प्रहार हो गया है. शहर का आम आदमी अपनी थाली में एक साथ दाल, चावल, सब्जी, प्याज रखने की सामथ्र्य खो बैठा है. इन स्थितियों में जगमगाती झलरों वाले बाजारों में ऑफरों से लैस किसी त्यौहारी संहिता का क्या माने रह जाता हैं. चाहें गणेश-लक्ष्मी वाले नये-नये चांदी के नोट हों, शुगर पीडि़तों के लिए शुगर फ्री मिठाइयां हों, कारों, इलेक्ट्रॉनिक्स के सामानों और जेवरातों के लिए एक से एक आकर्षक किफायती ऑफर हो लेकिन जब ये सारी चीजें सिर्फ कुछ लोगों के लिए ही हैं. इन्हें आगे बढ़कर अपनी देहरी भीतर लाने की सामथ्र्य सबके पास न हो तो ये किसी अवसर विशेष पर लगने वाले हाट के सामान तो हो सकते हैं लेकिन त्यौहार के सामान नहीं हो सकते. वह तो आलू, प्याज, शक्कर, तेल, नमक ही है. इन पर सबका समान वश है और इन्हें हर त्यौहार की रसोई में रहना ही होता है. आप सोच रहे होंगे इसने गंभीर चिंतनीय लेख में अचानक आलू, प्याज, तेल, नमक कहां से आ जाता है. दरअसल इस बार की दीवाली का सबसे गंभीर चिंतनीय पक्ष ही यही है कि तब-जब खाली है थाली, फिर काहे की दीवाली.हर पर्व का एक समान संहिता होती है. जो समान रूप से सभी पर लागू होती है. एक सा खाना चाहे राजा का हो या रंक का, एक सा विविध विधान चाहें राजा का हो या रंक का, एक सा उत्सवी रास चाहें राजा के लिए हो या रंक के लिए. सब कुछ एक से लेकिन पर्व के रूप-स्वरूप के लिए यह एकरूपता प्रथम अनिवार्यता होती है. यह तो सब कुछ 'एक सा वालीÓ बात है यह तभी संभव हो सकती है जब सभी के पास 'सब कुछÓ समान रूप से हो. जैसे आलू, दाल, सब्जी, शक्कर, तेल, नमक... आदि इत्यादि. आज भी इनकी कीमत चाहें इनकी औकात से कई गुणा हो गई हों लेकिन हर थाली इन्हें बुलाती है. यह बात अलग है कि कभी आलू है तो कभी दाल, कभी प्याज नहीं है, तो कभी शक्कर. इस बार की दीवाली में थाली पर संकट है. फिर अधूरी थाली तो हर गृहलक्ष्मी का अधूरा श्रृंगार होता है. रही बात आम उत्सव प्रेमियों की तो इसके लिए बुजुर्ग पहले ही कह गये हैं भूखे भजन न होय गोपाला. सेंसेक्स महंगाई की दर, सर्वेक्षणों और आंकड़ों के दुनियावीकरण के दौर में इस बार की दीवाली भले ही सर्वाधिक रोशन घोषित हो लेकिन दीवाली के एक दिन पहले और दीवाली के एक दिन बाद पूरे शहर की थाली में दाल, चावल, रोटी, साग एक साथ नहीं था. यह घोर अंधकार का प्रमाण है किसी रोशनी का उत्सव नहीं. 1