मंगलवार, 17 नवंबर 2009

४४ साल पुराना थप्पड़


हिन्दी को कौन नहीं अपमानित कर रहा. आज की ताजा पीढ़ी, उनके मां-बाप, ये नेता लोग, ये अमीर, ये गरीब, कौन है आज हिन्दी का तिलकधारी. मराठी तो फिर भी भारत की ही एक भाषा है. मगर हम तो अंग्रेजी पर लट्टू हैं. सही बात तो यह है कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही ढपोरशंखी है. हम कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं , सोचते कुछ हैं, जानते कुछ हैं और मानते कुछ हैं तभी तो महाराष्ट्र विधान सभा के तमाचे की असली गूंज को न हम सुन पा रहे हैं न समझ पा रहे हैं.
हिन्दी के मुंह पर पहला तमाचा इस देश की राजनीति ने १९६५ में ही जड़ दिया था. ९ नवम्बर २ हजार ९ को महाराष्ट्र विधान सभा में अबू आजमी के मुंह पर पडऩे वाला तमाचा तो उसकी अनुगूंज है. देश के आजाद होने के बाद से आज दिन तक हिन्दी तो रोज ही 'तमचियाईÓ जा रही है. राज ठाकरे के चार मराठी गुण्डे जब अबू आजमी को थपडिय़ाकर देश के हिन्दी मीडिया के सामने कह रहे थे कि हिन्दी राष्ट्र भाषा नहीं है...हिन्दी राज भाषा नहीं है..तो दोस्तों, वे गलत नहीं कर रहे थे. यह वास्तव में हिन्दी भारत की न तो राजभाषा है और न ही राष्ट्र भाषा और अगर हमारे दिल-दिमाग में 'हिन्दीÓ कहीं रची बसी है तो सिर्फ इसलिए कि वह इस देश के बहुसंख्यों की मात्र भाषा है व्यवहार की भाषा है. चूंकि हिन्दी के जरिए जीवन चलाने वालों की संख्या देश में सबसे ज्यादा है इसलिए वह लगती है देश की राष्ट्र भाषा लेकिन है नहीं. क्योंकि संविधान ने उसे आज दिन तक अपनाया नहीं है.जब देश आजाद हुआ था तो संविधान में हिन्दी को राष्ट्र की राज भाषा घोषित किया गया था. चूंकि भारत विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाला देश है इसलिए एक व्यवस्था दी गई थी कि देश के जो क्षेत्र (राज्य) अहिन्दी भाषी हैं वे पूरे देश की भाषाई मुख्य धारा 'हिन्दीÓ में शामिल होने के लिए तैयारी करें और इसके लिए १५ वर्ष का समय निश्चित किया गया. इस तरह १९५० में लागू संविधान की मंशा के अनुसार हिन्दी को १९६५ में इस देश की राज भाषा और राष्ट्र भाषा दोनों का ही दर्जा मिल जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं..! मित्रों! आपको बताएं कि तुर्की की आजादी के बाद वहां के दृढ़ इच्छा शक्ति वाले 'सत्ता नायकÓ कमाल पाशा ने २४ घण्टे के भीतर अपनी देसी भाषा तुर्की को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठा दिया था. वहां भी भारत की तरह ही कई विषमताएं व विसंगतियां थीं. वहां भी तरह-तरह के सवाल उठे थे. तुर्की के राष्ट्र चिंतकों का मानना था कि एक भाषा तुर्की को पूरे देश का संवाद माध्यम बनाने में कई साल लगेंगे. जब यह सवाल 'पाशाÓ के सामने आया तो उनका जवाब था कि आप लोग समझ लें कि जो समय आप लोगों को चाहिए वह इसी वक्त पूरा हो चुका है. अब जो भी काम होगा 'तुर्कीÓ में ही होगा. १९१९ में २४ घण्टे लगे एक देश को अपनी देसी भाषा को राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बिठाने में. और यहां सन् १९४७ से दो हजार ९ तक की ६२ साल की यात्रा हो गई है हिन्दी न तो राज भाषा बन पाई है और न ही राष्ट्र भाषा. ऊपर से हिन्दी बोलने के गुनाह में अबू आजमी के मुंह पर तमाचा ऊपर से पड़ गया. यह तमाचा किसी और ने नहीं संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने वाले जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने ही मारा. राज ठाकरे के गुण्डों की इतनी हिम्मत सिर्फ इसलिए पड़ गई कि सन् १९६५ में देश की संसद हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा घोषित करने का साहस नहीं दिखा पाई थी. उल्टा इस प्रश्न पर संविधान में एक संशोधन कर दिया गया कि जब तक देश का प्रत्येक प्रांत हिन्दी को राज भाषा और राष्ट्र भाषा मानने के लिए तैयार नहीं होगा तब तक हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित नहीं किया जा सकता. वर्ष १९६५ में देश की आजादी कुल ६० करोड़ के आस-पास थी और मिजोरम की आबादी तब केवल पांच लाख के आस-पास रही होगी. अब अगर मिजोरम नहीं चाहता कि देश की राज भाषा या राष्ट्र भाषा हिन्दी बने. तो समझो ६० करोड़ पर ५ लाख की आपत्ति अंतिम है. तब के उदार राष्ट्रहित चिंतकों ने दलील दी थी कि हम किसी पर जबरिया हिन्दी नहीं थोपेंगे...! यह क्या है..यह कौन सी राजनीतिक शक्ति है जो अपने सरकारी काम काज के लिए, व्यवहार के लिए देश को एक भाषा नहीं दे सकती. हिन्दी तो अनाथ है. यह तो केवल इसलिए जिंदा है कि इसे बोलने वाले और व्यवहार में लाने वाले लोग अभी इस देश में जिंदा हैं. वरना क्या है हिन्दी के पास 'हिन्दुस्तान मेंÓ न सरकारी संरक्षण, न संवैधानिक अधिकार, रही बात जन व्यवहार की तो आपने देख ही लिया कि एक विधायक को भारत के संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त करने में हिन्दी का प्रयोग करने पर चार मराठी विधायकों ने थप्पड़ों से मारा. दरअसल यह थप्पड़ तो देश की पूरी राजनीति ने उस दिन ही बो दिया था जिस दिन हिन्दी को राष्ट्र व राज भाषा बनाने के मुहूर्त में एक संशोधन के जरिए अहिंदी भाषियों की कृपा की आस में अनिश्चित काल के लिए लावारिस छोड़ दिया गया था.

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