सोमवार, 27 जून 2011

फेसबुक पर चर्चा

पेट्रोल के बढ़ते दाम और साइकिल
जब से पेट्रोल के दाम 5 रुपए बढे मैंने कार खड़ी कर दी ,
बाइक थाम ली है. सुना है फिर बढऩे वाले हैं दाम .
मैं आज बाइस्किल के दाम पूँछ आया हूँ
- प्रमोद तिवारी
Jitendra Awasthi-  Pramod ji chinta na kare is desh ki vertman andhi, bahari sarkar kuch din aur rahi to nagar nigam ja kar paidal chalne ke rate puchne padenge.
Kavita 'kiran' Poetess-  bahut khoob!!! shikhar se shuny ki aur.......:)
 Amit Singh-  sir please hum sabhi ko bhi bicycle ke damo se avagat kara den nahi ti demand badhne per ye bhi mehangi ho jayegi.
Pramod Tewari-  Amit Singh @majak nahin, mai siriys hoon lekin jitendra awasthi ne cy&cil ke liye raaste ka sawal utdha ke muskil men dal diya hai
Shaalini Dwivedi- tiwari sir kanpur m raste bache hi kaha h ........ swimming pool ban gaye h isliye m to boat lene ki soch rahi hu kisi ko pata ho to plz bataye boat kaha milegi........................
Dileep Bhartiy-  ये सोच जब 20/- से 25/- हुआ तब भी आई थी जब 40/- से 45/-हुआ , और अब?.
 Farhan Wasti- Bahut acha hai Pramod Tewari jee. zabardast.
Rajendra Pandit-  दादा प्रणाम, साइकिल से दो फायदे रहेंगे एक्सरसाइज़ भी हो जायेगी और मुलायम सिंह यादव भी गदगद रहेंगे, आप साइकिल की सोंच रहे हैं.... मैतो सोच रहा हूँ अगर अबकी बार पेट्रोल के दाम बढ़े..... तो मज़बूत जूता ले आऊँगा... अरे भाई पैदल जो चलना पडेगा,,,
Gopal Mishra- DADA ke satya kathan ko pranam aivam pandit ji ko samarthan..pranam
Gopal Ojha- ÕãéÌ âãè ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
Pramod Tewari- Shaalini Dwivedi@aap ko boat chahia, rajendra ko majboot ,joota,awasthiji ko rasta.maine sarkar se bat ki hai .usane kaha hai aap sab ki murad bhut jald poori hone ja rahi hai..
Rohit Misra- dada very good comment
Piyush Ranjan- Pramod Tewari Shaalini Dwivedi@aap ko boat chahia, rajendra ko majboot ,joota,awasthiji ko rasta.maine sarkar se bat ki hai .usane kaha hai aap sab ki murad bhut jald poori hone ja rahi hai..HUM INTEZAAR KARENGE QUYAMAT TAK..KHUDA KARE KI...
Piyush Ranjan-  Aap sab mil kar bahut galat kar rahe hai....Tarah-Tarah ke 'options' sujha kar sarkaar ki GIDDH DRISHTI is par bhi dalwa rahe hai.
Ranjeet Singh Rajawat- sory sir,ye baiskil baad mai dhool khati hai ye tabhi nikalati hai jab petrol ke daam badate hai phir vahi daak ke teen paat..............
Pramod Tewari-  ranjeet ki is bat me dam hai lekin cycale ke sahare hi lad sakta hai aam aadmi petrol se. vz se w® km ki cycling do char mahanagaron ko chod diya jaya to desh bhar main ppetrol ke hosh uda sakati hai
Hemant Kumar- Kyu nahi mai swayam hi apni bicycle ko xz km/hour ki ma&imum speed tk chalata aya hoon.....aur minimum vz km/hr ki speed se to chalti hi hai................so we should promote cycling n RECYCLING.......
Piyush Ranjan-  Is speed par to shahar ki bhid-bhad me meri car chal pati hai... upar se kahi bhi jam ho to khadi...'cycle' vastutah ek accha option hai..Hemant ji,Pramod ji aur saare mitro ! aaiye hum sab mil kar 'cycle' aandolan aarambh kare. Taarekh aap sab decide kariye... sthaan rakhte hai apna Parade Ram Lila Ground.
Amit Bajpai- Good thought. the idea is ecofriendly lets go for" BICYCLE MOVEMENT"
Pramod Tewari- chalo karten hai suruaat
Ramesh Vishwakarma- Bahut khub sir...Humare pass bhi बाइस्किल  hai... Mere paise bachte hai... Aur Polution se bhi rahat..... E&ercise Ki jarurat nahi...
Piyush Ranjan- DOSTO! abhi is abhiyaan ki roop rekha taiyaar kar raha hoon, Pramod ji ka aashirwad hai. Bahut jaldi ise moorta roop denge. Tab tak aapske valueble comments ki apeksha karta hoon.
Piyush Ranjan- yeh abhiyaan sabhi ke liye hai, isliye iska aarambh kis prakar ho, aap sab apne vichar de.v
साभार :- प्रमोद तिवारी जी के फेसबुक एकाउंट में हुई चर्चा

संडे हो या मंडे, रोज खाओ डण्डे

फेसबुक में राजेन्द्र पंडित द्वारा 'अखिल ब्रह्मांडीय पत्नी शोषित महासभा' नाम से एक समूह का गठन किया गया. जैसा कि  नाम से जाहिर होता है कि इसमें शामिल होने वाले लोग पत्नी नामक जीव से परेशान लोग हैं. इसमें कमेंट देने वाले और स्टेटस लिखने वाले दोनों छुप-छुप कर ये काम कर रहे हैं. बार-बार शिकायत यह आ रही है कि लिखने वालों के कमेंट और स्टेटस डिलीट हो जाते हैं. यह फेसबुकिया गलती नहीं है. जरूर यह किसी पत्नी नामक प्राणी की खुराफात है जो इन पतियों की वैचारिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण है.
इटावा में दैनिक जागरण के पत्रकार वेदव्रत गुप्ता ने  लिखा कि शोषित महासभा के सभी पदाधिकारी पतियों के हित में सन्डे की छुट्टी रद्द करने की सरकार से मांग करें ! इसका कारण उन्होंने बताया कि ये सन्डे पतियों के लिए आफत का दिन है, इस दिन पत्नियाँ पति के साथ नौकर जैसा व्यवहार करती हैं! अपनी आपबीती बताते हुए श्री गुप्ता लिखते हैं- मेरी बीबी ने आज पूरे दिन नचाया , सबरे-सबेरे चाय बनाने को विवश किया, और कहा- रोज मैं बनाती हूँ आज तुम बनाओ!  इसके बाद आटा का कनस्तर कंधे पर लाद दिया और आदेश दिया- पिसवा कर लाओ. फिर पकड़ा दी सामानों की फेहरिस्त, गुर्रा कर बोली- लेकर आओ वर्ना रोटी नहीं मिलेगी! ये सब काम करके लौटा तो पकड़ा दिए अपने कपडे.. साड़ी की फाल लगवा कर लाओ ...उसके बाद सारे घर के जूते चप्पल पोलिश करो.. फिर भी चैन नहीं आया ...अब कह रही है की कपड़ों पर प्रेस करो ...! हे भगवान बचाओ ऐसे सन्डे से !
इस समूह के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार एवं व्यंग्यकार राजेन्द्र पंडित ने इसका जवाब दिया कि- 'शादी करके मिला ईनाम,
करो मियां अब सारे काम,
अगर की हीला हवाली,
तो मायके चली जायेगी घरवाली,
अगर नहीं गयी तो फिर वही पुराने हथकंडे-
'सन्डे हो या मंडे रोज़ खाओ डंडे'.1
फेसबुक से

यमुना नदी मे हुआ पहली बार घडियाल का प्रजनन

देश मे यह पहला मौका है जब किसी घडियाल ने सबसे प्रदूषित समझी जाने वाली यमुना नदी मे प्रजनन किया है. पहली बार यमुना नदी मे घडियाल के बच्चे पाये जाने को लेकर पर्यावरणविद उत्साहित है.  जिस प्रकार घडियाल ने यमुना नदी मे प्रजनन किया है उससे एक उम्मीद यह भी बंध चली है कि आने वाले दिनो मे यमुना नदी भी घाडियालों के प्रजनन के लिये एक मुफीद प्राकृतिक वास बन सकेगा.
 यह वाक्या उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के हरौली गांव के पास हुआ है जंहा इन बच्चो को लेकर गांव वाले खासे उत्साहित दिख रहे है. पहली बार घडियाल के प्रजनन को लेकर गांव वालो के साथ साथ आम इंसान भी गदगद हो गये है. गांव के ही किनारे यमुना नदी का प्रवाह है इसलिये यमुना नदी के किनारे गांव वाले अक्सर आ जाया करते है इसी लिहाज से एक स्कूली छात्र मुनेंद मुनेंद्र अपने करीब 5 साथियो के साथ आया तब उसने पहली बार घडियाल बच्चो को देखा है पहली बार बच्चे देखने के कारण मुनेंद्र इस बात का अंदाजा नही लगा पाया कि ये घडियाल या मगर के बच्चे है. लेकिन मुनेंद्र की खबर पर सबसे पहले पूरा का पूरा गांव मौके पर आया और इन बच्चो को देखा और अब पूरे इटावा मे चर्चा का बाजार गर्म है.
 वन्यजीव संरक्षण की दिशा मे काम रही संस्था सोसायटी फार कंजरवेशन आफ नेचर के महासचिव डा.राजीव चैहान का कहना है कि यमुना नदी मे आई बाढ से इटावा के आसपास का पानी साफ हो गया है और इसी वजह से घडियाल यमुना नदी मे प्राकृतिक वास बनाया है. ऐसा लगने लगा है देश मे सबसे अधिक प्रदूषण मे धिरी यमुना नदी का पानी कही ना कही अब इटावा के आसपास साफ हो रहा है इसी वजह से अब घडियाल यमुना नदी मे प्रजनन करने लगे है.
इस बदलाव को लेकर ऐसी उम्मीद बंधी है कि अब यमुना नदी भी घडियालो को पालने के लिये मुफीद हो गई मानी जा रही है. इससे पहले कभी भी यमुना नदी मे घडियाल ने प्रजनन नही किया है. इस बदलाव के बाद ऐसा लगने लगा है कि अभी तक सबसे सुरक्षित समझी जाने वाले चंबल नदी कही ना कही दूषित हो चली है इस कारण घडियाल यमुना नदी की ओर मुखातिव हो रहे है. पूरी की पूरी यमुना नदी मे एक मात्र एक ही नेस्ट देखा गया जिसमे करीब 46 बच्चे घडियाल के देखे जा रहे है. अभी तक देश मे सिर्फ चंबल एक मुख्य प्राकृतिक वासस्थल माना जाता है लेकिन अन्य जगहो पर इनकी छोटी छोटी सख्या भी पाये जाते है गिरवा नदी केतरनिया घाट ,सतकोशिया महानदी,र्काविट नेशनल पार्क,सोन नदी व केन मे इनकी संख्या कहने भर के लिये रहती है.
साल 2007 आखिर मे दिनो मे इटावा मे चंबल नदी मे एक सैकडा से अधिक घडियालो की मौत के बाद इस बात को प्रभावी ढंग से उठाया गया कि यमुना नदी के व्यापक प्रदूषण के कारण दूर्लभ प्रजाति के घाडियालो की मौत हो गयी है. लेकिन अनगिनत घडियाल विशेषज्ञो ने कई लाख रूपये खर्च करके भी घडियालो की मौत का पता लगाने मे कामयाब नही हो सके है.
यंहा पर इस बात का जिक्र किया जाना बेहद जरूरी होगा कि 2007 मे जब इटावा मे घडियालो की मौत का सिलसिला शुरू हुआ तो यह बात घडियाल विशेषज्ञो की ओर से प्रभावी तौर पर कही जाने लगी कि यमुना नदी मे हुये प्रदूषण की वजह से दुर्लभ प्रजाति के घडियालो की मौत हुई है लेकिन इस बात को कोई भी घडियाल विशेषज्ञ साबित नही कर पाया कि घाडियालो की मौत यमुना नदी के प्रदूषण का नतीजा है.
इसके अलावा वन्य जीव प्रेमियों के लिए चंबल क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है. किसी अज्ञात बीमारी के चलते बड़ी संख्या में हुई विलुप्तप्राय घडियालों के कुनबे में सैकड़ों की संख्या में इजाफा हो गया है. अपने प्रजनन काल में घडियालों के बच्चे जिस बड़ी संख्या में चंबल सेंचुरी क्षेत्र में नजर आ रहे हैं वही दूसरी ओर यमुना मे घडियाल के बच्चो ने एक नई राह दिखाई है.
दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में इन घडियालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था. ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडियाल किताब का हिस्सा बनकर न रह जाएं. घडियालों के बचाव के लिए तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आगे आई और फ्रांस, अमेरिका सहित तमाम देशों के वन्य जीव विशेषज्ञों ने घडियालों की मौत की वजह तलाशने के लिए तमाम शोध कर डाले.
घडियालों की हैरतअंगेज तरीके से हुई मौतों में जहां वैज्ञानिकों के एक समुदाय ने इसे लीवर रिरोसिस बीमारी को एक वजह माना तो वहीं दूसरी ओर अन्य वैज्ञानिकों के समूह ने चंबल के पानी में प्रदूषण को घडियालों की मौत का कारण माना. वहीं दबी जुबां से घडियालों की मौत के लिए अवैध शिकार एवं घडियालों की भूख को भी जिम्मेदार माना गया. घडियालों की मौत की बजह तलाशने के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने करोड़ों रुपये व्यय कर घडियालों की गतिविधियों को जानने के लिए उनके शरीर में ट्रांसमीटर प्रत्यारोपित किए.
जिस यमुना नदी मे घडियाल ने पहली बार प्रजनन करके एक नया इतिहास लिखा है उसी यमुना नदी को अपने प्राकतिक स्वरूप को बनाये रखने के लिये देश की राजधानी दिल्ली में सर्वाधिक संघर्ष करना पड़ रहा है. उत्तराखंड के शिखरखंड हिमालय से उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तक करीब 1,370 किलो मीटर की यात्रा तय करने वाली यमुना को ज्यादा संकट दिल्ली के करीब 22 किलोमीटर क्षेत्र में है, लेकिन बेदर्द दिल्ली को यमुना के आंसुओं पर कोई तरस नहीं आता. यही कारण है कि अभी तक यमुना की निर्मलता वापस नहीं लौट सकी. केन्द्र सरकार व कई राज्यों ने भले ही यमुना की निर्मलता के लिए ढाई दशक के दौरान 1,800 करोड़ से अधिक की धनराशि खर्च कर दी हो लेकिन यमुना के पानी की निर्मलता वापस लौटना तो दूर, वह साफ तक नहीं हो सका. जाहिर है कि अरबों की धनराशि पानी में बह गयी. विशेषज्ञों की मानें तो विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में यमुना का शीर्ष स्थानों में से एक है लेकिन घडियालों के प्रजनन के बाद विशेषज्ञों के पास कोई जबाब इस बात का नही है कि यह चमत्कार आखिरकार कैसे और क्यों हुआ?1
दिनेश शाक्य

कानपुर परिवर्तन

परिकल्पना और वास्तविकता

कानपुर शहर में सामाजिक विकास के लिए तीन तरह के समूह या संस्थान  पाए जाते हैं. एक जो पेशेवर दलाल हैं दूसरे बहुधा जोश-जोश में बने हुए संस्थान जो की कालांतर में समाप्त या निष्क्रिय हो जाते हैं अथवा ईमानदारी और नाकामी की वजह से हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं, तीसरा और सबसे सशक्त पक्ष उन लोगों का होता है जो जीवन के अंतिम दिनों में हरिनाम जपने की बजाय सामाजिकता का चोला ओढना ज्यादा पसंद करते हैं, वे इसकी वजह बहुधा 'नाम और नामा' ही बताते हैं. ऐसे लोगों से मैं सदैव यही प्रश्न करना चाहता हूँ कि यदि जीवन के चौथे दौर कि बजाय जीवन के साथ ही इस सामाजिक उद्देश्य को सम्मान दिया होता तो आज देश कि ऐसी नौबत ही क्यों आती. उनके मुख्य और गौण (अप्रकट) उद्देश्य क्या होते हैं राजनैतिक महत्वकांक्षाएं और व्यापारिक हितों के जुडाव को वे कभी स्वीकार ही नहीं करते. इसका अंदाज़ा एक साधारण व्यक्ति लगा ही नहीं सकता.
उदाहरण के तौर पर बताता हूँ, मेरे कुछ मित्र जो कानपुर के प्रतिष्ठित उद्योगों के मालिक हैं, विचारक हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी... लोगों ने एक सामाजिक संस्था  के माध्यम से शहर के 25 बीमार स्कूलों को गोद लेकर उनमें सुधार कार्य शुरू किये, बताने की आवश्यकता नहीं की इन सरकारी स्कूलों में अति निर्धन या निर्धन वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं.अब   मान लीजिये की हम सुचारू रुप से इसका संचालन करते हैं और कल को सरकार  को एक प्रस्ताव देते हैं की इन विद्यालयों का विनिवेश किया जाए तो निश्चित रूप से हमारे साथ होगी और सरकार के पास इसको मानने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा (और जो नहीं माने उनके लिए पैसा और शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है). अब यदि हम इन स्कूलों को दूसरे तरीके से चलाने लगें  अपनी नीयत बदल दें और सर्व शिक्षा अभियान के अनुरूप काम न करके जनता से मोटी  फीस वसूलने लगें तो क्या होगा?
दूसरे उद्देश्यों में राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी करने की कोशिश कर सकते हैं. इसके साथ ही अगर शहर में 100-200 करोड़ निवेश करके कुछ औद्योगिक गतिविधियों को संचालित करें तो निश्चित रूप से जन समर्थन हमारे साथ होगा ही. इस प्रकार से शासन पर पूंजी यानी कार्पोक्रेसी  हावी हो जाती है. इस पूरे  देश की यही हालत है. जनता को यही नहीं पता सही क्या है और गलत क्या है?
एक पक्ष और भी स्पष्ट करना लाजिमी है की ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी समाजशास्त्री और पूंजी समर्थित ज्यादातर जो विकासवाद के मॉडल सुझाते पाए जाते हैं, कोई अगर कहीं विदेश घूम के आता है और अपने अनुभवों को बताता है तो उसका प्रायोगिक क्रियान्वयन करने को सभी तत्पर दिखाई देते हैं. ऐसे में शासन और सत्ता प्रतिष्ठान में पूंजी की पकड़ सदैव उनकी सहयोगी होती है.
गाँधी के स्वदेशी और स्वराज की वकालत करते तो देखा जा सकता है लेकिन शहर के लिए स्वदेशी और स्वराज क्या है इसका अंदाज़ा एक बच्चा उनसे ज्यादा बेहतर बता सकता है. विकास के  स्थायित्व की बजाये तात्कालिक समाधानों की खोज उनको विदेशी माडलों में ही दिखाई देती है इसलिए प्राथमिकता होती है. शायद इसकी मूल वजह छपास हो.
अब इस शहर के आज़ादी के बाद के औद्योगिक स्वरुप की चर्चा  करें तो हम पाएंगे की इस शहर ने किसी ज़माने में  सचमुच में बहुत उन्नति की थी. लेकिन आज के हालत ये हैं कि लघु, छोटी और मझोली इकाइयां मिला के जो 8000 के ऊपर हुआ करती थी उनमें से तीन चौथाई आज रुग्ण,  मृतप्राय अथवा मृत हैं. कुल मिला के 6000 के आस-पास रुग्ण,  मृतप्राय अथवा मृत इकाइयों के पुनर्योजन  में लाखों लोगों के रोजगार और स्थायी विकास की अपार संभावनाएं मौजूद हैं.  लेकिन ये पश्चिम परस्त समाजशास्त्री बहुधा इस मुद्दे को लाल झंडे वालों का खिलौना मानते हैं, और उनके सरपरस्त  उद्योगपति बहुधा सरकार को गाली देते पाए जाते हैं.
'एकोहम द्वितियोनास्ति' की पूर्वाग्रह   पसंद ये समाजशास्त्री युवा वर्ग को वे सदैव हाशिये पर ही रखते हैं.
अब शहर के ऐसे  तंत्र में अगर नेतृत्व प्रतिभा खोजने जायेंगे तो अँधेरे में तीर चलने जैसा काम नहीं तो और क्या है? बेहतर होगा की पहले शिक्षा का समग्र सामाजिक स्वरुप तय करें. युवा शक्ति का संगठित केंद्र विद्यालय और महाविद्यालय हैं. उनको मुख्यधारा के समीप लाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए.
यह विचारधारा लेकर कानपुर मंडल से 40000 से ज्यादा स्वयं सेवी संगठन कार्यरत हैं. जिनके समाजशास्त्र का  जि़क्र मै ऊपर कर चुका हूँ.  413 कच्ची बस्तियों में से अधिकांश में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि जैसे विचारों ने उन बस्तियों के लोगों में असुरक्षा कि भावना और अविश्वास ही बढाया है. 'आपने-मैंने' की ही परिणति है की देश में 900 से ज्यादा राजनितिक दल हैं. 'आपने-मैंने' की विचारधारा ने देश का सर्वाधिक अहित किया है. शहर हमारा है, देश हमारा है. 'आपने-मैंने' की जगह 'हमने' अधिक सार्थक रहेगा.1
राकेश मिश्र

फेसबुकनामा

फेसबुक पर लाइकिस्टों की आई बाढ़

जब से सोशल नेटवर्किंग का युग आया है, फेसबुक सबसे जबरदस्त रूप में सफल हुआ है.  इसकी आज की लोकप्रियता का आलम ये है की आज सभी खासोआम इसमें सदस्य के रूप में उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. इसमें जुडऩे और खोजने की गति बहुत तेज है. कुल जमा तीन साल पहले भारत में इंटरनेट पर उतरा फेसबुक भारत में नेटीजनों की पहली पसंद बनता जा रहा है. देश में जितने इंटरनेट यूजर हैं उसमें से एक तिहाई फेसबुकिया हो गये हैं जिनकी अनुमानित संख्या 2.8 करोड़ है. इंटरनेट की दुनिया में फेसबुक का यह विस्तार इस अमेरिकी कंपनी के लिए सुखद सूचना है क्योंकि एशियाई बाजारों में भारत ही वह सबसे बड़ा बाजार है जिसपर कब्जा करने के बाद फेसबुक में व्यापार की अच्छी संभावना पैदा हो सकती है.
इस सबके बावजूद एक बड़ी समस्या है 'लाइक' यानी 'वाह-वाह' की. बहुत बार प्रस्तोता किसी गंभीर मुद्दे पर बहस चाहता है और उसके फेस्बुकिया  साथी सिर्फ लाइक करके निकल लेते हैं, तब उसकी हालत बहुत बुरी हो जाती है.
बहुत बार तो ऐसा होता है कि आपने अपना स्टेटस अपडेट किया नहीं की बीस-पच्चीस लाइकिस्ट तत्काल सक्रीय रूप से अपना मत दे बैठते हैं. किस मुद्दे  की पोस्ट है, इससे उनका कोई मतलब ही नहीं होता. यद्यपि ऐसी वाहों का कवि सम्मेलनों और मुशायरों में बहुत आवश्यक होती हैं. परन्तु यारों की फेस्बुकिया महफि़लों में ऐसी झूठी बड़ाई और मुद्दे की गंभीरता की अनदेखी से इस साईट में सदस्य बने गैर-गंभीर साबित हो रहे हैं. ये समस्या हाल में महिला साहित्यकार डा. सरोज गुप्ता ने बड़ी शिद्दत से उठायी. उन्होंने लिखा ''बहुत हो गया ,अपना सर दुखाते ,आपका सर खाते ,आज 'वाह -वाह' करती हूँ ,इसमें बहुत धार है! बहुत लायकिंग मिलती है.
.सुबह हो गयी -वाह ! चाय पी रही हूँ -वाह !
मुझे जुखाम हो गया -वाह!
फलां की अंत्येष्टि है -वाह!
राहुल की कैटरीना से शादी हो गयी -वाह.
 पुलिस ने बलात्कार किया -''वाह -वाह !'' जहां चाहे ''वाह'' लगाओ और प्रभु के गुण गाओ और फेस्बुकियों को अपना चहेता बनाओ! सुप्रभात -वाह -वाह -वाह!!!''
इस स्टेटस को अभी पचास से अधिक लाइक और पच्चासी से अधिक कमेंट मिले. जिसमें ज्यादातर ऐसे थे जो बीच बहस में इस तरह ऐंठ गये जैसे नम्बर घटवाने-बढ़वाने का खेल हो रहा हो.
निश्चल श्रीवास्तव ने कहा-  बात जहां से बोली जाये अगर सामने वाले को उसी जगह पर लगे तो परिणाम आयेगा ही. फिर चाहे वाह हो या आह.
प्रियांक पाठक को निश्चल की बात अच्छी नहीं लगी और उसने कहा कि सभी को अपनी पसन्द और नापसन्द जाहिर करने का हक है. इसलिये केवल वाह वाह करने वालों का विरोध नहीं किया जाना चाहिये.
इस वाह और आह में इतना तनाव बढ़ा कि दोनों में एक दूसरे से रिश्तेदारी कायम करनी पड़ी और सरोज गुप्ता को समझौता कराना पड़ा.
सरोज गुप्ता ने कहा कि- फेसबुक पर भरे पेट वाले लोगों का जमावड़ा है. अत: गम्भीर बातों, गम्भीर समस्याओं और राष्ट्रचिन्तन के मुद्दे पर  गम्भीर बहस नहीं हो रही है.
आशा मेहता ने वाह वाह से शुरुआत ही की और कहा- इस वाह में आम इन्सान की आह छिपी है. अदभुत अभिव्यक्ति या यूं कहें फेसबुक की गतिविधियों पर अदभुत कटाक्ष है. इस वाह में भी वे फेसबुक के लाइकिस्टों की गतिविधियों के प्रति अपने अन्दर के गुस्से को छिपा नहीं सकीं.1
अरविन्द त्रिपाठी

चौथा कोना

चुनाव से भागे 'चोर'

आदरणीय लोकेश शुक्ल के पुत्र युवा पत्रकार रितेष शुक्ल के शुभ विवाह में कानपुर के पत्रकारों का अच्छा खासा जमाव था. जब अखबार वाले होंगे तो अखबारों और पत्रकारों की ही चर्चा होगी. तो शुरू हो गई प्रेस क्लब की चर्चा. मैंने सौरभ शुक्ला से पूछा- १ जुलाई को चुनाव है न...! अरे कहां भैया, सब फिर टांय...टांय फिस्स हुआ जा रहा है. कह दिया गया है चुनाव नहीं होंगे. सौरभ का यह जवाब मुझे चौकाने वाला था और कानपुर के जिम्मेदार पत्रकारों को धिक्कारने वाला भी. प्रेस क्लब की मौजूदा कार्यकारिणी अगर अब भी चुनाव टालकर नवीन मार्केट में बनी रहना चाहती है तो लगता है परिवर्तन और संवैधानिकता चाहने वालों को सड़क पर उतरना होगा.
 पिछली बार जब अन्ना जी के समर्थन में मैं तम्बू लगाकर प्रेस क्लब के नीचे बैठा तो युवा पत्रकारों ने मेरे धरने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उसी धरने से मुहिम चली और घनघोर दबाव में प्रेस क्लब के महामंत्री कुमार ने १ जुलाई को चुनाव कराने की घोषणा कर दी. इसके बाद पत्रकारों के बीच आपसी क्या राजनीति हुई मुझे नहीं पता लेकिन इतना अवश्य पता है कि परिवर्तन की अगुवाई कर रहे नये पत्रकारों को डराकर, बरगलाकर, फुसलाकर, रिरियाकर खामोश रहने को राजी कर लिया गया है.
शर्म आनी चाहिये ऐसे लोगों को जो खुद को पत्रकार कहते हैं और एक असंवैधानिक, भ्रष्ट और अराजक संस्था के साथ सार्वजनिक रूप से व्यभिचार करते हैं. १० साल बाद भी अगर चुनाव कराने में दग रही है. तो इसका मतलब है इस पूरे गिरोह ने जमकर भ्रष्टाचार किया है. १० बरस तक लाखों रुपये आये-गये और प्रेस क्लब जैसी संस्था के पास बैंक एकाउंट नहीं है. एक बूढ़ा अन्ना पूरे देश से भ्रष्टाचार मिटाने को मरा जा रहा है और यहां की जवान पत्रकारिता भ्रष्टाचारियों से डरकर किसी पिल्ले की तरह या कूं-कूं कर रही है या दुम हिलाती है. लगता नहीं कि ये गणेश शंकर विद्यार्थी की नगरी है.

आमरण अनशन पर बैठने की तैयारी
परिवर्तन चाहने वाले पत्रकारों ने प्रेस क्लब चुनाव की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठने की ठानी है. अनशनकारियों की मांग होगी-
स्न जिला प्रशासन के हस्तक्षेप और देख-रेख में प्रेस क्लबचुनाव.
स्न पिछले दस साल का पाई-पाई का हिसाब.
स्न हिसाब न देने पर जांच और उचित कार्रवाई हो.
चैनलों पर लोकल सेंसरशिप
उत्तर प्रदेश में इस समय मीडिया पर सरकार का पूरा दबाव है. यहां कानपुर में पिछले दिनों शहर के तीन-चौथाई हिस्से में अचानक 'सहारा समय' का प्रसारण गायब हो गया. पता किया तो सूत्रों ने बताया कि लखनऊ के आदेश पर स्थानीय प्रशासन ने केबल आपरेटर को डंडा दिखा दिया है- 'सहारा समय' कहीं नजर नहीं आना चाहिये. और सहारा गायब. स्थानीय सहारा समय कार्यालय से उनके चैनल के गायब होने के बारे में पूछा तो सूत्रों की जानकारी की पुष्टि हुई. बताया गया कि सहारा समय पर अघोषित सेंसर इसलिये लागू था कि चैनल कांग्रेसी व्यापारी संजीव दीक्षित के मामले में ऐसा पर्दाफाश जिसके बाद यह कहना बहुत आसान हो जाता कि संजीव दीक्षित को सरकार के इशारे पर साजिशन फंसाया गया है. चैनल के पास इस बात के पक्के सबूत थे. इधर पिछले हफ्ते कानपुर में 'आईबीएन-७' का अता-पता नहीं चला. अभी राष्ट्रीय चैनल के स्थानीय प्रतिनिधि संयोगवश एक समारोह में मिले तो चर्चा का विषय यही राष्ट्रीय चैनलों का स्थानीय अपहरण ही रहा. 'आईबीएन-७' के अवरुद्ध या छुपे-छुपे प्रसारण की वजह का हम कानपुर के पत्रकार कुछ कयास ही लगाते कि शलभ और मनोज पर सार्वजनिक रूप से भरे बाजार में किसी फिल्म गुण्डे की तरह दो पुलिस अफसरों का दौड़ा-दौड़ाकर हमलावर होना बताया गया कि डा. सचान की आत्महत्या को आत्महत्या न मानकर दोनों मीडिया मैनों ने अपनी 'हत्या' का सामान जुटा लिया है। शलभ और मनोज राजन ने जब अपनी तथ्यपरक विश्लेषणात्मक पत्रकारिता से टीवी स्क्रीन पर यह साबित कर दिया कि डा. सचान की आत्महत्या झूठ है, सच तो हत्या और हत्यारों के बीच कहीं गुम है तो सरकार बौखला गई और इसी बौखलाहट में उसके 'दो गुण्डों' ने शलभ और मनोज को ठिकाने लगाने की ठान ली. मैंने घटना की अगली भोर मनोज और शलभ से बात की दोनों अपनी मुट्ठी भींचे हुये हैं. अच्छा लगा न वे हताश हैं, न निराश हैं, न डरे-सहमे हैं बल्कि अब और प्रतिबद्धता के साथ सच कहने को आकुल हैं. लेकिन अभी भी इन दोनों पत्रकारों की जान खतरे में है. क्योंकि डा. सचान कांड का असली नायक अभी भी अपनी चालें चल रहा है. जेल में मौते इसका प्रमाण हैं.1
प्रमोद तिवारी

अग्रलेख

बांस से ही बनती है कलम

शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी कोई आज से माया सरकार की आंखों की किरकिरी नहीं  थे. डा. सचान की हत्या से पहले भी आरुषि हत्याकांड, इंजीनियर मनोज गुप्ता हत्याकांड साथ ही बसपा विधायकों के बलात्कार, हत्या, अपराध और काले कारनामों के पर्दाफाश में इन दोनों मुखर पत्रकारों ने प्रखर भूमिका निभाई. मनोज और शलभ से मेरी जब-कब बात होती रहती है. इन दोनों ने कई बार आशंका जताई कि मायावती सरकार में उनके खिलाफ कुछ भी हो सकता है. जान-माल के साथ-साथ मान-प्रतिष्ठा सब कुछ निशाने पर है. शलभ, मनोज तो प्रदेश की राजधानी में हैं जब उनके साथ 'सरकारी गुण्डों' की ये मजाल है तो बाकी प्रदेश के छोटे नगरों व कस्बों में पत्रकारों के प्रति पुलिस का क्या रवैया रहता होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है.
कई बार सरकार या प्रशासन समझ नहीं पाता कि उसके बयानों और कृत्यों का सिर्फ सीधा प्रभाव ही नहीं होता बल्कि उससे आम लोगों में एक संदेश भी जाता है, जब कुर्सी पर बैठे नेता, अधिकारी अपने छिछियाये छोथ के लिये मीडिया वालों को गरियायेंगे, उन्हें सबक सिखाने की ताड़ में रहेंगे तो उनके मातहत क्याकरेंगे...? वे नम्बर बढ़ाने के चक्कर में बढ़-बढ़ के बैटिंग करेंगे ही. अपने बॉस को खुश करने के लिये वे किसी के भी बांस कर देंगे. मायावती 'मीडिया' को जातिवादी और बिकाऊ मानती हैं. ऐसा उनकी बोली-वानी और क्रियाकलापों से जगजाहिर है. अभी कुछ माह  पहले दैनिक जागरण के मालिक पर पुलिस का हमला हुआ था. सरकार ने इस मामले की खूब खिल्ली उड़ाई थी. और जो पुलिस, अधिकारी व कर्मचारी बदतमीजी और मारपीट करने की भूमिका में थे उन्हें दण्डित करने के बजाय पुरस्कृत सा किया गया था. इस घटना से पुलिस और मीडिया के बीच क्या संदेश गया...? यही न कि पत्रकारों को मारो शोहरत और पदवी मिलती है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो  वह दिन भी दूर नहीं जो सरकार के खिलाफ लिखने वालों को पुलिस घर में घुस-घुसकर मारेगी. उसके बाद लोकतंत्र में शायद ही कुछ बचे. लेकिन मैं तीन स्तंभों वाली मौजूदा व्यवस्था को सिर्फ इतना बताना चाहता हूं कि चौथे स्तंभ पर ज्यादा बांस न चलाओ. क्योंकि इसी बांस से कलम भी बनती है.

पेट्रोलियम पदार्थों की वृद्धि के विरुद्ध सपा का प्रदर्शन

पेट्रो पदार्थों के लिये केन्द्र सरकार ने बाजार आधारित मूल्य व्यवस्था लागू कर रखी है. इसी बहाने केन्द्र की कांग्रेसनीति सरकार ने लगातार पेट्रोल, डीजल व घरेलू गैस सिलेंडरों की कीमतों में पुन: वृद्धि कर दी है. विगत माह पेट्रोल में पांच रुपये व कल घरेलू गैस सिलेंडरों में पचास रुपये व डीजल में ३ रुपये प्रति लीटर व कैरोसिन में दो रुपये प्रति लीटर की वृद्धि कर मध्यम वर्ग सहित सभी अमीर व गरीबों को सीधे प्रभावित किया है.
आज कानपुर के किदवईनगर चौराहे पर हुये प्रदर्शन में समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ताओं द्वारा  कांग्रेस नीति केन्द्र सरकार की इस पेट्रो पदार्थों की मूल्य वृद्धि के खिलाफ उग्र नारेबाजी की गई. केन्द्र सरकार का पुतला बनाकर फूका गया.
प्रवीन कुमार यादव ने कहा महंगाई की मार से जनता त्राहि-त्राहि कर उठी है. इस बार की मूल्य वृद्धि का असर खान-पान, यातायात, भाड़ा और अन्य जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतों में पड़ेगा.
प्रदर्शन में पुष्कर सिंह चन्देल, दुर्गा शंकर मिश्र आदि प्रमुख रूप से सक्रिय रहे.1
हेलो संवाददाता

बड़े से छोटा और छोटे से बड़ा बनाया जाता चौराहा

 कानपुर दक्षिण का एक मुख्य चौराहा किदवईनगर का चौराहा सुन्दरीकरण के नाम पर खोद दिया गया है. यह चौराहा कानपुर के ट्रांसपोर्ट नगर आने-जाने  वाले ट्रकों और शहर आने-जाने वाली रोडवेज बसों की आवाजाही का केन्द्र है. भारी वाहनों के साथ-साथ दोपहिया वाहनों, कारों और टैम्पो-टैक्सी सहित पैदल यात्रियों का आना-जाना इस चौराहे पर रातो-दिन बना रहता है. लगभग दो लाख से अधिक वाहन और लगभग दस लाख आबादी प्रतिदिन इस चौराहे से गुजरती है. जिसकी समस्या इस खुदे चौराहे से और बढ़ जाती है.
विगत ९ जून की रात एक जेसीबी के माध्यम से किदवईनगर चौराहे के सेंटर पोल के चारो तरफ दो  फीट से अधिक गहरी खुदाई शुरू कर दी गई. खुदाई के बाद निकली मिट्टी-रोड़े को तब से आज तक पड़े रहने दिया गया. उसकी सुरक्षा के लिये लगाये गये बांस-बल्ली स्वयं ही कमजोरी का शिकार हैं. अर्थात नाम मात्र के लिये ही लगे हुये हैं. इस बड़े व्यास के गड्ढे के कारण चौराहे का शेष मार्ग बहुत छोटा हो गया है और शेष जगह भी खुदाई से निकली मिट्टी और निर्माण सामग्री से अतिक्रमित है. लोगों का आना-जाना दूभर है.
आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख डा. विनोद तारे का कहना है भारी वाहनों के गुजरने वाले चौराहे छोटे और कम व्यास के गोले होते हैं. इसी नियम का पालन देश-दुनिया में किया जाता है. कानपुर विकास प्राधिकरण द्वारा किये जा रहे इस अनियोजित विकास की घोर भर्तस्ना करते हुये युवा ट्रांसपोर्टर कंवल गांधी का कहना है एक अच्छी खासी सड़क और चौराहे का सत्यानाश कर दिया गया है. आम जनता में इससे खासा रोष है.1
हेलो संवाददाता

क्राइस्ट चर्च कालेज

शिक्षा नहीं सम्पत्ति है विवाद की मूल जड़

गरीब बच्चों के पढऩे के लिये दान दी गई जमीनों पर कानपुर में क्राइस्ट चर्च कालेज की स्थापना की गई थी. भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इस कालेज और इसके छात्रों का अविस्मरणीय योगदान रहा है. वर्तमान में कालेज में अव्यवस्था और अफरातफरी का माहौल है. ऐसा नहीं कि यहां शैक्षणिक स्टाफ की कमी है या फिर उनमें योग्यता नहीं. ऐसा भी नहीं कि यहां विद्यार्थियों की कमी है. नये छात्रों की आवक भी जारी है. छात्र-छात्राएं प्रतिदिन नये सत्र में प्रवेश के लिये कालेज के चक्कर काट रहे हैं. परन्तु कालेज के प्रबन्धन को कब्जियाने के बहाने बनाये गये दो प्रिंसिपल और उनके अलग-अलग प्रवेश फार्मों में से किस को वैध माना जाये? किस प्रकार प्रवेश पायें? विद्यार्थियों मे से किसे विश्वविद्यालय वैध मानेगा. अध्ययन कर अपना भविष्य निर्मित करने आये विद्यार्थियों का भविष्य प्रबन्धन के मालिकाना हक के विवाद में क्षत-विक्षत हुआ जा रहा है.
अल्पसंख्यक प्रबन्धन वाला क्राइस्ट चर्च कालेज विगत दो-तीन वर्षों से लगातार खबरों में सुर्खियां बढ़ा रहा है. कभी यहां के दो अध्यापक बर्खास्त कर दिये जाते हैं तो कभी कालेज के आफिस में ताला डाल दिया जाता है और कभी डा. परवेज डीन की शराबबाजी चर्चा का विषय बन जाती है. विवाद की तह पर जाने पर ज्ञात होता है कि मालरोड जैसी सड़क के किनारे स्थित इस कालेज की अरबों की भूमि पर अब नजर लग गयी है. यह काम प्रबन्धन पर कब्जा करने के साथ ही किया जा रहा है. बताया जाता है कि डा. परवेज डीन आगरा डायोसिस (एडीटीए) संस्था के बनाये हुये प्राचार्य है जबकि सोसायटी रजिस्ट्रार के पास इस नाम की संस्था रजिस्टर्ड ही नहीं है. दूसरी तरफ जिस संस्था का रजिस्ट्रेशन है वह है लखनऊ डायोसिस (एलडीटीए) इसे एंग्लिकन चर्च द्वारा स्थापित किया गया था. इस संस्था द्वारा डा. फिलोमिना रिचर्ड्स को प्रिंसिपल घोषित किया गया, जिन्हें वर्तमान में बरामदे से अपनी प्रिंसिपली चलानी पड़ रही है.
विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि इस प्रिंसिपली के विवाद की जड़ वे जमीनें हैं जो कालेज से सम्बद्ध हैं. समय-समय पर काबिज प्रबन्धन एडीटीए संस्था की जमीनों को औने-पौने में बेचा जाता रहा है. आज इन सम्पत्तियों में व्यापारिक केन्द्र स्थापित किये गये हैं. वेस्ट काट स्कूल के बगल वाली जमीन पर निर्मित बाला जी काम्पलेक्स संस्था की ऐसी अवैध गतिविधि का परिणाम लगतजा है. क्राइस्ट चर्च कालेज के ऐतिहासिक छात्रावास के कमरों की छतों में छेद कर न रहने योग्य बना दिया गया. इस प्रकार उसे भी बेचने की तैयारी है. नाम न छापने की शर्त पर कालेज के कर्मी बताते हैं कि प्रिंसिपल डा. परवेज डीन कभी भी राष्ट्रीय पर्वों तक में झंडारोहण नहीं करते हैं. आम शहरियों का मानना है कि देश और देश के कानून व प्रतीक चिन्हों का निरन्तर अपमान कर ऐसे ऐतिहासिक शैक्षणिक संस्थान पर काबिज व्यक्ति के इरादों पर अंकुश लगाने का काम प्रशासन को तत्काल करना चाहिये.१
हेलो संवाददाता 

मंगलवार, 21 जून 2011

जरूरत क्रान्ति की पूरी किसानी की


अन्ना हजारे और उनकी टीम पर एक व्यंग्य कसा जा रहा है कि पूरा देश साथ है तो  चुनाव लड़कर संसद में क्यों नहीं आते? बाबा रामदेव भी पिटने से पहले अपनी हिट मुद्रा में यही कहते पाये गये कि न उन्हें कोई पद चाहिये न कुर्सी चाहिये और न ही वह कभी चुनाव लड़ेंगे. अन्ना या बाबा कोई नये नहीं हैं जो देश को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके पास अभूतपूर्व जनसमर्थन है या यूं कहिये  पूरा देश उनके साथ है बावजूद इसके वे सत्ता के लोभी नहीं हैं. जय प्रकाश नारायण और महात्मा गांधी पहले ही खुद को सत्ता से दूर रखकर राजनैतिक बदलाव के लिये प्रण-प्राण से लगने वाले और सत्ता प्राप्ति के बाद मची किच-किच में प्राण गंवा देने वाले उदाहरण के रूप में देश के सामने हैं. लगता है अन्ना या बाबा अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय राजनीतिक संतों की गति से यही सन्देश प्राप्त कर सके कि जो सुदृढ़, ईमानदार और सद् चरित्र होते ही वे सत्ता से दूर रहते हैं. मेरी दृष्टि में आज यह  सोच उचित नहीं रह गई. गांधी अगर आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर नहीं विराजे तो देश कोई शीर्ष पर नहीं जा पहुंचा. बल्कि रसातल में चला गया. हालत यह हो गई है कि लोग आज यह कहते कतई नहीं हकलाते कि इस आजादी से बेहतर तो गुमाली थी.
अक्सर कहा जाता है कि अगर नेहरू की जगह पटेल या जिन्ना पहले प्रधानमंत्री होते तो भारत की तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मैं कहता हूं कि अगर भारत का पहला प्रधानमंत्री मोहनदास करमचंद्र गांधी होता तो निश्चित ही देश की तस्वीर कुछ और होती. आपातकाल के दौरान गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुये जयप्रकाश जी भी राजनीतिक संत की कोटि में जा बैठे. उन्होंने भी संघर्ष के बाद हाथ आयी सत्ता पर सवारी नहीं गांठी. नतीजा यह हुआ कि देश में पहले सत्ता परिवर्तन के परिणाम इस कदर शर्मनाक रहे कि लोग आज यह कहते पाये जाते हैं कि इससे तो बेहतर इमरजेंसी थी. यहीं अगर इमरजेंसी जंग के विजेता जयप्रकाश जी देश के प्रधानमंत्री बने होते तो मोरार जी के नेतृत्व वाली गैर कांग्रेसी सरकार कुंजड़ों की तरह लड़-भिड़कर तहस-नहस न हुई होती. किसी भी आंन्दोलनों में आम समर्थकों का विश्वास किसी नेता विशेष पर टिका होता है. उसके व्यक्तित्व और कृतित्व से आन्दोलन की भावना बनती है जिसके पीछे भीड़ चलती है. आजादी की लड़ाई में गांधी के पीछे था देश. ऐसे ही आपातकाल की लड़ाई में जयप्रकाश के साथ था देश और आज भ्रष्टाचार से जब जंग छिड़ी है तो देश अन्ना के साथ भी है और बाबा के साथ भी. आन्दोलनों के नायकों के पीछे सहनायकों की भी बड़ी भूमिका होती है. ये सहनायक नायक के प्रति तो पूर्ण समर्पण रखते हैं लेकिन उसके अतिरिक्त किसी और को अपना नेता मानने में उन्हें दिक्कत होती है.
गांधी और जयप्रकाश को दिल और दिमाग में रखकर निस्वार्थ भाव से देश सेवा के लिये निकलने वालों में सत्ता संचालन के प्रति निष्प्रभ भाव अब कोई सफल सूत्र नहीं रहा है. जिस व्यक्तित्व के प्रति सभी का समर्थन भाव हो नेता उसे ही होना चाहिये चाहे आन्दोलन का, चाहे सत्ता का. फिर एक बात और जब शेर की सवारी करनी नहीं तो जंगल में घूम-घूम कर शेर के सामने जाने का क्या मतलब. शेर आ जायेगा जिसे सवारी करनी आती है वो सवारी करेगा नहीं तो बाकी शेर ही करेगा.
यानी  शेर खा जायेगा और इस देश को सत्ता  ही खाये जा रही है. अन्ना जी, बाबा जी या और कोई अकुलाहट भरा चरित्र जो देश के किसी कोने में अंगड़ाई ले रहा हो तो वो भी आज की तारीख में संसद में बैठे हुये लोगों की इस चुनौती पर ताल ठोंके कि जब चुनाव आयेगा तो उस मैदान में भी देखा जायेगा.
फिर एक बात और भी है जो काफी हद तक सही भी है कि व्यवस्था में खामियां निकालना या उसे सत्ता बदलना ही केवल नेतृत्व प्रदान करना नहीं है. नेतृत्व का मतलब है संघर्ष के बाद बदलाव की सत्ता को सही रास्तों पर कसी लगाम वाली घोड़ी की तरह सरपट दौड़ाना.
अन्ना हजारे या रामदेव सरीखे लोग जब चुनाव न लडऩे की वचनबद्धता के साथ चुने हुए प्रतिनिधियों को उखाडऩे की बात करते हैं तो ये समझ नहीं आता कि ये लोग उखाडऩे के बाद करेंगे क्या... उगायेंगे क्या.... देश के भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्तिकारियों तुम्हें पूरी किसानी करनी होगी केवल खराब $फसल उखाड़ फेंकने से कुछ नहीं होगा. अगर नयी नस्ल के उन्नत बीज नहीं बोये तो....
प्रमोद तिवारी

खरीबात

मुकाबला पांच सौ बनाम सवा सौ करोड़ का है

जिन लोगों को लग रहा है कि भ्रष्टाचार पर मचा यह हाहाकार भी देर-सबेर तूफानी समन्दर की तरह थमेगा ही, वे भ्रम में हैं. किन्हीं स्थितियों में अगर यह हाहाकार थमा भी तो वह और बड़े तूफान की खामोशी होगी. 'भ्रष्टाचार' तो एक बहाना होगा. असली फैसला तो राजनीति बनाम जनता में 'सुप्रीमो'  कौन, इस पर होगा. लोकतंत्र में जो कुछ भी है सब जनता के लिये है. ये संसद, ये सचिवालय, ये न्यायालय, ये संविधान, ये कायदे, ये कानून, ये नियम आदि...इत्यादि सब कुछ. इन संस्थाओं में संसद की सर्वोच्चता का आधार भी यही है कि उसे सीधे-सीधे जनता आकार देती है. जनता की प्रतिनिधि होने के कारण संसद अन्य सभी संस्थाओं पर भी निगाह रखने का अधिकार रखती है. नैतिक रूप से भी और संवैधानिक रूप से भी. उसे आवश्यक जान पड़ता है वह कानून बनाती है, उसे आवश्यक जान पड़ता है वह कानून बदल देती है. लेकिन यह सब वह करती जनता के लिये ही है.
हाल के दिनों के घटनाक्रम में जनता एक कानून के रूप-स्वरूप को तय करने में दखलंदाजी कर रही है. यह दखलंदाजी संसद को नागवार गुजर रही है. संसद के अपने तर्क-वितर्क हैं और जनता की अपनी आवाज. जहां तर्क-वितर्क होंगे वहां कायदे कानून  की बात होगी.  और जहां 'आवाज' होगी वहां समय संगत परिवर्तन की मांग होगी. तर्क-वितर्क का आधार न्याय और संविधान के ठोस धरातल पर भी सम्भव हो सकता है जबकि जनता की आवाज तो हमेशा ही समय की बदलती धारा के संक्रमण से ही उपजती है. जो हमेशा ही एक नवप्रयोग के जोखिम की तरह ही है. आवाज लगाने वालों के लिये भी और आवाज सुनने वालों के लिये भी. चूंकि भारतीय लोकतंत्र ने अपनी एक अच्छी  खासी उम्र जी ली है. उसके पास लोकतांत्रिक मर्यादा निभाने का अपना अनुभव है, साथ ही लोकतंत्र और उसकी प्रणालियों में व्यवहारिक विरोधाभाषों से उपजी विसंगतियां भी हैं. लोकतंत्र की अब इससे और बड़ी विसंगति क्या हो   सकती है कि आज  देश की जनता दो तरह की आवाजें लगा रही है. एक संसद के भीतर से और दूसरी जंतर-मंतर रामलीला मैदान से. जनता दो तरफा बहस भी कर रही है. है न कमाल की असंगति भारतीय लोकतंत्र की. और  यह कोई एक दिन में नहीं पैदा हुई. ६० साल की अनदेखी का नतीजा है. संसद में जब जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर ५ साल के लिये भेजती है तो सेवक मुद्रा में उस प्रतिनिधि का काम होता है अपने क्षेत्र की आवाज को संसद में उठाना. जब जनता के चुने प्रतिनिधि अपना दायित्व बाखूबी नहीं निभाते हैं तो जनता की अनसुनी टाली गई आवाजें जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों में इकट्ठा  होने लगती हैं. संसद को समझना होगा कि जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों से जो आवाजें आ रही हैं वे अलग देश के लोगों की नहीं हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछले दिनों तुम्हें वोट देकर संसद में पहुंचाया है. लेकिन मौजूदा राजनीति उन्हें नकारे दे रही है. उसे विरोधी राजनीतिक दलों के धरना प्रदर्शनों और अन्ना व रामदेव के धरना प्रदर्शनों में कोई अन्तर नहीं लग रहा.... बस यही धोखा है.
चाहे अन्ना की हो या रामदेव की, इन्हें वर्तमान में देशवासियों की आवाज ही माना जाना चाहिये. जो भी इससे अलग इनकी और किसी तरह से व्याख्या या पहचान करेगा. समय आने पर खुद अपने हाथों धोखा खाने के लिये तैयार होगा. केन्द्र सरकार जिसके साथ आज सभी राजनीतिक पार्टियां भीतर-भीतर एक स्वर साधती हैं, उन्हें नहीं लगता कि अन्ना के अनशन और रामदेव के 'स्वांग' से देश का हर होशमंद नागरिक गुड़ चुका है. तभी तो सरकार को जंतर-मंतर पर केवल अन्ना की टीम दिखती है और रामलीला मैदान में रामदेव की मंडली.... उसने कहना भी शुरू कर दिया है कि भारत की जनता की असली आवाज संसद भवन के भीतर (चलने वाले जूते-चप्पल) हैं न कि दीवारों के बाहर मचने वाला शोर. अच्छा हो कि समय रहते जनता की असली आवाज की पहचान हो जाये. वरना फैसला कतई नहीं है. एक तरफ पांच सौ हैं और दूसरी तरफ सवा सौ करोड़.
प्रमोद तिवारी

शनिवार, 18 जून 2011

फेसबुकनामा

जूता-कथा

रोज-रोज जूता. जिधर देखिये उधर ही 'जूतेबाजी'. जूता नहीं हो गया, म्यूजियम में रखा मुगल सल्तनत-काल के किसी बादशाह का बिना धार (मुथरा) का जंग लगा खंजर हो गया. जो काटेगा तो, लेकिन खून नहीं निकलने देगा. बगदादिया चैनल के इराकी पत्रकार मुंतजऱ अल ज़ैदी ने जार्ज डब्ल्यू बुश के मुंह पर जूता क्या फेंका? दुनिया भर में 'जूता-मार'  फैशन आ गया . ... न ज्यादा खर्च. न शस्त्र-लाइसेंस की जरुरत. न कहीं लाने-ले जाने में कोई झंझट. एक अदद थैले तक की भी जरुरत नहीं. पांव में पहना और चल दिये. उसका मुंह तलाशने, जिसके मुंह पर जूता फेंकना है.
जार्ज बुश पर मुंतजऱ ने जूता फेंका. वो इराक की जनता के रोल-मॉडल बन गये. जिस कंपनी का जूता था, उसका बिजनेस घर बैठे बिना कुछ करे-धरे बढ़ गया. भले ही एक जूते के फेर में मुंतजऱ अल ज़ैदी को अपनी हड्डी-पसली सब तुड़वानी पड़ गयीं हों. क्यों न एक जूते ने दुनिया की सुपर-पॉवर माने जाने वाले देश के स्पाइडर-मैन की छवि रखने वाले राष्ट्रपति की इज्जत चंद लम्हों में खाक में मिला दी हो. इसके बाद तो दुनिया में जूता-कल्चर ऐसे फैला, जैसे जापान का जलजला. जिधर देखो उधर जूता. सबसे ज्यादा 'जूतम-जाती' की हवा चली दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सर-जमीं पर. यानि भारत में.
जहां तक मुझे याद है, पहला जूता देश के एक हिंदी अखबार के संवाददाता ने मौजूदा केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंवरम् के ऊपर एक प्रेस-वार्ता में फेंका गया. जूता फेंकने वाले पत्रकार की दलील थी कि, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजधानी दिल्ली में भड़के सिक्ख-दंगों की जांच में ढिलाई को लेकर गुस्से का इजहार है. मामले को तूल देने का मतलब पत्रकार या फिर विरोधी दलों की दुकान चलवाने के लिए मुद्दा तैयार कर देना था. सो न चाहकर भी बिचारे गृहमंत्री खून सा घूंट पी कर रह गये. पत्रकार को माफ कर दिया. गृहमंत्री को राजनीति करनी थी. सत्ता के गलियारों में कहीं एक अकेला जूता, आवाज न पैदा कर दे. ये सोचकर गृहमंत्री चुप्पी लगा गये. लेकिन जिस अखबार में पत्रकार नौकरी करता था, वहां राजनीति हो गयी.
पता नहीं देश के गृहमंत्री के मुंह पर फेंका गया जूता, कब अखबार और उसके मालिकों की ओर उडऩे लगे? और सरकार, अखबार मालिकों से कौन सा पुराना हिसाब इस जूते ही आड़ में पूरा या चुकता कर ले. इसलिए बिना देर किये, जूता फेंकने वाले पत्रकार को नौकरी से बर्खास्त करके 'बिचारे' की श्रेणी में ला दिया गया . बेरोजगार करके. सल्तनत भी खुश और अखबार मालिक भी. इससे न सल्तनत को सरोकार था. न अखबार के मालिकान को, कि आवेश में फेंके गये एक जूते का वजन पत्रकार और उसके परिवार पर कितना भारी पड़ेगा?
इसके बाद तो जिसे देखो, वो ही घर से जूता पहनकर निकलता और जिसका मुंह उसे अपने हिसाब-किताब से ठीक लगता, उसके मुंह पर फेंक आता. जूता नहीं हो गया, मानो घर में मरा हुआ चूहा हो गया. गृहमंत्री पर एक पत्रकार द्वारा जूता फेंकने की नौबत क्यों आई? जूता फेंकने के बाद मुद्दा ये उछलना चाहिए था. मगर मुद्दा उछला सिर्फ गृहमंत्री पर जूता फेंका गया. एक अखबार के पत्रकार ने फेंका. जिस वजह से फेंका, वो वजह आज भी वैसी ही है. गृहमंत्री भी वही हैं. संभव है कि आरोपी पत्रकार ने जूता भी संभालकर रख लिया हो.
इसके बाद देश के जाने माने योग-गुरु बाबा रामदेव की ओर जूता उछाल दिया गया. भरी सभा में. मामला जूते के इस्तेमाल का था . पैर में नहीं. किसी के मुंह पर . सो जूता, योग-गुरु, और जूते का मालिक सब सुर्खी बन गये. दो-चार दिन सबने चटकारे लेकर 'जूता-बाबा' कांड पर चटकारे लिये. बात में जूता, जूता-मालिक के पैर में पहन लिया गया. जूते का मालिक अपने घर में और बाबा अपने आश्रम में खो-रम गये. देश में दो-चार छोटे-मोटे और भी जूता-कांड हुए. ये अलग बात है कि बदकिस्मती के चलते वे उतनी सुर्खी पाने में कामयाब नहीं हो सके, जितने बाकी या पहले हो चुके जूता-कांडों को चर्चा मिली.
अब फिर देश के एक कद्दावर नेता को भीड़ के बीच जूतियाने की 'बंदर-घुड़की' दी गयी. मारा या उनकी ओर जूता उछाला नहीं गया. शायद ये सोचकर कि बार-बार जूता फेंकने से, जूता और जूते की मार का वजन कम हो जाता है. कुछ दिन पहले ये बात भारत आये इराकी पत्रकार मुंतजऱ अल ज़ैदी ने मुझे भी इंटरव्यू के दौरान सुनाई और समझायी थी. मुंतजऱ साहब की दलील थी, कि बार-बार, और हर-किसी पर जूता फेंकने से, जूते की चोट कम हो जाती है. या यूं कहें कि रोज-रोज जूता फेंकने से जूते की 'इज्जत' को ठेस पहुंचती है.
इस बार जूते के शिकार होते होते बचे कद्दावर नेता जनार्दन द्विवेदी. देश की राजधानी दिल्ली में. और जूता दिखाने वाला था सुनील कुमार नाम का कथित पत्रकार. कथित इसलिए कि देश की पत्रकार जमात ने ही इस बात से इंकार कर दिया कि वो पत्रकार भी है. पत्रकार जमात की दावेदारी के मुताबिक हमलावर एक शिक्षक है. जूता उठाने वाला कौन है? इससे ज्यादा जरुरी सवाल ये है कि उसने जूता उठाया क्यों? उसने अपनी मर्जी से जूता उठाया, या फिर किसी विरोधी या असंतुष्ट ने उसे उकसाकर, नेता जी के ऊपर जूता सधवाया. सवाल ये भी पैदा होता है कि जब जूता उठा लिया, तो फिर उछाला, या नेता जी पर जड़ा क्यो नहीं? जो भी हो. न तो मैं जूता फेंकने वाला हूं. न ही किसी को उकसाकर, किसी और पर जूता फिंकवाने वाला. चाहे कोई किसी पर फेंके और किसी के मुंह पर जूता पड़े. बे-वजह फटे में भला टांग क्यों अड़ाऊं? हां इतना जरुर लग रहा है, कि अगर देश में इसी तरह जूते का बेजा इस्तेमाल होता रहा तो, वो दिन दूर नहीं होगा, कि आपके पैर को अपना जूता कितना ही भारीलगे, लेकिन जिसके मुंह पर जूता फेंका जायेगा, उसके मुंह के लिए जूते का वजन कम हो जायेगा. मैं तो खुले दिल-ओ-दिमाग से यहीं कहूंगा कि जूते का हर समय इस्तेमाल ठीक नहीं. वरना एक दिन वो आ जायेगा, कि आज जिस जूते से इंसान खौफ खाता है. आने वाले कल में वही जूता अपनी 'इज्जत' बचाने की लड़ाई लडऩे के लिए विवश हो जायेगा. और एक दिन वो भी आ जायेगा जब देश की 'जूता-बिरादरी' के अस्तित्व की लड़ाई लडऩे वाले संगठन गली-कूचों में पैरोडी गाते फिर रहे होंगे- जूते को न उठाओ, जूते को रहने दो, जूता जो उठ गया तो...जूता कहीं का न रह जायेगा....1           
 अरविन्द त्रिपाठी

फेसबुकनामा

फेसबुक में आई और छाई
'सिल्ट वार्ता'

कई  वर्षों पूर्व हेलो कानपुर के एक अंक में 'सिल्ट' की महिमा पर एक व्यंगात्मक लेख प्रस्तुत किया गया था. जो आज के शहर के हालातों को देखते हुए मौजूं हो चला. तब ये और सुखिऱ्यों का हिस्सा बना जब इसे आजकल की नव-तकनीक यानी फेसबुक का प्रयोग कर के आप सभी की नजर किया गया.मूल लेख एक बार फिर आपके सामने है -
'मैंने चारों तरफ नजर घुमाई , मुझे हर कहीं सिल्ट नजर आई.' सिल्ट क्या है.. मुझसे एक उत्सुक छात्र ने पूंछा. मैंने कहा, 'सिल्ट नाले नालियों में जमा गन्दगी है, जिससे शहर की सीवर लाइनें चोक हो जाती हैं और बरसात में शहर नरक हो जाता है.' उत्सुक छात्र बोला रहे न आप सिल्ट के सिल्ट. इतने बड़े हो गए अभी तक सिल्ट का मतलब नहीं जान पाए. सिल्ट नाले... नालियों की गन्दगी नहीं है ,ये नगर निगम और जलसंस्थान की सालाना बंदगी है. सिल्ट टेंडर है,सिल्ट कमीशन है, सिल्ट ठेका है, सिल्ट मौका है. सिल्ट सभासद की दारू है, सिल्ट इंजीनियरों का मुर्गा है, अधिकारियों का अधिकार है. सिल्ट केवल सिल्ट नहीं समूची सरकार है. मैंने कहा नहीं बेटा सिल्ट शहर की गन्दगी हटाने के बीच बहुत बड़ा रोड़ा है. वो बोला नहीं सर, सिल्ट मिस्टर अरोरा है. इसी सिल्ट ने उसका जीवन संवारा है.पहले उसके पास साईकिल नहीं थी अब कर है ,बंगला है और बीबी के लिए जेवरातों का बड़ा पिटारा है. ये सिल्ट, सिल्ट नहीं शहर की आत्मा है. जैसे आत्मा अजर अमर है , वैसे ही सिल्ट को न तो कोई नाले से हमेशा के लिए निकाल सकता है और न ही हमेशा के लिए बना रहने दे सकता है. जैसे आत्मा का वस्त्र बदल जाता है, वैसे ही सिल्ट का जमादार बदल जाता है. एक जमादार उसे नाले में बहाता है दूसरा उसे पुन: नाले में डाल देता है. उत्सुक छात्र के जागरूक उत्तर के बाद मैंने चारों तरफ नजर घुमाई मुझे हर कहीं सिल्ट नजर आई.'
इसी बीच देश में एक बड़ी घटना घट गयी है.  वैसे तो हम सभी हर बड़ी घटना के लिए तैयार रहने लगे हैं. गांधी की ह्त्या से शुरू हुआ सिलसिला निगमानंद की असामयिक मौत तक जारी है. हम सभी बस. 'अरे ....' करके चुप रह जाते हैं. आता हूँ, उस खास घटना पर नहीं तो आप सभी कहेंगे, क्या आप भी 'सिल्ट' की ही तरह से फ़ैल जाते हो? तो मित्रों, विगत दिनों वर्धा-आश्रम से बापू का चश्मा खो गया है. ये बात भी फेसबुक में सुर्खियाँ बटोर रही है. इसी बीच प्रमोद तिवारी जी की 'सिल्ट' आ गयी. वैसे वो चश्मा भी खोज रहे थे. उन्होंने सुझाया था की अब देश में नाक और कान वाले तो रहे नहीं अत: चश्मा देश से बाहर चला गया होगा.
तभी 'सिल्ट' की समस्या पर आर. विक्रम सिंह जी ने कहा 'प्रमोद जी, सिल्ट उठाने का नगर-संयोजक आप को बनाया जाता है. आप समिति बनाइये और उठ्वाइये इसे. मैंने इस स्थिति में ये जान लिया की जरूर चश्मा इन्हीं के पास है, क्योंकि चश्मा लगाने के लिए इनके पास नाक और कान हैं, यानी वो मान और सक्रियता है, जिससे समस्या को समझा जा सके. अन्यथा देश में वैसे भी अपमान योग चल रहा है. अब देखो बाबा को, वो रामलीला मैदान, दिल्ली में अपना अपमान करा कर लौटा है. हवाई जहाज से चढ़कर देश-देश घूमकर अब वो भी अपना और अपमान कराएगा. प्रमोद जी ने भी आगे बढ़कर सिल्ट उठाने की जिम्मेदारी लेने में अपनी सक्षमता दिखाई. प्रज्ञा विकास ने इस 'सिल्ट' को बेहतरीन सिल्टमय प्रस्तुति कहा. व्यंग्यकार राजेन्द्र पंडित ने भी इसे सराहा. हद तो तब हो गयी जब इस हलकी-फुलकी फुहार के बीच कुछ फेसबुकिये साथी अपने घर और गली का पता बताने लगे. धन्य हो- 'फेसबुक की सिल्ट-गाथा'.1
अरविन्द त्रिपाठी

चौथा कोना

 लादेन की पुत्रवधू को बीवी बना दिया

मै न्यूज़24 का नियमित दर्शक हूँ और चैनल के कुछ पत्रकारों से भी मेरी दोस्ती है. यूज़24 पर गलतियाँ होते रहती है. लेकिन इस बार ब्लंडर हुआ है. आश्चर्य है कि इस ब्लंडर को किसी ने नहीं पकड़ा और दो बार कार्यक्रम को उसी ब्लंडर के साथ चलाया गया.
बहरहाल आपको कार्यक्रम में हुए ब्लंडर के बारे में बतलाते हैं. न्यूज़24 ने ओसामा बिन लादेन और उसकी बीवियों से संबंधित स्पेशल रिपोर्ट चलायी. स्टोरी की हेडिंग कुछ इस तरह से थी -
स्न हम तुम एक कमरे में बंद थे
स्न और चाभी खो गयी .
स्न प्रोमो और स्लग का अंदाज कुछ ऐसा था -
स्न जब लौटता था लादेन
स्न किसी भी लड़ाई से
स्न तो बंद हो जाता था कमरे में
स्न अपनी बीवी के साथ ..........
यहाँ तक तो सब ठीक था. लेकिन ओसामा बिन लादेन के साथ उसकी बीवी के तौर पर जिस महिला की तस्वीर लगायी गयी थी वह दरअसल ओसामा बिन लादेन की बीवी की तस्वीर नहीं है. यह गलत तस्वीर बाकायदा आधे घंटे तक दिखाई गयी.
ओसामा की तस्वीर के साथ न्यूज़24 के महान प्रोड्यूसर ने किसी दूसरी महिला की तस्वीर लगा दी. यह महिला कोई और नहीं ओसामा बिन लादेन के बेटे 'ओमर लादेन' की ब्रिटिश पत्नी जेन फेलिक्स ब्राउन है. इस नाते वो ओसामा बिन लादेन की पुत्रवधू हुई. लेकिन न्यूज़24 के प्रोड्यूसरों ने पुत्रवधू को बीवी में तब्दील कर दिया और धड़ल्ले से कार्यक्रम को चलाते रहे. पहले 9
बजे प्राईम टाइम में कार्यक्रम चला. फिर इसका रिपीट टेलीकास्ट दूसरे दिन 3.30 बजे किया गया.
लेकिन दो बार कार्यक्रम दिखाने के बावजूद किसी ने इस ब्लंडर को नहीं पकड़ा. एक दर्शक के नाते मुझे न्यूज़24 की इस हालत पर अफ़सोस भी हो रहा है
और तरस भी आ रहा है. मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि सुनील झा जैसे लोग जिन्हें अनुराधा प्रसाद ने चैनल की कमान सौंप रखी है वो क्या कर रहे हैं?
न्यूज़24 पर गलतियाँ पर गलतियाँ हो रही है और जिनकी जि़म्मेदारी बनती है उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही.1
हरि शंकर शाही

शहर में बनता पानी का बाज़ार

देश भर में घटते पेयजल से अब अपना शहर भी अछूता नहीं रहा. यद्यपि हमारी पहचान गंगा जैसी राष्ट्रीय नदी के किनारे बसे शहर के बाशिंदों के रूप में है. पर अब वही जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी गंगा हमारी प्यास को तृप्त करने में सक्षम साबित नहीं हो रही है. अंधा-धुन्ध बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं. गंगा में घरेलू सीवेज और औद्योगिक कचरा के बहाव को रोकने की कोई नीति  अब तक नहीं बन पायी है. आज गंगा सहित सभी नदियों में प्रदूषण की मात्रा इतनी घातक हो गयी है की इन नदियों का पानी पीने और खेती दोनों कामों के लिए अनुपयुक्त हो गया है. इसके  परिणामस्वरूप आम जनता की जरूरतें भूगर्भ के जल पर बढ़ती जा रही हैं. जिसके  रासायनिक  संघटन में परिवर्तन होने लगा है. अब इस पानी के अधिकाधिक दोहन के कारण जल-स्तर में गिरावट और रासायनिक तत्वों का अतिक्रमण अर्थात प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. सहना आज़मी से लेकर हेमा मालिनी तक अब सभी शुद्ध जल के अर्थशास्त्र को समझ कर उसके विज्ञापनों में अपने चमकते चेहरों के साथ उपस्थित हैं.
    कानपुर शहर के पेयजल की जरूरतों को पूरा करने में सरकारी जल-संस्थान अक्षम साबित हो रहा है. पनकी से आने वाली नहर में आने वाले पानी की दुर्दशा आज आम शहरी के सामने आ चुकी है. अंग्रेजों के समय की पाइप लाइनें सीवर सहित पेयजल उपलब्ध कराती हैं इसलिए अब कन्पुरिओं ने उस पानी पर विशवास खो दिया है. गरीब से गरीब शहरी भी अब पीने के लिए हैंडपंप के पानी पर अभी अपना विशवास बनाए हुए है. आर्थिक रूप से सक्षम लोग आज निजी बोरिंग करवा कर सब-मर्सिबल के माध्यम से घर, सड़क और अपना गला तर कर रहे हैं.  वर्षा जल संचयन की प्रवृत्ति की संस्कृति के अभाव और निरंतर तालाबों में अतिक्रमण के कारण बढ़ते जल-दोहन का प्रभाव निश्चित ही आने वाले समय में इन आम और ख़ास सभी पर पडेगा. राजेन्द्र सिंह 'जल-पुरुष' का कहना है भारत में एक भी शहर में कोई नदी नहीं बहती है बल्कि नाला बहता है. दिल्ली में यमुना नाम का , लखनऊ में गोमती नाम का और कानपुर में गंगा नाम का नाला बहता है. सरकारें इसी बहाने हम से हमारा पानी हमारे होठों से छीन लेना चाहती हैं. देश में बढ़ता बोतल-बंद जल-व्यवसाय को वे आगामी ख़तरा बताते हैं. उनकी इस बात की पुष्टि तब हो जाती है जब कानपुर के एयरफोर्स कैम्पस तक में सरकार औने सैनिकों और अधिकारिओं को पीने के लिए शुद्ध जल मुहैया नहीं करवा पा रही है. या इसे यूं कहें की इन्हें सरकार के द्वारा दिया जाने वाला पेयजल अब शुद्ध नहीं महसूस होता है. उनका  अब सरकारी नलके के पानी से अपना विशवास उठ गया है. इस बारे में शरद कुमार त्रिपाठी का कहना है  'हमारी प्यास का अंदाज़ भी अलग है,कभी दरयाओं को ठुकराते हैं तो कभी आंसू  तक पी   जाते हैं.'1           
  हेलो संवाददाता

बैराज बना 'हादसा प्वाइंट'


कानपुर की प्यास बुझाने के लिए गंगा नदी पर  गंगा बैराज बनाया गया था. किसी को ये उम्मीद नहीं थी , एक दिन ये जान को गंवाने जान लेने और चोट-चपेट का केंद्र स्थल बन जाएगा. नव-युवक लड़कों में तेज गाड़ी चलाने और करतबबाजी का खेल इस बैराज में अब आम हो चला है. इसके निर्माण के समय ही तेज मोटरसाइकिल पर सवार एक लड़के की रस्सी से फंसकर जान गंवाने की घटना हुयी थी. तब से कल तक इस स्थान पर ऐसे हादसों की रोक-थाम के सारे प्रयास अब तक नाकाफी साबित हुए हैं. बैराज के आगे कानपुर की तरफ गंगा का तेज बहाव अक्सर गंगा नहाने आने वालों की जान का दुश्मन बनता रहा है. विगत दिनों गंगा दशहरा के शुभ अवसर पर पुलिस और जल-रक्षकों के द्वारा बरती गयी  कर्तव्यों की कोताही  का परिणाम कई जाने गंवाना रहा.
जल-संस्थान के महाप्रबंधक रतन लाल कहते हैं की जब अभी तक निर्माण पूरा नहीं हो पाया है तो आम नागरिकों का यहाँ आना-जाना खतरनाक हो सकता है, जैसा की बार-बार होने वाली घटनाओं से साबित हो रहा है. यद्यपि निर्माण की अवधि में होने वाली देरी की वजह और तय समय-सीमा में निर्माण न करवा पाने की अक्षमता के बारे में वे चुप्पी साध जाते हैं और हादसों के लिए कानपुर प्रशासन पर जिम्मेदारी धकेल देते हैं. वास्तव में यहाँ कम उम्र के छात्रों  के द्वारा किया जाने वाला प्रतिदिन की धमाचौकड़ी को स्थानीय पुलिस थाना के द्वारा रोकना चाहिए परन्तु प्रेमी-जोड़ों और नियमित मछली पकड़ से होने वाली आमदनी से आत्ममुग्ध स्थानीय नवाबगंज पुलिस इन सभी हादसों को नियंत्रित करने के लिए कोई कदम नहीं उठा पायी है. और ये गंगा बैराज हादसों का केंद्र बनता जा रहा है.
अभी कल ही दोस्तों के साथ बैराज पर गंगा नहाने गये सात युवक तेज धारा में फंसकर डूब गए। साथियों की चीख-पुकार सुनकर पानी में कूदे इलाके के गोताखोरों ने छह युवकों को तो किसी तरह बहाव से बाहर निकाल लिया, लेकिन काफी तलाश के बाद भी एक युवक का रात तक पता नहीं चल पाया। नौबस्ता थानाक्षेत्र में मछरिया निवासी 25 वर्षीय आशिक अली जरीब चौकी स्थित एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था। शुक्रवार को कंपनी में छुट्टी होने के कारण वह साथी कर्मचारियों प्रीतम, बच्चा, शनि, धीरज, अजय व अनीस आदि आठ लोगों के साथ बैराज पर गंगा नहाने गया था। बताते हैं सभी युवकों ने पहले शराब पी, इसके बाद गंगा में नहाने कूद पड़े।इन सातों में से छ: को तो बचा लिया गया किन्तु अभी तक एक  का पता नहीं चल पाया था. हद तो तब ये है की प्रदेश सरकार इस क्षेत्र को बोट क्लब और ओपन थियेटर बनाने की योजना पर भी काम कर रही है.1
बैराज में अवैध मत्स्य-आखेटन
गंगा बैराज में  एक लम्बे अरसे से प्रदेश के मछली के व्यापारिओं का स्थानीय मछुआरों के साथ मिली-भगत करके पुलिस के संरक्षण में मत्स्य-आखेटन का खेल चल रहा है. इसी मछली पकडाई के व्यापार में कटरी में वर्चस्व की लड़ाई में गैंगवार जारी रहती है. कभी एक गुट हावी होता है तो कभी दूसरा गुट. शहर के नामी अखबारों के क्राइम रिपोर्टर भी  इस काम में शामिल  हैं. एक तरफ गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, जिसके तहत मत्स्य आखेटन पूरी तरह से प्रतिबंधित है. सरकार गंगा में डालफिन जैसी मछलियों को संरक्षित करने के लिए 'प्रोजेक्ट' ला रही है तो दूसरी तरफ दूसरी तमाम स्थानीय प्रजातिओं को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए चलाये जा रहे प्रक्रम की साजिश को संरक्षण दे रही है.
मुख्य संवाददाता

खरीबात

 जरूरत क्रान्ति की पूरी किसानी की

अन्ना हजारे और उनकी टीम पर एक व्यंग्य कसा जा रहा है कि पूरा देश साथ है तो  चुनाव लड़कर संसद में क्यों नहीं आते? बाबा रामदेव भी पिटने से पहले अपनी हिट मुद्रा में यही कहते पाये गये कि न उन्हें कोई पद चाहिये न कुर्सी चाहिये और न ही वह कभी चुनाव लड़ेंगे. अन्ना या बाबा कोई नये नहीं हैं जो देश को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके पास अभूतपूर्व जनसमर्थन है या यूं कहिये  पूरा देश उनके साथ है बावजूद इसके वे सत्ता के लोभी नहीं हैं. जय प्रकाश नारायण और महात्मा गांधी तो खुद को सत्ता से दूर रखकर राजनैतिक बदलाव के लिये प्रण-प्राण से लगने वाले और सत्ता प्राप्ति के बाद मची किच-किच में प्राण गंवा देने वाले उदाहरण के रूप में पहले से ही देश के सामने हैं. लगता है अन्ना या बाबा अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय राजनीतिक संतों की गति से सही सन्देश नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं. गांधी अगर आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर नहीं विराजे तो देश कोई शीर्ष पर नहीं जा पहुंचा. बल्कि रसातल में चला गया.
अक्सर कहा जाता है कि अगर नेहरू की जगह पटेल या जिन्ना पहले प्रधानमंत्री होते तो भारत की तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मैं कहता हूं कि अगर भारत का पहला प्रधानमंत्री मोहनदास करमचंद्र गांधी होता तो निश्चित ही देश की तस्वीर आज  कुछ और होती. आपातकाल के दौरान गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुये जयप्रकाश जी भी राजनीतिक संत की कोटि में जा बैठे. उन्होंने भी संघर्ष के बाद हाथ आयी सत्ता पर सवारी नहीं गांठी. नतीजा यह हुआ कि देश में पहले सत्ता परिवर्तन के परिणाम इस कदर शर्मनाक रहे कि लोग आज यह कहते पाये जाते हैं कि इससे तो बेहतर इमरजेंसी थी. यहीं अगर जंग के विजेता जयप्रकाश जी देश के प्रधानमंत्री बने होते तो मोरार जी के नेतृत्व वाली गैर कांग्रेसी सरकार कुंजड़ों की तरह लड़-भिड़कर तहस-नहस न हुई होती. किसी भी आंन्दोलनों में आम समर्थकों का विश्वास किसी नेता विशेष पर टिका होता है. उसके व्यक्तित्व और कृतित्व से आन्दोलन की भावना बनती है जिसके पीछे भीड़ चलती है. आजादी की लड़ाई में गांधी के पीछे था देश. ऐसे ही आपातकाल की लड़ाई में जयप्रकाश के साथ था देश और आज भ्रष्टाचार से जब जंग छिड़ी है तो देश अन्ना के साथ भी है और बाबा के साथ भी. आन्दोलनों के नायकों के पीछे सहनायकों की भी बड़ी भूमिका होती है. ये सहनायक नायक के प्रति तो पूर्ण समर्पण रखते हैं लेकिन उसके अतिरिक्त किसी और को अपना नेता मानने में उन्हें दिक्कत होती है. आन्दोलन चाहे छोटा हो या बड़ा, सबका ढांचा तकरीबन एक सा ही होता है. आजादी के बाद जब गांधी ने सत्ता से दूरी बनायी तो देश बंट गया. जिस नेता के पीछे आजादी पूर्व सभी के सर नत थे आजादी के बाद उसे गोली मार दी गयी. कुल मिलाकर मैं कहना यह चाहता हूं कि गांधी और जयप्रकाश को दिल और दिमाग में रखकर निस्वार्थ भाव से देश सेवा के लिये निकलने वालों में सत्ता संचालन का निष्प्रभ  भाव कोई सफल सूत्र नहीं है. जिस व्यक्तित्व के प्रति सभी का समभाव हो नेता उसे ही होना चाहिये चाहे आन्दोलन का चाहे सत्ता का.
फिर एक बात और जब शेर की सवारी करनी नहीं तो जंगल में घूम-घूम कर शेर के सामने जाने का क्या मतलब. शेर आ जायेगा जिसे सवारी करनी आती है वो सवारी करेगा नहीं तो बाकी शेर के भोजन ही तो बनेंगे.
यानी सत्ता उन्हें खा जायेगी और इस देश को सत्ता  ही खाये जा रही है. अन्ना जी, बाबा जी या और कोई अकुलाहट भरा चरित्र जो देश के किसी कोने में अंगड़ाई ले रहा हो तो वो भी आज की तारीख में संसद में बैठे हुये लोगों की इस चुनौती पर ताल ठोंके कि जब चुनाव आयेगा तो उस मैदान में भी देखा जायेगा. फिर एक बात और भी है जो काफी हद तक सही भी है कि व्यवस्था में खामियां निकालना या उसे बदलना ही केवल नेतृत्व प्रदान करना नहीं है. नेतृत्व का मतलब है  संघर्ष के बाद सत्ता को सही रास्तों पर कसी लगाम वाली घोड़ी की तरह सरपट दौड़ाना.
अन्ना हजारे या रामदेव सरीखे लोग जब चुनाव न लडऩे की वचनबद्धता के साथ चुने हुए प्रतिनिधियों को उखाडऩे की बात करते हैं तो ये समझ नहीं आता कि लोग उखाडऩे के बाद रोपेंगे क्या... उगायेंगे क्या.... देश के भ्रष्टाचार विरोधी क्रान्तिकारियों तुम्हें पूरी किसानी करनी होगी केवल खराब $फसल उखाड़ फेंकने से कुछ नहीं होगा अगर नयी नस्ल के उन्नत बीज नहीं बोये तो....1
प्रमोद तिवारी

फिर 'खूनी सड़क' बनाने की तैयारी

 किसी भी विकसित सड़क के दोनों तरफ  फुटपाथ और फिर उसके साथ नाली होती है . किसी भी ख़ास सड़क के विकास के लिए इतनी ही दरकार होती है. यदि संभव हो सके तो इन सभी के साथ कुछ वृक्षारोपण होता है. जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण योजना के तहत  कानपुर में हुए विकास की गंगा में कानपुर दक्षिण भी नहाया है. यहाँ भी कानपुर के पॉश मुहल्लों की तरह सभी जगह खुदी सड़कें देखकर यहाँ के बाशिंदों की आत्मा को शान्ति मिलती है. बहुजन समाज पार्टी की सरकार होने के बावजूद शहर में आये इस समाजवाद से सभी समान रूप से त्रस्त हैं.
 अब बात करते हैं, एक ख़ास सड़क की. यशोदा नगर से टाट-मिल चौराहे तक की सड़क, जिसे कुछ साल पहले तक 'खूनी सड़क' कहा  जाता था. बड़े-बड़े गड्ढे और उनके बीच तैरते से चलते ट्रक, बस, टेम्पो,  लोडर, हाथ-ठेला और भैंसा-ठेला के बीच से  निकलने का प्रयास करते दोपहिया वाहन . पैदल यात्रिओं के लिए कोई स्थान नहीं था. उस समय इस सड़क से यात्रा करने वाले लोग  बिना किसी ख़ास तैयारी के मौत के गाल में समाते जाते थे. प्रति दिन होने वाले हादसों के कारण इस सड़क प्रत्येक समाचारपत्र इस सड़क की रिपोर्टिंग की ख़ास तैयारी करता था. समय बदला और देश-प्रदेश का निजाम भी बदला. सड़क के भी दिन बदले.पर पूरी तरह से नहीं. ढाई सौ फीट चौड़ी सड़क में मुख्य मार्ग के अतिरिक्त दोनों तरफ नाली,फुटपाथ,ग्रीनबेल्ट, फिर नगर निगम का नाला और फिर दोनों तरफ सर्विस लेन की योजना थी.   नयी विकसित सड़क में मुख्य सड़क के बाद फुटपाथ भी बनाया गया.पर नाली गायब हो गयी. सड़क के स्तर पर ही बने फुटपाथ को ट्रक मालिकों और ट्रांसपोर्ट मालिकों ने ट्रक पार्किंग बना रखा है.
पहली फोटो शारदा गेस्ट  हॉउस  के ठीक सामने की है. इस जगह पर सदा से जल-भराव रहा है. इस जगह से यशोदा नगर बाईपास तक की कुल एक किलोमीटर तक की सड़क के निर्माण और विकास  में  इसका कोई ध्यान नहीं दिया गया. इसी तरह से दूसरी फोटो इसी सड़क में बगाही कूड़ाघर के विपरीत तरफ  की है. यहाँ भी यही समस्या है. ट्रांसफार्मर लगभग जमीन पर ही रखा है और चारों तरफ से पानी से घिरा है.इस प्रकार जल-भराव और यातायात के दबाव के चलते इस सड़क को फिर से 'गड्ढा सहित खूनी सड़क' में तब्दील करने की साजिश है, जिससे एक बार फिर टेंडर और ठेकेदारी के द्वारा आम जनता की जेब का पैसा बर्बाद किया जा सके. मुख्य सड़क का जलभराव प्रशासनिक अधिकारिओं की निष्क्रियता का परिचायक है.लाखों रुपयों से बनी इस सड़क की देख-रेख के जिम्मेदार नगरनिगम के जोन-3 के प्रभारी अनूप बाजपेयी ने इस समस्या से अनभिज्ञता जताते हुए, इस समस्या को दिखवाने का आश्वासन दिया है.1
 हेलो संवाददाता

शुक्रवार, 17 जून 2011

लोकतन्त्र की हत्या

यह विषय एकदम से ध्यान खींचता है, किसी उपन्यास के शीर्षक की तरह। अब सोचना यह है कि लोकतन्त्र नामक यह चिडिय़ा भारत में कब और कहां से आई। यह सोच क्रियात्मक स्तर पर परतन्त्र भारत में शासन प्रणाली सिखाने के उद्देश्य से अंग्रेज शासकों द्वारा लगभग 1919 ई0 में रोपी गई। चुनाव हुए। विधायिकाएं निर्मित हुईं। विभिन्न-विभिन्न विभागों का वितरण हुआ। मेरे पिता राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी थे, उन्होंने तत्कालीन एक मंत्री महोदय, सर के0वी0 रेड्ड का एक कथन कभी मुझे दिखाया, जिसमें अंकित था- was a minister for development without forest. I was a minister for agriculture minus irrigation ……… (& so on & so forth). इतना ही मुझे आज याद है। इस तरह से लोकतन्त्र की नींव भारत में पड़ती है, जो उत्तरोत्तर विकसित होते -होते आज इस अवस्था में है कि उसकी हत्या पर विचार करना पड़ रहा हैं।
अब जहाँ तक हत्या की बात है तो देखना पड़ेगा कि स्थितियॉं आखिर क्या रही हैं-
1. 4 जून 2011 की रात्रि रामलीला मैदान पर सोते हुए जन समुदाय पर एकाएक अश्रु गैस और लाठी चार्ज लोकतन्त्र की हत्या का प्रयास था याकि उसकी हत्या वास्तव में हो ही गई।
2. क्या इससे पहले भी कभी लोकतन्त्र की हत्या या हत्या के प्रयास हुए हैं।
3. याकि नित्य प्रति उसका गला घोटा जा रहा है और उसके साथ बलात्कार के प्रयास हो रहे हैं।
अब दिक्कत यहाँ पर संवेदनशीलता की आयेगी कि हमारी ग्राह्यता कैसी है और दूसरा क्या लोकतन्त्र इतना बेशर्म है कि बार-बार मरकर भी जिन्दा हो जाता है, या कि उसकी नाभि में भी कहीं कोई अमृत तत्व विद्यमान है जो उसे मरने नहीं देता बल्कि अश्वत्थामा की तरह अभिशप्त जीवन जीने को विवश किये हुए है।
मुझे तो लगता है कि स्वतन्त्र भारत के शुरूआती दशकों में लोकतन्त्र को कभी गम्भीरता से लिया ही नहीं गया। भारत के आम चुनाव जनता के लिए ढ़ोल-ताशे बजाने वाले एक उत्सव की तरह रहे, जिसमें टिकुली, बिंदी, धोती, बिल्ले साड़ी, कंबल और वारुणि का खुलेआम वितरण हुआ। जनता स्वतन्त्रता और स्वराज्य के हैंगओवर में रही, और उसने लगभग यह मान ही लिया कि जिन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में हमारा नेतृत्व किया है, हमारे हितों की चिन्ता (जो कि वास्तव में उन्हें करनी ही थी) करते हुए वे ही शासन के अधिकारी हैं और अच्छा शासन चलाते रहेंगे। यह तो उसी शासक समूह से कुछ प्रभावशाली लोग सत्ता का मोह त्याग कर विपक्षी के रूप में लामबंद होकर इस लोकशाही को प्राणवायु देते रहे अन्यथा स्थितियां और भी बदतर होतीं। इनमें डॉ0 राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव और जय प्रकाष नारायण के नाम अग्रिम पंक्तियों में लिखे जाने योग्य हैं।
होष संभालने से लेकर आज तक जन प्रतिनिधियों का चरित्र जो हमने देखा- समझा है, आपसे साझा करते हैं:-
1. कानपुर मे कभी हमारे लोकप्रिय सांसद रहे एस0एम0 बनर्जी के बारे में विख्यात है कि वे अपने घर में दाल-भात या खिचड़ी हर वक्त तैयार रखते थे और जनता के आने पर उसमें हाथ डुबाकर बाहर निकलते थे।
2. भारत-पाक युद्ध 1965 के दौरान ताशकन्द समझौते के समय तत्कालीन प्र0म0 लालबहादुर शास्त्री का दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में असामयिक निधन क्या दर्शाता है।
3. प्र0म0 श्रीमती गांधी द्वारा 1975 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बहुचर्चित निर्णय का अनुपालन न कर देश पर आपातकाल थोपने का निर्णय आखिर कैसे परिभाषित किया जायेगा।
4. देवकान्त बरूआ का यह कहना कि इन्दिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज़ इन्दिरा क्या लोकतन्त्र के मुंह पर तमाचा नहीं था?
5. सांसदों का प्रश्न पूंछने के लिए रिश्वत लेना क्या लोकतन्त्र को मजबूत कर रहा है ?
6. एक राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का टी0वी0 स्क्रीन पर रिश्वत लेते हुए यह कहना कि पैसा भगवान नहीं है लेकिन भगवान से कम भी नहीं है क्या कम शर्मनाक है?
7. उत्तरांचल की मांग को लेकर दिल्ली जाते सीधे-साधे निहत्थे प्रदर्शन कारियों पर खटीमा में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव की शह पर न केवल लाठी चार्ज हुआ बल्कि भोली-भाली ग्रामीण स्त्रियों के साथ बलात्कार भी हुआ, जिस पर श्री यादव ने कहा था कि यदि यह प्रमाणित हो जाता है तो वह हमेशा के लिए राजनीति छोड़ देगें। बाद में प्रमाणित होने पर उन्होंने सिर्फ एक पंक्ति की माफी मांगी, संन्यास का संकल्प ओझल हो गया। निर्वाचित जन प्रतिनिधि का यह आचरण लोकतन्त्र की हत्या था या नहीं?
8. इसी प्रकार एक और निर्वाचित मुख्यमंत्री उच्चतम न्यायालय में एक विवादित ढांचे की सुरक्षा का आश्वासन (शपथ पत्र) देकर जब उसे ध्वस्त हो जाने देता है और फिर अपने प्रदेश को जलता हुआ छोड़कर तत्काल त्यागपत्र देकर पलायन कर जाता है, इससे ज्यादा बेहूदगी और लोकतन्त्र को मर्माहत करने वाली बात और क्या हो सकती है भला ?
9. अपने चुने जाने का इतना घमंड, कि विनम्रता की जगह स्कैम दर स्कैम में लिप्त सांसद और मंत्री, ऐसा लगता है कि लोकशाही का वास्तविक मर्म जानते ही नहीं, वे उसे प्रतिष्ठित होते देखना ही नहीं चाहते अन्यथा निरन्तर कांग्रेस पार्टी में परिवारवाद का रोना रोने वाले मुलायम सिंह यादव अभी आठवीं बार समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। उनके भाई शिवपाल सिंह, प्रो0 रामगोपाल, पुत्र अखिलेश और पुत्रवधू डिम्पल सभी पार्टी में समायोजित होकर पद लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
बसपा में प्रारम्भ से ही पहले मान्यवर कांशीराम और अब मा0 बहन सुश्री मायावती एक तानाशाह की तरह व्यवहार करते रहे हैं और कितने ही योग्य कार्यकर्ताओं का कद बढ़ता देखकर रातों रात पार्टी से निष्कासित होकर पैदल होना भी हमने देखा है।
कांग्रेस में तो परिवारवाद की कहानी से सभी परिचित हैं। एक लोकतान्त्रिक देश में किसी को लगातार युवराज कह कर सम्बोधित किया जाता रहे, क्या यह उचित है?
तब फिर-जरा सोचिए, लोकतन्त्र का जो तकाजा है, जो उसको चलाने वाली बहुदलीय व्यवस्था है, हम भारत के लोग, उस पर पूरी आस्था रखते हैं। परन्तु कांग्रेस, भाजपा, बसपा, और सपा में क्या कहीं आंतरिक लोकतन्त्र दिखायी देता है। और इसी प्रकार स्वामी रामदेव की कार्य प्रणाली में आपको कहीं लोकतन्त्र के प्रति तड़प दिखती है। बाबा लगातार माइक पकड़ कर बोलते रहते हैं। एक प्रेसवार्ता में उन्होंने अपने बगल बैठे एक मौलाना को माइक दिया और तुरन्त ही खींच लिया। बड़बोलापन घातक होता है। उसमें जबान फिसल जाती है और सेना तक बनवा डालती है।
आप श्री अन्ना हजारे की टीम देखिए। इसमें दुर्घटनावश यदि किसी को कुछ हो जाये, उनका आन्दोलन यथावत चलता रहेगा। परन्तु इधर स्वामी रामदेव के यहाँ यदि उन्हें कुछ हो जाये तो उनकी सारी योजना और साम्राज्य धराशायी हो जायेगा। बाबा रामदेव, स्वयं में, स्वभाव से Democratic प्रतीत नहीं होते, उन्होंने अपने यहाँ कोई प्रबन्धकीय ढॉंचा विकसित ही नहीं किया, किया भी हो तो वह दिखायी नहीं पड़ता। उनके पास चेलों, चमचों, और उन्हें स्वामी और गुरु मानने वाले, पैर छूने वालों की जमात है और विश्वास करिये चेले- चमचे कभी श्रेष्ठ सलाहकार नहीं हो सकते। उसके लिए तो स्वयं में सभी से समानता का व्यवहार करने की सदेच्छा हो, तभी काम चल सकता है।
निवेदन:- तब फिर जो व्यक्ति या संस्था स्वयं में लोकतान्त्रिक नहीं, उसे लोकतन्त्र की हत्या या दुहाई देने का अधिकार कदापि नहीं है। यद्यपि कि रात्रिकालीन लाठीचार्ज के पक्षधर हम कदापि नहीं हैं, तथापि निरन्तर लोकतन्त्र को सीढ़ी बनाकर बारी-बारी सत्ता प्राप्त करते ये विभिन्न राजनीतिक दल या सत्ता प्राप्ति के लिए मुंह में लार भरे हुए कुछ लोग और संस्थाएं ये सब तो नित्यप्रति लोकतन्त्र की उपेक्षा, हत्या और उसके साथ कदाचार कर रहे हैं। हम भारत के लोग यदि इसे अपनी चिंतना का केन्द्र बना सके तो अपने देश पर बहुत उपकार करेंगे।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रकट में कई संतो के हस्तक्षेप के कारण रामदेव जूस पी चुकें है। सन्त चतुर है, उनका जमावड़ा रामदेव के माध्यम से परोक्ष रूप से अपनी स्थिति सुदृढ़ करना है। क्योंकि यह सभी बड़े साम्राज्य के अधिपति हैं, वे जानते हैं कि यदि सरकार के मुंह खून लग गया तो फिर आगे उन तक बात पहुंचने में बहुत देर नहीं लगेगी।

योगेश  श्रीवास्तव
मो0 9335154449

बुधवार, 8 जून 2011

एक काग़ज़ ने फूंका विजयी पांडाल


जब नियतें साफ न हों तो साफ-सुथरे उद्देश्य की प्राप्ति भी प्राप्ति नहीं लगती, छल लगती है. यही कारण है कि विदेशी काला धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित किये जाने की केन्द्र सरकार की घोषणा किसी को ऐतिहासिक घोषणा तो छोडिय़े साधारण सूचना भी नहीं लग रही है. अन्ना हजारे के बाद केन्द्र सरकार नहीं चाहती थी कि बाबा रामदेव भी उसे रंगे हाथ पकड़े गये चोर की तरह कान पकड़कर देश के सामने उठा-बैठी कराएं. वह किसी भी कीमत पर बाबा को अनशन से रोकना चाहती थी. किसी भी कीमत का मतलब बाबा की समस्त मांगों की कमोबेश रज़ामंदी की शर्त तक भी. किसी सरकार की इससे ज्यादा आत्म समर्पण की मुद्रा और क्या हो सकती है? बाबा जब दिल्ली पहुंचे तो चार-चार मंत्रियों की अगवानी से स्पष्ट था कि केन्द्र सरकार बाबा के सामने घुटने टेक कर बैठ गयी है. बाबा रामदेव आखिर बाबा ही हैं उन्होंने सरकार की आत्म समर्पण की मुद्रा को आत्म समर्पण ही मान लिया. वो नहीं जानते थे कि राजनीति में आत्म समर्पण कई बार नये दांव के लिये चिन्तन-मनन का विश्राम काल भी होता है.
एक योगी के सामने केन्द्र सरकार ने समर्पण की मुद्रा बना ली. यह मुद्रा इस देश के मीडिया और बड़े राजनीतिकारों को अच्छी नहीं लगी. चारो तरफ प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी व केन्द्र के मंत्रियों के कान खींचे जाने लगे. ऐसा लगा कि एक योगी की जायज मांगों के आगे केन्द्र की सहमति और अनुगामी मुद्रा सरकार की लोकतांत्रिक विनम्रता नहीं बल्कि कायरता थी. सरकार के इस पहले कदम का पूरे देश में मखौल बनाया गया. इस मखौल ने बाबा रामदेव और उनके अनशनकारियों में विपरीत विश्वास जगा दिया. उन्हें लगने लगा कि अब वह चाहें तो चैन से सो सकते हैं यह सरकार उनके सिरहाने पंखा डुलाने के लिये तैयार खड़ी है और वह सो भी गये. लेकिन पंखा डुलाने के बजाय सरकार डंडा चटकाने आ धमकी.
हवा से दिल्ली की धरती पर कदम रखते ही बाबा को विश्वास हो चला था कि केन्द्र सरकार अब उनके कहे के मुताबिक उनकी मांगों को मान लेगी. यह विश्वास यूं ही नहीं था पिछले एक महीने से केन्द्र सरकार के अधिकारी और मंत्री लगातार बाबा को उनकी मांगों के सम्बन्ध में उठाये जा रहे कदमों की जानकारी दे रहे थे. १ जून से लेकर ३ जून तक बाबा और सरकार के बीच यह तय हो गया था कि उन्हें एक-दूसरे की पीठ कैसे खुजलानी है. सरकार मांगे मानने की मुद्रा में थी और बाबा विजयी मुद्रा में.
४ तारीख को एक समय (करीब ४ से ५ के बीच) बाबा यह कह ही गये थे कि उनकी सरकार से बात हो चुकी है और किसी भी क्षण अनशन समाप्त हो जायेगा. ९९ प्रतिशत मांगे सरकार ने मान ली हैं, रही एक प्रतिशत की कसर तो बस वह भी पूरी हो जाये, हम पूरे आन्दोलन की सफलता और उपलब्धि का सारा श्रेय कांग्रेस और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देकर अपने-अपने घरों को लौट जायेंगे. एक समय बाबा के नाम से ब्रेकिंग न्यूज चली 'प्रधानमंत्री ईमानदार'.
बाबा का यह सार्वजनिक बयान था. इस बयान से साफ झलक रहा था कि बाबा और सरकार में भीतर-भीतर खिचड़ी पक चुकी है. अब बस उसके परोसे और खाये जाने की बारी है. जिस समय यह दृश्य चल रहा था बीजेपी और आरएसएस खेमे में बड़ी खलबली थी. देश को लग रहा था कि  'अन्ना' को निपटाने के लिये बाबा और सरकार एक दूसरे के हाथों खेल रहे हैं. 'बाबा' तो खिलाड़ी निकले नहीं हां,  कांग्रेस ने जरूर बाबा और अन्ना को एक दूसरे के खिलाफ पूरी तरह से खेल लिया. यह उसके लिये जरूरी भी था. क्योंकि व्यवस्था परिवर्तन सम्बन्धी दोनों आन्दोलन सत्ता परिवर्तन का बानक जो बनते जा रहे थे.
सच देखा जाये न तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाबा की आवाज को केन्द्र सरकार ने अपना स्वर दे ही दिया था. सभी ने देखा एक ही टीवी स्क्रीन पर एक साथ दो-दो दृश्य. एक तरफ कपिल सिब्बल प्रेस कांफ्रेंस में बता रहे हैं कि उनके और बाबा के बीच तरकीबन समझौता हो चुका है और बाबा की मांगें मानी जा चुकी हैं और दूसरी तरफ बाबा रामदेव माइक पर विजयी मुद्रा में घोषणा कर रहे हैं कि सरकार ने विदेशी काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया है.
इस सीन के बाद इस फिल्म का हैप्पी दि एण्ड हो जाना चाहिये था. लेकिन हुआ क्या? हुआ यह कि जिन क्षणों में यह अनशन साउद्देश्य समाप्ति की ओर था उसी क्षण मीडिया अपने सवालों के तीर लेकर बाबा और सिब्बल को छलनी करने पर आमादा था. मानो किसी आन्दोलन की मांगों पर सहमति की स्थिति में आन्दोलन वापसी की रणनीति व समय की लिखित गारंटी का लेन-देन ऐसा जघन्य पाप है जिसके बाद न तो सरकार और न ही बाबा किसी को मुंह दिखाने के लायक बचे'. मीडिया की मुद्रा कुछ यूं भी रही कि वाह, भई वाह! आप लोग ऐसे कैसे आन्दोलन समाप्त कर देंगे. आपने हमें बताया नहीं. आपने हमसे पूछा नहीं...! नतीजा क्या हुआ. बाबा जीत का जश्न मनाते-मनाते अचानक अपने हाव-भाव बदलने लगे. उनके कानों के पास उनके विश्वासी लोगों के होठ बुदबुदाने लगे और प्रधानमंत्री तथा केन्द्र सरकार को सर-माथे बिठाते-बिठाते बाबा अचानक माथा पीटने लगे. क्योंकि तब तक टीवी स्क्रीनों पर ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी थीं -
बाबा और सरकार के बीच डील.
अनशन पहले से फिक्स था.
बाबा ने देश के साथ धोखा किया.
वगैरह...वगैरह.... अचानक यह सब क्या होने लगा? एक साधारण सी बात और एक साधारण सी गलतफहमी निर्णायक दौर पर पहुंच चुकी एक लड़ाई को पूरी तरह से ले डूबी. यह गलतफहमी और यह साधारण सी बात एक नोट पैड के उस कागज की कहानी है जिस पर २५ पैसे का रसीदी टिकट तक नहीं लगा था, न ही उसे बहुत सोच-समझ कर लिखा गया था और न ही उस पर उस व्यक्ति (बाबा) के हस्ताक्षर थे जिससे उसके सार-शब्दों का रिश्ता था. इस कागज पर सरकार और बाबा के बीच एक शर्त तय की गयी थी. शर्त थी कि मांगों के पूरे हो जाने के बाद बाबा अनशन तोड़ देंगे. यह ऐसी कौन सी लिखा-पढ़ी थी जिसे देश को दिखाने या देश से छुपाने की आवश्यकता समझी या मानी गयी. जब मांगें मान ली जाती हैं तो आन्दोलन समाप्त हो ही जाते हैं स्वत:. मैं अंदाजा लगा सकता हूं कि किस हाव-भाव में सरकार और बाबा के बीच यह कागज आया होगा. कहा गया होगा- 'बाबा जी का क्या भरोसा, हम उनकी मांगें भी मान लें और उसके बाद वो अपना अनशन न तोड़ें.'
कहा गया होगा- 'बाबा जी अपना अनशन तोड़ लें और बाद में आप  मांगें न मानें तो...!'
फिर यह भी कहा गया होगा- 'चलो अच्छा एक दूसरे को लिख कर दे देते हैं.'
वहीं कमरे में कहीं नोट पैड पड़ा होगा. 'वहीं बाबा ने अपने महामंत्री से कह दिया होगा लिख कर दे दे. बोला कपिल सिब्बल ने होगा लिखा शशिकान्त ने होगा. जल्दी-जल्दी...'
और इस तरह एक कागज काला हो गया होगा. और इस काले कागज ने कितनी कालिख फैलायी यह पूरे देश ने देख लिया. और कागज कितना ताकतवर होता है यह एक बार देश और दुनिया ने फिर देख लिया.
बाबा बस कहने भर को बाबा है, जब सरकार ने तकरीबन-तकरीबन उन्हीं के अनुसार ९९ प्रतिशत लिखित रूप से मांगें मान ली थीं तो मीडिया के प्रश्नों और ब्रेकिंग न्यूज के कैप्शनों से भड़कने की क्या जरूरत थी. जब मीडिया बाबा से चिट्ठी लीक होने की बात कर रहा था तो किसी निर्णय से पहले बाबा को फोन पर ही कपिल सिब्बल या सुबोधकान्त सहाय से बात करनी चाहिये थी.  मेरा मानना है कि अगर बाबा ने विजय गीत गाते-गाते धोखा-धोखा न चिल्लाया होता तो विजय गान के साथ ही कपिल सिब्बल का धोखे वाला दांव  उल्टा उन्हें ही भारी पड़ता और यह आन्दोलन एक स्वर्णिम इतिहास के साथ समाप्त हो$ जाता. बाकी बचती एक कागज की कहानी तो  उस पर पक्ष-विपक्ष, मीडिया और बुद्धिजन अपनी लाठी भांजते रहते. उसके ऐसे-ऐसे अर्थ निकालते जिस पर मोटी-मोटी किताबें लिखी जा सकतीं... लेकिन देश तो विदेशी काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित किये जाने का जश्न मना रहा होता...?
कितने आश्चर्य की बात है कि जिस क्षण से रामलीला मैदान का तम्बू उखड़ा है तब से अब तक दुनिया भर की हाय-तौबा मची है लेकिन न किसी राजनैतिक दल ने और न ही किसी मीडिया के जिम्मेदार पत्रकार ने केन्द्र सरकार से यह पूछा कि आप द्वारा बाबा रामेदव की मानी गयी उन मांगों का भविष्य क्या है जो तम्बू उखाडऩे से पहले आपने देश और बाबा को लिखित रूप में दे रखा है.
अजीब देश है और इस देश के समझदार लोग भी अजीब है कि उन्हें इतनी सी बात समझ में नहीं आ रही है कि रामदेव अपना काम कर चुके हैंऔर केन्द्र सरकार अपना. और इन दोनों ने ही जाने-अनजाने देश का काफी भला कर दिया है. लेकिन चूंकि दोनों की नीयतें ठीक नहीं हैं इसलिये उन्हें अपनी जय पराजय लग रही है, देश का भला, भला नहीं लग रहा भाला लग रहा है.
प्रमोद तिवारी

मंगलवार, 7 जून 2011

अकेला चना निकला भाड़ फोडऩे



प्रमोद तिवारी

बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान आंदोलन से व्यवस्था परिवर्तन का संकल्प लेकर निकली यात्रा के स्पष्ट संकेत हैं कि तैयारी कमजोर है. बाबा जल्दबाजी में हैं. और गलतफहमी में भी. बाबा को स्वाभिमानी भारत बनाने के लिये स्वाभिमानी भारतीय नागरिकों की ऊर्जावान फौज चाहिए न कि शुगर, ब्लडप्रेशर, कैंसर और हृदय रोग से पीडि़त बीमारों की. निसंदेह बाबा रामदेव आज के दिन पूरे देश में लोकप्रियता के शीर्ष पर हंै. उनका दावा है कि उनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपर्क में आने के बाद  करोड़ों लोग लाभान्वित हुए हैं. उनके शिविरों में अब  तक ३ करोड़ लोग आ चुके हैं. और न जाने कितने ही लोगों ने टीवी पर उन्हें देखकर योग सीखा है. वे सब के सब ऋणी हैं. जिसने भी बाबा के तीन प्राणायाम सीख लिए वह उनका मुरीद हो गया.  संभव है बाबा सही भी हों. अब अगर टीवी वाले बाबा के अनुयाइयों को छोड़ भी दिया जाये तब भी ये ३ करोड़ लोग कम नहीं है. अगर यह मु_ी तानकर खड़े हो जाएं देश की भ्रष्ट व्यवस्था की चूलें हिल सकती हैं. लेकिन यह तो तब संभव हो जब बाबा के सामने अपार श्रृद्घा से बैठे लोग  बीमार देश के भ्रष्ट रक्त संचार के निदान के लिए आये हों. दरअसल बाबा जिन्हें अपना भक्त अनुयाई या ईमानदार लोकतंत्र का सिपाही समझ रहे हैं वे वास्तव में उनके बीमार हैं. वे अपने शारीरिक कष्ट से पीडि़त लोग हैं. ये लोग अपना कष्ट निवारण चाहते हैं न कि देश का. बाबा को लगता है कि उनके शिविरों में उमड़े लोगों से हाथ उठवाकर, वचन भरवाकर, नारे लगवाकर वे दो-चार साल में ही भारत को महाशक्ति बना देंगे. लेकिन वे भूल रहे हैं कि समग्र क्रांति जैसे इतिहास बीमारों से नहीं बनाये जाते. यहां बीमारी से आशय केवल शारीरिक बीमारी से नहीं है.
शरीर तो बाद में बीमार होता है. उसके पहले कर्म, मन और चरित्र बीमार होता है. जो लोग ब्लडप्रेशर, शुगर, कैंसर, गठिया, हृदय रोग लिए बैठे हैं ये आखिर हैं तो इसी भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था के ही अंग. बाबा के शिविरों में उमडऩे वाली भीड़ों में क्या कर चोर, मिलावट खोर, रिश्वतखोर, जरायम पेशा, स्वार्थी, लोभी और लम्पट लोग नहीं आते? सच्चाई तो यह है कि अधिकांश बीमारों की जड़ में यदि 'योगगुरु' किसी विधान से झांक सकें तो उन्हें नेताओं से पहले अपने ही भक्तों, अनुयाइयों और श्रृद्घालुओं के चाल, चरित्र और चेहरे को ही बदलना पड़ेगा. बाबा राम देव से पहले काशी के करपात्री महाराज जी  ने भी एकबार इसीतरह की कोशिश की थी. उस जमाने में टीवी और संचार-प्रचार माध्यमों का इसकदर बोल-बाला नहीं था, सो आम जनमानस उनकी तिलमिलाहट, हड़बड़ाहट और नतीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं धर सका. जबकि बाबा रामदेव के अंतर्राष्ट्रीय योगी रूप-स्वरूप की कोख ही संचार क्रांति है. इसीलिए भारत स्वाभिमान पर सबकी नजर है और इसकी तीखी प्रतिक्रिया हो रही है. करपात्री जी ने राम राज्य परिषद की स्थापना की थी. और बीमार देश की बीमार राजनीति को दुरुस्त करने के लिए चुनाव में अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे. जैसा कि बाबा रामदेव का संकल्प है. इन प्रत्याशियों का वो हश्र हुआ कि धर्म को तत्काल समझ में आ गया कि उसका राजनीति हस्तक्षेप देश को स्वीकार नहीं है. भले ही देश बीमार हो.. लाचार हो.
 तो क्या यह समझा जाये कि बाबा की देश के प्रति चिंता, पीड़ा, कर्तव्य और संकल्प का कोई मानी नहीं है. उनका राष्ट्र के प्रति सोच अर्थहीन है. कतई नहीं.. देश की भ्रष्ट व्यवस्था को तो बदलना ही होगा. इसके लिए धर्म गुरुओं, योग गुरुओं और राज  गुरुओं को एकजुट होकर जोर लगाना होगा. धर्मगुरु नागरिक आचरण को स्वस्थ्य बनाने का आंदोलन छेड़ें. योगगुरु नागरिक स्वास्थ्य को हष्टपुष्ट बनाने का आंदोलन छेड़ें और राजगुरु स्वस्थ शरीर और स्वस्थ आचरण वाले नागरिकों को राजनीति की बागडोर की दिशा में आगे आने का अवसर दें. बाबा रामदेव ने तो अपनी ताल ठोंक दी है. 'योगगुरुÓ की भूमिका में उन्होंने देश भर में स्वस्थ शरीर के प्रति जबरदस्त जागरुकता पैदा करने में सफलता हासिल भी की है. लेकिन धर्म गुरुओं और राज गुरुओं की उन्होंने अनदेखी कर दी. अनदेखी क्या कर दी एक तरह से उनके विरुद्घ ही डुगडुगी पीट डाली. हाल के दिल्ली, राजस्थान, उत्तरांचल की सभाओं और आस्था चैनल पर बाबा एक ही बात कह रहे हैं  कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को आगे बढ़ाना है. देश को चोर, लुटेरे और डाकुओं से बचाना है.  ये चोर, डाकू, लुटेरे कौन हैं? ये वही लोग हैं जो सत्ता पर बारी-बारी से आते-जाते हैं या निरंतर उस पर काबिज रहते हैं. अर्थात नेता, अफसर और ठोंगी धर्माचरणी. फिर तो ये वही चेहरे हुए जो समय-समय पर बाबा के शिविरों में आकर उनकी रौनक बढ़ाते रहे हैं. फिर तो बाबा  की जंग अपने चेलों से ही हुई. इसतरह के तमाम  विरोधाभाष भी बाबा के आंदोलन के साथ-साथ चल रहे हैं. तभी तो मायावती जैसे उन्नीस-बीस राजनीतिक और अनेक धर्मगुरु बाबा पर गुर्रा रहे हैं. उनका मखौल बना रहे हैं.  जब समय है एक ओजस्वी जवानी के जोश को मजबूत किनारों से बांधने का तो उसकी धारा को छितराने की कोशिश की जा रही है. इसतरह लगता है अकेला चना भाड़ फोडऩे निकला है, भाड़ को लगता है कि चने में उसे फोडऩे भर का बारूद भी है. यह सिहरन कम नहीं है.
शरीर तो बाद में बीमार होता है. उसके पहले कर्म, मन और चरित्र बीमार होता है. जो लोग ब्लडप्रेशर, शुगर, कैंसर, गठिया, हृदय रोग लिए बैठे हैं ये आखिर हैं तो इसी भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था के ही अंग. बाबा के शिविरों में उमडऩे वाली भीड़ों में क्या कर चोर, मिलावट खोर, रिश्वतखोर, जरायम पेशा, स्वार्थी, लोभी और लम्पट लोग नहीं आते? सच्चाई तो यह है कि अधिकांश बीमारों की जड़ में यदि 'योगगुरु' किसी विधान से झांक सकें तो उन्हें नेताओं से पहले अपने ही भक्तों, अनुयाइयों और श्रृद्घालुओं के चाल, चरित्र और चेहरे को ही बदलना पड़ेगा. बाबा राम देव से पहले काशी के करपात्री महाराज जी  ने भी एकबार इसीतरह की कोशिश की थी. उस जमाने में टीवी और संचार-प्रचार माध्यमों का इसकदर बोल-बाला नहीं था, सो आम जनमानस उनकी तिलमिलाहट, हड़बड़ाहट और नतीजों पर ज्यादा ध्यान नहीं धर सका. जबकि बाबा रामदेव के अंतर्राष्ट्रीय योगी रूप-स्वरूप की कोख ही संचार क्रांति है. इसीलिए भारत स्वाभिमान पर सबकी नजर है और इसकी तीखी प्रतिक्रिया हो रही है. करपात्री जी ने राम राज्य परिषद की स्थापना की थी. और बीमार देश की बीमार राजनीति को दुरुस्त करने के लिए चुनाव में अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे. जैसा कि बाबा रामदेव का संकल्प है. इन प्रत्याशियों का वो हश्र हुआ कि धर्म को तत्काल समझ में आ गया कि उसका राजनीति हस्तक्षेप देश को स्वीकार नहीं है. भले ही देश बीमार हो.. लाचार हो.
 तो क्या यह समझा जाये कि बाबा की देश के प्रति चिंता, पीड़ा, कर्तव्य और संकल्प का कोई मानी नहीं है. उनकी राष्ट्र के प्रति सोच अर्थहीन है. कतई नहीं.. देश की भ्रष्ट व्यवस्था को तो बदलना ही होगा. इसके लिए धर्म गुरुओं, योग गुरुओं और राज  गुरुओं को एकजुट होकर जोर लगाना होगा. धर्मगुरु नागरिक आचरण को स्वस्थ्य बनाने का आंदोलन छेड़ें. योगगुरु नागरिक स्वास्थ्य को हष्टपुष्ट बनाने का आंदोलन छेड़ें और राजगुरु स्वस्थ शरीर और स्वस्थ आचरण वाले नागरिकों को राजनीति की बागडोर की दिशा में आगे आने का अवसर दें. बाबा रामदेव ने तो अपनी ताल ठोंक दी है. 'योगगुरु' की भूमिका में उन्होंने देश भर में स्वस्थ शरीर के प्रति जबरदस्त जागरुकता पैदा करने में सफलता हासिल भी की है. लेकिन धर्म गुरुओं और राज गुरुओं की उन्होंने अनदेखी कर दी. अनदेखी क्या कर दी एक तरह से उनके विरुद्घ ही डुगडुगी पीट डाली. हाल के दिल्ली, राजस्थान, उत्तरांचल की सभाओं और आस्था चैनल पर बाबा एक ही बात कह रहे हैं  कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को आगे बढ़ाना है. देश को चोर, लुटेरे और डाकुओं से बचाना है.  ये चोर, डाकू, लुटेरे कौन हैं? ये वही लोग हैं जो सत्ता पर बारी-बारी से आते-जाते हैं या निरंतर उस पर काबिज रहते हैं. अर्थात नेता, अफसर और ठोंगी धर्माचरणी. फिर तो ये वही चेहरे हुए जो समय-समय पर बाबा के शिविरों में आकर उनकी रौनक बढ़ाते रहे हैं. फिर तो बाबा  की जंग अपने चेलों से ही हुई. इसतरह के तमाम  विरोधाभास भी बाबा के आंदोलन के साथ-साथ चल रहे हैं. तभी तो मायावती जैसे उन्नीस-बीस राजनीतिक और अनेक धर्मगुरु बाबा पर गुर्रा रहे हैं. उनका मखौल बना रहे हैं.  जब समय है एक ओजस्वी जवानी के जोश को मजबूत किनारों से बांधने का तो उसकी धारा को छितराने की कोशिश की जा रही है. इसतरह लगता है अकेला चना भाड़ फोडऩे निकला है, भाड़ को लगता है कि चने में उसे फोडऩे भर का बारूद भी है. यह सिहरन कम नहीं है.

बाबा रामदेव की संकल्प यात्रा

बाबा रामदेव धोखे में हैं. उन्हें  लग रहा है कि उनके योग शिविरों में उमडऩे वाली भीड़ उनके श्रृद्घालुओं की है, भक्तों की है, अनुयाइयों की है. जबकि ये सबके सब बाबा के 'बीमार' हंै. उन्हें देश की बीमारी की नहीं अपनी बीमारी की फिक्र है. वे योग के पास इसलिए आये हैं क्योंकि रोग उनके पास आ गया है. रोग दूर होते ही वे अपनी-अपनी जीवन चर्या में लौट जाएंगे, जहां चोरी, लूट, डकैती सब है. और इसी भ्रष्ट कीच में वे भी सने हैं. कुछ चाहे... कुछ अनचाहे... अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि  ५० लाख की आबादी वाले कानपुर महानगर से व्यवस्था परिवर्तन  का  संकल्प लेकर निकलने वालों की संख्या केवल एक सैकड़ा के आस-पास ही रही. यह संख्या भी यात्रा के समापन पड़ाव तक पहुंचते-पहंचते अंगुलियों पर गिनी जाने लायक ही रह गई. आयोजकों ने कहा कि मौसम साथ नहीं था. तेज धूप थी. अरे भैया, मौसम साथ होता.. तेज धूप नहीं होती तो देश को बाबा की वाणी में इतना अनुकूलन और छांव का एहसास क्यों होता. वैसे बाबा जो चाह रहे हैं, देश भी वही चाह रहा है. लेकिन देश न बाबा से बनता है और न ही नेताओं से. देश बनता है नागरिकों से. और भारत का नागरिक आज-कल विदेशों में बनता है. यही देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है.

सोमवार, 6 जून 2011

प्रमोद तिवारी की ग़ज़लें


प्रमोद तिवारी की ग़ज़लें 
 'सलाखों में ख्वाब'
प्रकाशित प्रथम संस्करण- १९९७
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (१९९७) से पुरस्कृत

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