शनिवार, 18 जून 2011

फेसबुकनामा

फेसबुक में आई और छाई
'सिल्ट वार्ता'

कई  वर्षों पूर्व हेलो कानपुर के एक अंक में 'सिल्ट' की महिमा पर एक व्यंगात्मक लेख प्रस्तुत किया गया था. जो आज के शहर के हालातों को देखते हुए मौजूं हो चला. तब ये और सुखिऱ्यों का हिस्सा बना जब इसे आजकल की नव-तकनीक यानी फेसबुक का प्रयोग कर के आप सभी की नजर किया गया.मूल लेख एक बार फिर आपके सामने है -
'मैंने चारों तरफ नजर घुमाई , मुझे हर कहीं सिल्ट नजर आई.' सिल्ट क्या है.. मुझसे एक उत्सुक छात्र ने पूंछा. मैंने कहा, 'सिल्ट नाले नालियों में जमा गन्दगी है, जिससे शहर की सीवर लाइनें चोक हो जाती हैं और बरसात में शहर नरक हो जाता है.' उत्सुक छात्र बोला रहे न आप सिल्ट के सिल्ट. इतने बड़े हो गए अभी तक सिल्ट का मतलब नहीं जान पाए. सिल्ट नाले... नालियों की गन्दगी नहीं है ,ये नगर निगम और जलसंस्थान की सालाना बंदगी है. सिल्ट टेंडर है,सिल्ट कमीशन है, सिल्ट ठेका है, सिल्ट मौका है. सिल्ट सभासद की दारू है, सिल्ट इंजीनियरों का मुर्गा है, अधिकारियों का अधिकार है. सिल्ट केवल सिल्ट नहीं समूची सरकार है. मैंने कहा नहीं बेटा सिल्ट शहर की गन्दगी हटाने के बीच बहुत बड़ा रोड़ा है. वो बोला नहीं सर, सिल्ट मिस्टर अरोरा है. इसी सिल्ट ने उसका जीवन संवारा है.पहले उसके पास साईकिल नहीं थी अब कर है ,बंगला है और बीबी के लिए जेवरातों का बड़ा पिटारा है. ये सिल्ट, सिल्ट नहीं शहर की आत्मा है. जैसे आत्मा अजर अमर है , वैसे ही सिल्ट को न तो कोई नाले से हमेशा के लिए निकाल सकता है और न ही हमेशा के लिए बना रहने दे सकता है. जैसे आत्मा का वस्त्र बदल जाता है, वैसे ही सिल्ट का जमादार बदल जाता है. एक जमादार उसे नाले में बहाता है दूसरा उसे पुन: नाले में डाल देता है. उत्सुक छात्र के जागरूक उत्तर के बाद मैंने चारों तरफ नजर घुमाई मुझे हर कहीं सिल्ट नजर आई.'
इसी बीच देश में एक बड़ी घटना घट गयी है.  वैसे तो हम सभी हर बड़ी घटना के लिए तैयार रहने लगे हैं. गांधी की ह्त्या से शुरू हुआ सिलसिला निगमानंद की असामयिक मौत तक जारी है. हम सभी बस. 'अरे ....' करके चुप रह जाते हैं. आता हूँ, उस खास घटना पर नहीं तो आप सभी कहेंगे, क्या आप भी 'सिल्ट' की ही तरह से फ़ैल जाते हो? तो मित्रों, विगत दिनों वर्धा-आश्रम से बापू का चश्मा खो गया है. ये बात भी फेसबुक में सुर्खियाँ बटोर रही है. इसी बीच प्रमोद तिवारी जी की 'सिल्ट' आ गयी. वैसे वो चश्मा भी खोज रहे थे. उन्होंने सुझाया था की अब देश में नाक और कान वाले तो रहे नहीं अत: चश्मा देश से बाहर चला गया होगा.
तभी 'सिल्ट' की समस्या पर आर. विक्रम सिंह जी ने कहा 'प्रमोद जी, सिल्ट उठाने का नगर-संयोजक आप को बनाया जाता है. आप समिति बनाइये और उठ्वाइये इसे. मैंने इस स्थिति में ये जान लिया की जरूर चश्मा इन्हीं के पास है, क्योंकि चश्मा लगाने के लिए इनके पास नाक और कान हैं, यानी वो मान और सक्रियता है, जिससे समस्या को समझा जा सके. अन्यथा देश में वैसे भी अपमान योग चल रहा है. अब देखो बाबा को, वो रामलीला मैदान, दिल्ली में अपना अपमान करा कर लौटा है. हवाई जहाज से चढ़कर देश-देश घूमकर अब वो भी अपना और अपमान कराएगा. प्रमोद जी ने भी आगे बढ़कर सिल्ट उठाने की जिम्मेदारी लेने में अपनी सक्षमता दिखाई. प्रज्ञा विकास ने इस 'सिल्ट' को बेहतरीन सिल्टमय प्रस्तुति कहा. व्यंग्यकार राजेन्द्र पंडित ने भी इसे सराहा. हद तो तब हो गयी जब इस हलकी-फुलकी फुहार के बीच कुछ फेसबुकिये साथी अपने घर और गली का पता बताने लगे. धन्य हो- 'फेसबुक की सिल्ट-गाथा'.1
अरविन्द त्रिपाठी

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