सोमवार, 27 जून 2011

चौथा कोना

चुनाव से भागे 'चोर'

आदरणीय लोकेश शुक्ल के पुत्र युवा पत्रकार रितेष शुक्ल के शुभ विवाह में कानपुर के पत्रकारों का अच्छा खासा जमाव था. जब अखबार वाले होंगे तो अखबारों और पत्रकारों की ही चर्चा होगी. तो शुरू हो गई प्रेस क्लब की चर्चा. मैंने सौरभ शुक्ला से पूछा- १ जुलाई को चुनाव है न...! अरे कहां भैया, सब फिर टांय...टांय फिस्स हुआ जा रहा है. कह दिया गया है चुनाव नहीं होंगे. सौरभ का यह जवाब मुझे चौकाने वाला था और कानपुर के जिम्मेदार पत्रकारों को धिक्कारने वाला भी. प्रेस क्लब की मौजूदा कार्यकारिणी अगर अब भी चुनाव टालकर नवीन मार्केट में बनी रहना चाहती है तो लगता है परिवर्तन और संवैधानिकता चाहने वालों को सड़क पर उतरना होगा.
 पिछली बार जब अन्ना जी के समर्थन में मैं तम्बू लगाकर प्रेस क्लब के नीचे बैठा तो युवा पत्रकारों ने मेरे धरने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उसी धरने से मुहिम चली और घनघोर दबाव में प्रेस क्लब के महामंत्री कुमार ने १ जुलाई को चुनाव कराने की घोषणा कर दी. इसके बाद पत्रकारों के बीच आपसी क्या राजनीति हुई मुझे नहीं पता लेकिन इतना अवश्य पता है कि परिवर्तन की अगुवाई कर रहे नये पत्रकारों को डराकर, बरगलाकर, फुसलाकर, रिरियाकर खामोश रहने को राजी कर लिया गया है.
शर्म आनी चाहिये ऐसे लोगों को जो खुद को पत्रकार कहते हैं और एक असंवैधानिक, भ्रष्ट और अराजक संस्था के साथ सार्वजनिक रूप से व्यभिचार करते हैं. १० साल बाद भी अगर चुनाव कराने में दग रही है. तो इसका मतलब है इस पूरे गिरोह ने जमकर भ्रष्टाचार किया है. १० बरस तक लाखों रुपये आये-गये और प्रेस क्लब जैसी संस्था के पास बैंक एकाउंट नहीं है. एक बूढ़ा अन्ना पूरे देश से भ्रष्टाचार मिटाने को मरा जा रहा है और यहां की जवान पत्रकारिता भ्रष्टाचारियों से डरकर किसी पिल्ले की तरह या कूं-कूं कर रही है या दुम हिलाती है. लगता नहीं कि ये गणेश शंकर विद्यार्थी की नगरी है.

आमरण अनशन पर बैठने की तैयारी
परिवर्तन चाहने वाले पत्रकारों ने प्रेस क्लब चुनाव की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठने की ठानी है. अनशनकारियों की मांग होगी-
स्न जिला प्रशासन के हस्तक्षेप और देख-रेख में प्रेस क्लबचुनाव.
स्न पिछले दस साल का पाई-पाई का हिसाब.
स्न हिसाब न देने पर जांच और उचित कार्रवाई हो.
चैनलों पर लोकल सेंसरशिप
उत्तर प्रदेश में इस समय मीडिया पर सरकार का पूरा दबाव है. यहां कानपुर में पिछले दिनों शहर के तीन-चौथाई हिस्से में अचानक 'सहारा समय' का प्रसारण गायब हो गया. पता किया तो सूत्रों ने बताया कि लखनऊ के आदेश पर स्थानीय प्रशासन ने केबल आपरेटर को डंडा दिखा दिया है- 'सहारा समय' कहीं नजर नहीं आना चाहिये. और सहारा गायब. स्थानीय सहारा समय कार्यालय से उनके चैनल के गायब होने के बारे में पूछा तो सूत्रों की जानकारी की पुष्टि हुई. बताया गया कि सहारा समय पर अघोषित सेंसर इसलिये लागू था कि चैनल कांग्रेसी व्यापारी संजीव दीक्षित के मामले में ऐसा पर्दाफाश जिसके बाद यह कहना बहुत आसान हो जाता कि संजीव दीक्षित को सरकार के इशारे पर साजिशन फंसाया गया है. चैनल के पास इस बात के पक्के सबूत थे. इधर पिछले हफ्ते कानपुर में 'आईबीएन-७' का अता-पता नहीं चला. अभी राष्ट्रीय चैनल के स्थानीय प्रतिनिधि संयोगवश एक समारोह में मिले तो चर्चा का विषय यही राष्ट्रीय चैनलों का स्थानीय अपहरण ही रहा. 'आईबीएन-७' के अवरुद्ध या छुपे-छुपे प्रसारण की वजह का हम कानपुर के पत्रकार कुछ कयास ही लगाते कि शलभ और मनोज पर सार्वजनिक रूप से भरे बाजार में किसी फिल्म गुण्डे की तरह दो पुलिस अफसरों का दौड़ा-दौड़ाकर हमलावर होना बताया गया कि डा. सचान की आत्महत्या को आत्महत्या न मानकर दोनों मीडिया मैनों ने अपनी 'हत्या' का सामान जुटा लिया है। शलभ और मनोज राजन ने जब अपनी तथ्यपरक विश्लेषणात्मक पत्रकारिता से टीवी स्क्रीन पर यह साबित कर दिया कि डा. सचान की आत्महत्या झूठ है, सच तो हत्या और हत्यारों के बीच कहीं गुम है तो सरकार बौखला गई और इसी बौखलाहट में उसके 'दो गुण्डों' ने शलभ और मनोज को ठिकाने लगाने की ठान ली. मैंने घटना की अगली भोर मनोज और शलभ से बात की दोनों अपनी मुट्ठी भींचे हुये हैं. अच्छा लगा न वे हताश हैं, न निराश हैं, न डरे-सहमे हैं बल्कि अब और प्रतिबद्धता के साथ सच कहने को आकुल हैं. लेकिन अभी भी इन दोनों पत्रकारों की जान खतरे में है. क्योंकि डा. सचान कांड का असली नायक अभी भी अपनी चालें चल रहा है. जेल में मौते इसका प्रमाण हैं.1
प्रमोद तिवारी

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