मंगलवार, 21 जून 2011

खरीबात

मुकाबला पांच सौ बनाम सवा सौ करोड़ का है

जिन लोगों को लग रहा है कि भ्रष्टाचार पर मचा यह हाहाकार भी देर-सबेर तूफानी समन्दर की तरह थमेगा ही, वे भ्रम में हैं. किन्हीं स्थितियों में अगर यह हाहाकार थमा भी तो वह और बड़े तूफान की खामोशी होगी. 'भ्रष्टाचार' तो एक बहाना होगा. असली फैसला तो राजनीति बनाम जनता में 'सुप्रीमो'  कौन, इस पर होगा. लोकतंत्र में जो कुछ भी है सब जनता के लिये है. ये संसद, ये सचिवालय, ये न्यायालय, ये संविधान, ये कायदे, ये कानून, ये नियम आदि...इत्यादि सब कुछ. इन संस्थाओं में संसद की सर्वोच्चता का आधार भी यही है कि उसे सीधे-सीधे जनता आकार देती है. जनता की प्रतिनिधि होने के कारण संसद अन्य सभी संस्थाओं पर भी निगाह रखने का अधिकार रखती है. नैतिक रूप से भी और संवैधानिक रूप से भी. उसे आवश्यक जान पड़ता है वह कानून बनाती है, उसे आवश्यक जान पड़ता है वह कानून बदल देती है. लेकिन यह सब वह करती जनता के लिये ही है.
हाल के दिनों के घटनाक्रम में जनता एक कानून के रूप-स्वरूप को तय करने में दखलंदाजी कर रही है. यह दखलंदाजी संसद को नागवार गुजर रही है. संसद के अपने तर्क-वितर्क हैं और जनता की अपनी आवाज. जहां तर्क-वितर्क होंगे वहां कायदे कानून  की बात होगी.  और जहां 'आवाज' होगी वहां समय संगत परिवर्तन की मांग होगी. तर्क-वितर्क का आधार न्याय और संविधान के ठोस धरातल पर भी सम्भव हो सकता है जबकि जनता की आवाज तो हमेशा ही समय की बदलती धारा के संक्रमण से ही उपजती है. जो हमेशा ही एक नवप्रयोग के जोखिम की तरह ही है. आवाज लगाने वालों के लिये भी और आवाज सुनने वालों के लिये भी. चूंकि भारतीय लोकतंत्र ने अपनी एक अच्छी  खासी उम्र जी ली है. उसके पास लोकतांत्रिक मर्यादा निभाने का अपना अनुभव है, साथ ही लोकतंत्र और उसकी प्रणालियों में व्यवहारिक विरोधाभाषों से उपजी विसंगतियां भी हैं. लोकतंत्र की अब इससे और बड़ी विसंगति क्या हो   सकती है कि आज  देश की जनता दो तरह की आवाजें लगा रही है. एक संसद के भीतर से और दूसरी जंतर-मंतर रामलीला मैदान से. जनता दो तरफा बहस भी कर रही है. है न कमाल की असंगति भारतीय लोकतंत्र की. और  यह कोई एक दिन में नहीं पैदा हुई. ६० साल की अनदेखी का नतीजा है. संसद में जब जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर ५ साल के लिये भेजती है तो सेवक मुद्रा में उस प्रतिनिधि का काम होता है अपने क्षेत्र की आवाज को संसद में उठाना. जब जनता के चुने प्रतिनिधि अपना दायित्व बाखूबी नहीं निभाते हैं तो जनता की अनसुनी टाली गई आवाजें जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों में इकट्ठा  होने लगती हैं. संसद को समझना होगा कि जंतर-मंतर और रामलीला मैदानों से जो आवाजें आ रही हैं वे अलग देश के लोगों की नहीं हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछले दिनों तुम्हें वोट देकर संसद में पहुंचाया है. लेकिन मौजूदा राजनीति उन्हें नकारे दे रही है. उसे विरोधी राजनीतिक दलों के धरना प्रदर्शनों और अन्ना व रामदेव के धरना प्रदर्शनों में कोई अन्तर नहीं लग रहा.... बस यही धोखा है.
चाहे अन्ना की हो या रामदेव की, इन्हें वर्तमान में देशवासियों की आवाज ही माना जाना चाहिये. जो भी इससे अलग इनकी और किसी तरह से व्याख्या या पहचान करेगा. समय आने पर खुद अपने हाथों धोखा खाने के लिये तैयार होगा. केन्द्र सरकार जिसके साथ आज सभी राजनीतिक पार्टियां भीतर-भीतर एक स्वर साधती हैं, उन्हें नहीं लगता कि अन्ना के अनशन और रामदेव के 'स्वांग' से देश का हर होशमंद नागरिक गुड़ चुका है. तभी तो सरकार को जंतर-मंतर पर केवल अन्ना की टीम दिखती है और रामलीला मैदान में रामदेव की मंडली.... उसने कहना भी शुरू कर दिया है कि भारत की जनता की असली आवाज संसद भवन के भीतर (चलने वाले जूते-चप्पल) हैं न कि दीवारों के बाहर मचने वाला शोर. अच्छा हो कि समय रहते जनता की असली आवाज की पहचान हो जाये. वरना फैसला कतई नहीं है. एक तरफ पांच सौ हैं और दूसरी तरफ सवा सौ करोड़.
प्रमोद तिवारी

2 टिप्‍पणियां:

  1. अगर नेता भी इमानदार होने लगे तो वही कहावत हो जाएगी की नेता नहेगा क्या और निचोडेगा क्या

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  2. एक चर्चा ये भी चलाइए की संसद के बाहर जनता का प्रतिनिधित्व कौन करे आने वाले दिनों मे बहुत से लोग खड़े दिखे गे अन्ना जी के आंदोलन से उत्साहित हो कर

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