शुक्रवार, 17 जून 2011

लोकतन्त्र की हत्या

यह विषय एकदम से ध्यान खींचता है, किसी उपन्यास के शीर्षक की तरह। अब सोचना यह है कि लोकतन्त्र नामक यह चिडिय़ा भारत में कब और कहां से आई। यह सोच क्रियात्मक स्तर पर परतन्त्र भारत में शासन प्रणाली सिखाने के उद्देश्य से अंग्रेज शासकों द्वारा लगभग 1919 ई0 में रोपी गई। चुनाव हुए। विधायिकाएं निर्मित हुईं। विभिन्न-विभिन्न विभागों का वितरण हुआ। मेरे पिता राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी थे, उन्होंने तत्कालीन एक मंत्री महोदय, सर के0वी0 रेड्ड का एक कथन कभी मुझे दिखाया, जिसमें अंकित था- was a minister for development without forest. I was a minister for agriculture minus irrigation ……… (& so on & so forth). इतना ही मुझे आज याद है। इस तरह से लोकतन्त्र की नींव भारत में पड़ती है, जो उत्तरोत्तर विकसित होते -होते आज इस अवस्था में है कि उसकी हत्या पर विचार करना पड़ रहा हैं।
अब जहाँ तक हत्या की बात है तो देखना पड़ेगा कि स्थितियॉं आखिर क्या रही हैं-
1. 4 जून 2011 की रात्रि रामलीला मैदान पर सोते हुए जन समुदाय पर एकाएक अश्रु गैस और लाठी चार्ज लोकतन्त्र की हत्या का प्रयास था याकि उसकी हत्या वास्तव में हो ही गई।
2. क्या इससे पहले भी कभी लोकतन्त्र की हत्या या हत्या के प्रयास हुए हैं।
3. याकि नित्य प्रति उसका गला घोटा जा रहा है और उसके साथ बलात्कार के प्रयास हो रहे हैं।
अब दिक्कत यहाँ पर संवेदनशीलता की आयेगी कि हमारी ग्राह्यता कैसी है और दूसरा क्या लोकतन्त्र इतना बेशर्म है कि बार-बार मरकर भी जिन्दा हो जाता है, या कि उसकी नाभि में भी कहीं कोई अमृत तत्व विद्यमान है जो उसे मरने नहीं देता बल्कि अश्वत्थामा की तरह अभिशप्त जीवन जीने को विवश किये हुए है।
मुझे तो लगता है कि स्वतन्त्र भारत के शुरूआती दशकों में लोकतन्त्र को कभी गम्भीरता से लिया ही नहीं गया। भारत के आम चुनाव जनता के लिए ढ़ोल-ताशे बजाने वाले एक उत्सव की तरह रहे, जिसमें टिकुली, बिंदी, धोती, बिल्ले साड़ी, कंबल और वारुणि का खुलेआम वितरण हुआ। जनता स्वतन्त्रता और स्वराज्य के हैंगओवर में रही, और उसने लगभग यह मान ही लिया कि जिन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में हमारा नेतृत्व किया है, हमारे हितों की चिन्ता (जो कि वास्तव में उन्हें करनी ही थी) करते हुए वे ही शासन के अधिकारी हैं और अच्छा शासन चलाते रहेंगे। यह तो उसी शासक समूह से कुछ प्रभावशाली लोग सत्ता का मोह त्याग कर विपक्षी के रूप में लामबंद होकर इस लोकशाही को प्राणवायु देते रहे अन्यथा स्थितियां और भी बदतर होतीं। इनमें डॉ0 राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव और जय प्रकाष नारायण के नाम अग्रिम पंक्तियों में लिखे जाने योग्य हैं।
होष संभालने से लेकर आज तक जन प्रतिनिधियों का चरित्र जो हमने देखा- समझा है, आपसे साझा करते हैं:-
1. कानपुर मे कभी हमारे लोकप्रिय सांसद रहे एस0एम0 बनर्जी के बारे में विख्यात है कि वे अपने घर में दाल-भात या खिचड़ी हर वक्त तैयार रखते थे और जनता के आने पर उसमें हाथ डुबाकर बाहर निकलते थे।
2. भारत-पाक युद्ध 1965 के दौरान ताशकन्द समझौते के समय तत्कालीन प्र0म0 लालबहादुर शास्त्री का दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में असामयिक निधन क्या दर्शाता है।
3. प्र0म0 श्रीमती गांधी द्वारा 1975 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बहुचर्चित निर्णय का अनुपालन न कर देश पर आपातकाल थोपने का निर्णय आखिर कैसे परिभाषित किया जायेगा।
4. देवकान्त बरूआ का यह कहना कि इन्दिरा इज इंडिया एण्ड इंडिया इज़ इन्दिरा क्या लोकतन्त्र के मुंह पर तमाचा नहीं था?
5. सांसदों का प्रश्न पूंछने के लिए रिश्वत लेना क्या लोकतन्त्र को मजबूत कर रहा है ?
6. एक राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का टी0वी0 स्क्रीन पर रिश्वत लेते हुए यह कहना कि पैसा भगवान नहीं है लेकिन भगवान से कम भी नहीं है क्या कम शर्मनाक है?
7. उत्तरांचल की मांग को लेकर दिल्ली जाते सीधे-साधे निहत्थे प्रदर्शन कारियों पर खटीमा में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव की शह पर न केवल लाठी चार्ज हुआ बल्कि भोली-भाली ग्रामीण स्त्रियों के साथ बलात्कार भी हुआ, जिस पर श्री यादव ने कहा था कि यदि यह प्रमाणित हो जाता है तो वह हमेशा के लिए राजनीति छोड़ देगें। बाद में प्रमाणित होने पर उन्होंने सिर्फ एक पंक्ति की माफी मांगी, संन्यास का संकल्प ओझल हो गया। निर्वाचित जन प्रतिनिधि का यह आचरण लोकतन्त्र की हत्या था या नहीं?
8. इसी प्रकार एक और निर्वाचित मुख्यमंत्री उच्चतम न्यायालय में एक विवादित ढांचे की सुरक्षा का आश्वासन (शपथ पत्र) देकर जब उसे ध्वस्त हो जाने देता है और फिर अपने प्रदेश को जलता हुआ छोड़कर तत्काल त्यागपत्र देकर पलायन कर जाता है, इससे ज्यादा बेहूदगी और लोकतन्त्र को मर्माहत करने वाली बात और क्या हो सकती है भला ?
9. अपने चुने जाने का इतना घमंड, कि विनम्रता की जगह स्कैम दर स्कैम में लिप्त सांसद और मंत्री, ऐसा लगता है कि लोकशाही का वास्तविक मर्म जानते ही नहीं, वे उसे प्रतिष्ठित होते देखना ही नहीं चाहते अन्यथा निरन्तर कांग्रेस पार्टी में परिवारवाद का रोना रोने वाले मुलायम सिंह यादव अभी आठवीं बार समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। उनके भाई शिवपाल सिंह, प्रो0 रामगोपाल, पुत्र अखिलेश और पुत्रवधू डिम्पल सभी पार्टी में समायोजित होकर पद लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
बसपा में प्रारम्भ से ही पहले मान्यवर कांशीराम और अब मा0 बहन सुश्री मायावती एक तानाशाह की तरह व्यवहार करते रहे हैं और कितने ही योग्य कार्यकर्ताओं का कद बढ़ता देखकर रातों रात पार्टी से निष्कासित होकर पैदल होना भी हमने देखा है।
कांग्रेस में तो परिवारवाद की कहानी से सभी परिचित हैं। एक लोकतान्त्रिक देश में किसी को लगातार युवराज कह कर सम्बोधित किया जाता रहे, क्या यह उचित है?
तब फिर-जरा सोचिए, लोकतन्त्र का जो तकाजा है, जो उसको चलाने वाली बहुदलीय व्यवस्था है, हम भारत के लोग, उस पर पूरी आस्था रखते हैं। परन्तु कांग्रेस, भाजपा, बसपा, और सपा में क्या कहीं आंतरिक लोकतन्त्र दिखायी देता है। और इसी प्रकार स्वामी रामदेव की कार्य प्रणाली में आपको कहीं लोकतन्त्र के प्रति तड़प दिखती है। बाबा लगातार माइक पकड़ कर बोलते रहते हैं। एक प्रेसवार्ता में उन्होंने अपने बगल बैठे एक मौलाना को माइक दिया और तुरन्त ही खींच लिया। बड़बोलापन घातक होता है। उसमें जबान फिसल जाती है और सेना तक बनवा डालती है।
आप श्री अन्ना हजारे की टीम देखिए। इसमें दुर्घटनावश यदि किसी को कुछ हो जाये, उनका आन्दोलन यथावत चलता रहेगा। परन्तु इधर स्वामी रामदेव के यहाँ यदि उन्हें कुछ हो जाये तो उनकी सारी योजना और साम्राज्य धराशायी हो जायेगा। बाबा रामदेव, स्वयं में, स्वभाव से Democratic प्रतीत नहीं होते, उन्होंने अपने यहाँ कोई प्रबन्धकीय ढॉंचा विकसित ही नहीं किया, किया भी हो तो वह दिखायी नहीं पड़ता। उनके पास चेलों, चमचों, और उन्हें स्वामी और गुरु मानने वाले, पैर छूने वालों की जमात है और विश्वास करिये चेले- चमचे कभी श्रेष्ठ सलाहकार नहीं हो सकते। उसके लिए तो स्वयं में सभी से समानता का व्यवहार करने की सदेच्छा हो, तभी काम चल सकता है।
निवेदन:- तब फिर जो व्यक्ति या संस्था स्वयं में लोकतान्त्रिक नहीं, उसे लोकतन्त्र की हत्या या दुहाई देने का अधिकार कदापि नहीं है। यद्यपि कि रात्रिकालीन लाठीचार्ज के पक्षधर हम कदापि नहीं हैं, तथापि निरन्तर लोकतन्त्र को सीढ़ी बनाकर बारी-बारी सत्ता प्राप्त करते ये विभिन्न राजनीतिक दल या सत्ता प्राप्ति के लिए मुंह में लार भरे हुए कुछ लोग और संस्थाएं ये सब तो नित्यप्रति लोकतन्त्र की उपेक्षा, हत्या और उसके साथ कदाचार कर रहे हैं। हम भारत के लोग यदि इसे अपनी चिंतना का केन्द्र बना सके तो अपने देश पर बहुत उपकार करेंगे।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रकट में कई संतो के हस्तक्षेप के कारण रामदेव जूस पी चुकें है। सन्त चतुर है, उनका जमावड़ा रामदेव के माध्यम से परोक्ष रूप से अपनी स्थिति सुदृढ़ करना है। क्योंकि यह सभी बड़े साम्राज्य के अधिपति हैं, वे जानते हैं कि यदि सरकार के मुंह खून लग गया तो फिर आगे उन तक बात पहुंचने में बहुत देर नहीं लगेगी।

योगेश  श्रीवास्तव
मो0 9335154449

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें