सोमवार, 27 जून 2011

अग्रलेख

बांस से ही बनती है कलम

शलभमणि त्रिपाठी और मनोज राजन त्रिपाठी कोई आज से माया सरकार की आंखों की किरकिरी नहीं  थे. डा. सचान की हत्या से पहले भी आरुषि हत्याकांड, इंजीनियर मनोज गुप्ता हत्याकांड साथ ही बसपा विधायकों के बलात्कार, हत्या, अपराध और काले कारनामों के पर्दाफाश में इन दोनों मुखर पत्रकारों ने प्रखर भूमिका निभाई. मनोज और शलभ से मेरी जब-कब बात होती रहती है. इन दोनों ने कई बार आशंका जताई कि मायावती सरकार में उनके खिलाफ कुछ भी हो सकता है. जान-माल के साथ-साथ मान-प्रतिष्ठा सब कुछ निशाने पर है. शलभ, मनोज तो प्रदेश की राजधानी में हैं जब उनके साथ 'सरकारी गुण्डों' की ये मजाल है तो बाकी प्रदेश के छोटे नगरों व कस्बों में पत्रकारों के प्रति पुलिस का क्या रवैया रहता होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है.
कई बार सरकार या प्रशासन समझ नहीं पाता कि उसके बयानों और कृत्यों का सिर्फ सीधा प्रभाव ही नहीं होता बल्कि उससे आम लोगों में एक संदेश भी जाता है, जब कुर्सी पर बैठे नेता, अधिकारी अपने छिछियाये छोथ के लिये मीडिया वालों को गरियायेंगे, उन्हें सबक सिखाने की ताड़ में रहेंगे तो उनके मातहत क्याकरेंगे...? वे नम्बर बढ़ाने के चक्कर में बढ़-बढ़ के बैटिंग करेंगे ही. अपने बॉस को खुश करने के लिये वे किसी के भी बांस कर देंगे. मायावती 'मीडिया' को जातिवादी और बिकाऊ मानती हैं. ऐसा उनकी बोली-वानी और क्रियाकलापों से जगजाहिर है. अभी कुछ माह  पहले दैनिक जागरण के मालिक पर पुलिस का हमला हुआ था. सरकार ने इस मामले की खूब खिल्ली उड़ाई थी. और जो पुलिस, अधिकारी व कर्मचारी बदतमीजी और मारपीट करने की भूमिका में थे उन्हें दण्डित करने के बजाय पुरस्कृत सा किया गया था. इस घटना से पुलिस और मीडिया के बीच क्या संदेश गया...? यही न कि पत्रकारों को मारो शोहरत और पदवी मिलती है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो  वह दिन भी दूर नहीं जो सरकार के खिलाफ लिखने वालों को पुलिस घर में घुस-घुसकर मारेगी. उसके बाद लोकतंत्र में शायद ही कुछ बचे. लेकिन मैं तीन स्तंभों वाली मौजूदा व्यवस्था को सिर्फ इतना बताना चाहता हूं कि चौथे स्तंभ पर ज्यादा बांस न चलाओ. क्योंकि इसी बांस से कलम भी बनती है.

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