शनिवार, 18 जून 2011

शहर में बनता पानी का बाज़ार

देश भर में घटते पेयजल से अब अपना शहर भी अछूता नहीं रहा. यद्यपि हमारी पहचान गंगा जैसी राष्ट्रीय नदी के किनारे बसे शहर के बाशिंदों के रूप में है. पर अब वही जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी गंगा हमारी प्यास को तृप्त करने में सक्षम साबित नहीं हो रही है. अंधा-धुन्ध बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं. गंगा में घरेलू सीवेज और औद्योगिक कचरा के बहाव को रोकने की कोई नीति  अब तक नहीं बन पायी है. आज गंगा सहित सभी नदियों में प्रदूषण की मात्रा इतनी घातक हो गयी है की इन नदियों का पानी पीने और खेती दोनों कामों के लिए अनुपयुक्त हो गया है. इसके  परिणामस्वरूप आम जनता की जरूरतें भूगर्भ के जल पर बढ़ती जा रही हैं. जिसके  रासायनिक  संघटन में परिवर्तन होने लगा है. अब इस पानी के अधिकाधिक दोहन के कारण जल-स्तर में गिरावट और रासायनिक तत्वों का अतिक्रमण अर्थात प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. सहना आज़मी से लेकर हेमा मालिनी तक अब सभी शुद्ध जल के अर्थशास्त्र को समझ कर उसके विज्ञापनों में अपने चमकते चेहरों के साथ उपस्थित हैं.
    कानपुर शहर के पेयजल की जरूरतों को पूरा करने में सरकारी जल-संस्थान अक्षम साबित हो रहा है. पनकी से आने वाली नहर में आने वाले पानी की दुर्दशा आज आम शहरी के सामने आ चुकी है. अंग्रेजों के समय की पाइप लाइनें सीवर सहित पेयजल उपलब्ध कराती हैं इसलिए अब कन्पुरिओं ने उस पानी पर विशवास खो दिया है. गरीब से गरीब शहरी भी अब पीने के लिए हैंडपंप के पानी पर अभी अपना विशवास बनाए हुए है. आर्थिक रूप से सक्षम लोग आज निजी बोरिंग करवा कर सब-मर्सिबल के माध्यम से घर, सड़क और अपना गला तर कर रहे हैं.  वर्षा जल संचयन की प्रवृत्ति की संस्कृति के अभाव और निरंतर तालाबों में अतिक्रमण के कारण बढ़ते जल-दोहन का प्रभाव निश्चित ही आने वाले समय में इन आम और ख़ास सभी पर पडेगा. राजेन्द्र सिंह 'जल-पुरुष' का कहना है भारत में एक भी शहर में कोई नदी नहीं बहती है बल्कि नाला बहता है. दिल्ली में यमुना नाम का , लखनऊ में गोमती नाम का और कानपुर में गंगा नाम का नाला बहता है. सरकारें इसी बहाने हम से हमारा पानी हमारे होठों से छीन लेना चाहती हैं. देश में बढ़ता बोतल-बंद जल-व्यवसाय को वे आगामी ख़तरा बताते हैं. उनकी इस बात की पुष्टि तब हो जाती है जब कानपुर के एयरफोर्स कैम्पस तक में सरकार औने सैनिकों और अधिकारिओं को पीने के लिए शुद्ध जल मुहैया नहीं करवा पा रही है. या इसे यूं कहें की इन्हें सरकार के द्वारा दिया जाने वाला पेयजल अब शुद्ध नहीं महसूस होता है. उनका  अब सरकारी नलके के पानी से अपना विशवास उठ गया है. इस बारे में शरद कुमार त्रिपाठी का कहना है  'हमारी प्यास का अंदाज़ भी अलग है,कभी दरयाओं को ठुकराते हैं तो कभी आंसू  तक पी   जाते हैं.'1           
  हेलो संवाददाता

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें