बुधवार, 11 नवंबर 2009

पालने में बुढ़ा गये बच्चे

बाल दिवस पर विशेष


जया द्विवेदी

सुविख्यात कवि पं०शिव ओम अम्बर का एक शेर है-'जन्म से बोझ पा गये बच्चे, पालने में बुढ़ा गये बच्चेÓ अभी १४ नवम्बर को जब जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिवस मनाया जायेगा तो पूरे देश में एक दिवसीय बाल प्रेम का जश्नी-तूफान उठ खड़ा होगा. यह एक सिलसिला है सिर्फ. जैसे हिन्दी दिवस पर हिन्दी प्रेम फूटता है. ठीक वैसे ही यह बाल दिवस भी है. तभी तो हमारे देश में बाल श्रम के निषेध के लिए कानून है. सरकार नहीं चाहती कि बचपन बोझ ढोये जन्म से ही. इसके लिए उसने तरह-तरह के कार्यक्रम चला रखे हैं. श्रम विभाग समय-समय पर कानूनी कार्रवाई करता है. सरकार की मंशा होती है कि बच्चे पढऩे-लिखने की उम्र में पढ़े-लिखे अच्छे नागरिक बन कर मुख्य धारा में आएं. लेकिन ऐसा हो कहां पाता है. जमीनी हमीकत इसके विपरीत है.बाल दिवस के इस शुभ अवसर पर हम आपका ध्यान कुछ ऐसे बाल श्रमिकों की तरफ ले जा रहे हैं जिन्होंने अपना बचपन नहीं देखा.रवि-कमाये नहीं तो खायें क्या?रवि की उम्र अभी मात्र १२ साल की है. और वह एक छोले-भटूरे की एक दुकान में सुबह ७ बजे से लेकर रात ८ बजे तक प्लेटें धोता है. बदले में मालिक एक प्लेट छोला-भटूरा और दिन का बीस रुपया देता है. इन २० रुपये से रवि अपने घर के लिये एक किलो आटा खरीद कर लेकर जाता है. जिससे उसकी मां रात के लिए और अगले दिन सुबह के लिए रोटी बनाती है. रवि जब मात्र आठ साल का था तब उसके पिता की मृत्यु हो गई. जब रवि के पिता की मृत्यु हुई उस समय रवि के दो और छोटे भाई थे जिसका पालन-पोषण करना था. रवि की मां गंगाजली स्वभाव से बेहद सीधी होने के कारण कोई काम नहीं कर सकी. इस कारण गंगाजली ने मजबूरन नन्हें रवि के हाथों से किताबें छीनकर काम का रास्ता दिखा दिया. तब से लेकर आज तक रवि सुबह से लेकर रात तक काम ही कर रहा है. जब वि से हेलो कानपुर संवाददाता ने पूछा कि रवि क्या तुम पढऩा चाहते हो? तो नन्हें से रवि के आंखों में आंसू भर गये. उसने जो जवाब दिया वो दिल दहला देने वाला था. रवि ने कहा जब मेरे पापा थे तो मैं पढऩे जाता था. मैं पढऩे में भी होशियार था लेकिन पापा के मरने के बाद मेरा काम करना मजबूरी बन गया. अभी भी मैं पढऩा चाहता हूं लेकिन क्या करूं. २० रुपये सेआने वाले आटे से भर पेट रोटी तो मिलती नहीं, पढ़ाई कहां से करूंगा. और अगर मैं दलिया खाने के लालच में पढऩे लगा तो मेरा परिवार क्या खायेगा. रवि कहता है मैं पढऩा चाहता हूं, बच्चों के साथ खेलना चाहता हूं लेकिन ऐसा नहीं कर सकता, यह मेरी मजबूरी है.इमरान-काम करना मजबूरी हैइमरान की दास्ता तो शायद रवि से भी दुख भरी है. इमरान का एक हंसता-खेलता परिवार था. जिसमें वो उसकी मां छोटी बिट्टी, पिता, बब्लू तथा दो भाई और दो बहनो समेत इमरान रहता था. लेकिन अब से छ: महीने पहले सब कुछ बदल गया. इमरान के सारे सपने चकनाचूर हो गये. इमरान के पिता ड्राइवर थे. अब से छ: महीने पहले एक रोड एक्सीडेंट में इमरान ने अपने पिता को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ दिया. इमरान के पिता अपने पीछे एक विकलांग पत्नी तथा पांच छोटे-छोटे बच्चे छोड़ गये. इमरान की सबसे बड़ी बहन १२ साल की है और इमरान अभी मात्र आठ साल का है. इसके बाद इमरान के छ: साल, ४ साल तथा छ: महीने के दो भाई तथा एक बहन और हैं. इमरान तथा इमरान की बड़ी बहन अफसाना दोनों मिलकर काम करते हैं तब जाकर बहुत मुश्किल से घर के दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है. इमरान की बड़ी बहन अफसाना एक घर में चौका-बर्तन करती है और इमरान एक ड्राइक्लीनर की दुकान में काम करता है. इमरान सुबह ९ बजे दुकान पर जाता है और दुकान की सफाई करता है. सभी के घर जा-जाकर ड्राइक्लीन के लिए कपड़े लाता है. वो पैदल ही सभी के घर जाता है और जब कपड़े ड्राईक्लीन हो जाते हैं तो उसे फिर से घर-घर में देने जाता है. इमरान की अपाहिज मां घर पर पड़ी अपनी लाचारी पर रोती रहती है. इमरान का काम करना उसकी मजबूरी है. इमरान को कमर तोड़ मेहनत के बाद मात्र आठ सौ रुपये प्रति माह और उसकी बहन अफसाना को पांच सौ रुपये प्रति माह मिलते हैं. नीरज-मैं पैसा कमाना चाहता हूं१३ साल के नीरज ने अपने जीवन में इतने आर्थिक संकट देखे कि वो पढ़ाई-लिखाई बंद करके काम की तलाश में कानपुर शहर में निकल पड़ा. नीरज ने आज तक अपने पिता की कमाई नहीं देखी. क्योंकि रिक्शा चलाने वाले नीरज के पिता रमेश जितना कमाते हैं उतना जुए और शराब में गंवा देते हैं. नीरज के पिता पैसे देने के बजाए मां द्वारा बचाये गये चंद पैसे भी मार-पीट करके ले जाते हैं. इस कारण नीरज को लगा अगर वो पढ़ाई-लिखाई में वक्त बर्बाद करेगा तो पैसा नहीं कमा पायेगा और अगर वो पैसा नहीं कमायेगा तो घर में उसकी मां और तीन छोटे-छोटे भाई-बहन भूखे मर जायेंगे. इस कारण नीरज ने फजलगंज स्थित रिम फैक्ट्री में नौकरी कर ली. जहां वो बेल्डिंग तथा रिम पॉलिशिंग का काम करता है. इसके बदले में उसे एक हजार रुपये मिलते हैं. इन पैसों से नीरज अपने घर का खर्चा चलाता है. नीरज सुबह आठ बजे फैक्ट्री चला जाता है और रात में १० बजे अपने घर वापस आता है. नीरज से जब पूछा गया कि क्या वो पढऩा चाहता है तो नीरज ने साफ शब्दों में कहा कि पढ़ाई खाने को नहीं देती बल्कि पैसा खाने को देता है और मैं पैसा कमाना चाहता हूं. सिर्फ पैसा कमाना चाहता हूं. नीरज जिस काम को फैक्ट्री में करता है वो काम सच में बहुत खतरनाक है. बेल्डिंग तथा पॉलिशिंग के दौरान आंखों में चिंगारी तथा हाथ जलने का डर रहता है लेकिन उसके बाद भी नीरज इस काम को करता है क्योंकि उसे अपने परिवार का पेट जो भरना है.मुन्ना-मुझे दूध नहीं मिलता हैदूध पीने को तरसता मुन्ना अभी मात्र छ: साल का है लेकिन उसे बस्ते और दूध के ग्लास की जगह, बिस्कुट फैक्ट्री की राह दिखा दी गई है. मुन्ना के ३ भाई-बहन और हैं. मुन्ना के पिता आज से एक साल पहले कहीं चले गये. तबसे लेकर आज तक वो घर वापस नहीं आये. तब से मुन्ना दादा नगर की एक बिस्कुट फैक्ट्री में काम कर रहा है. घर में उसकी मां भी घर में छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर एक बंगले का झाड़ू-पोछा करने जाती है. मुन्ना बताता है कि १२ घण्टे वहां काम करते-करते मेरे घुटनों में दर्द होने लगता है. घर जाता हूं तो मां से दूध मांगता हूं लेकिन मेरे छोटे भाई-बहन दूध मेरे जाने के पहले ही पी जाते हैं. इस कारण मुझे दूध नहीं मिल पाता है. मैं सुबह ८ बजे फैक्ट्री जाता हूं और रात को ८ बजे फैक्ट्री से निकलता हूं. तब जा कर ९ बजे घर आ पाता हूं.अंकुर-मैं बेटर का काम करता हूं८ साल का अंकुर बेटर है. एक दो बार होटल में प्लेट टूटने के कारण अंकुर ने अपने मालिक से मार भी खाई लेकिन मार खाने से ज्यादा जरूरी उसका पैसा कमाना है. अंकुर की मां लीला अपने शराबी पति से तंग आकर अपने पड़ोसी के साथ कहीं चली गई. दिन-रात शराब के नशे में धुत्त पिता का कोई अता-पता नहीं रहता है. अंकुर की दो छोटी बहने हैं. जिन्हें भूख लगती है अपनी और अपनी दो बहनों की भूख मिटाने के कारण अंकुर होटल में बेटर का काम करता है. अंकुर को किसी का कोई सहारा नहीं अब वो स्वयं अपना और अपनी दे छोटी बहनों का सहारा बना हुआ है. वो चाहता है कि मैं अपने माता-पिता के कारण नहीं पढ़ पाया तो कम से कम अपनी बहनों को तो पढ़ा लूं. और खूब पढ़ायेंगे.1

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