सोमवार, 21 दिसंबर 2009

खरीबात
भइया कभी कचेहरी न जाना
प्रमोद तिवारी
एक तरफ फास्ट ट्रैक कोर्ट और दूसरी तरफ यातायात नियमों के उलंघन में सीज कोई वाहन अदालती प्रक्रिया से जूझता हुआ महीनों से थाना परिसर में जंग खाता मिले तो इसमें बात में क्या शक कि समय भीतर न्याय की जोरदार परवरिश दो मुंही है. कानपुर कचेहरी में सैकड़ों की तादाद में ऐसे मामलों की रोज भीड़ जुटती है जिन्हें न्यायालय में एक या दो दिन की कार्यवाही के बाद निजात मिल जानी चाहिए. लेकिन एक-दो दिनों की न्यायालयीय औपचारिकताओं को पूरा करने वाले कितने ही मामले महीनों-महीनों लटके रहते हैं. इस फसाव का कोई बड़ा कारण भी नहीं होता. सौ-दो सौ रुपये का सुविधा भत्ता (रिश्वत), वकीलों की लापरवाह पैरवी और न्यायकर्ता का सामंती मिजाज मिल जुलकर ऐसा त्रिकोण बनाते हैं कि वादी या प्रतिवादी फैसला लेते हैं कि भले ही थोड़ा बहुत नुकसान हो जाए, जान-मान की हानि हो जाए, अमानत में खयानत हो जाए लेकिन अदालत न जाया जाए. यह धारणा जब आम होती है तब ही न्याय व्यवस्था पर से समाज का विश्वास उठ जाता है. और आज की स्थिति यही है. दूसरी ओर मामूली और छोटे मामले वरीयता के आधार पर चट-पट निपटा दिए जाएं तो आम आदमी में न्यायालयों के प्रति स्वत: ही निष्ठा पैदा हो. पैसा और समय की बरबादी न हो. आज के दौर में नंगी सच्चाई यह है कि आदमी रिश्वतबाजी को ज्यादा बुरा नहीं मान रहा उसे समय की बरबादी बहुत अखरती है. उदाहरण के तौर पर मैं यहां एक साधारण कैमरे के रिलीज ऑर्डर की अधूरी कहानी से आपका परिचय कराने जा रहा हूं. थाना फजलगंज से एक सज्जन साधारण डिजिटल कैमरे की टप्पेबाजी कर ले गये. चूंकि कैमरा एक पत्रकार का था तो रिपोर्ट दर्ज हो गयी. उन दिनों चुनाव चल रहे थे. फोर्स का वाकई अभाव था. इसलिए पुलिस से कैमरे की बरामदगी या चोर की गिरफ्तारी की उम्मीद बांधना बेकार था. पत्रकार महोदय खुद ही सक्रिय हुए. चोर को पकड़ा. कैमरा बरामद किया. चाहते तो कैमरा हाथ आने के बाद चोर से ऊपर से और माल ले लेते. कुछ व्यवहारी छुटभइये नेता इसतरह का प्रस्ताव भी लाये लेकिन नहीं पत्रकार महोदय को पुलिस, कानून और न्याय पर पूर्ण भरोसा था. उन्होंने चोर और कैमरा दोनों पुलिस के हैण्डओवर कर दिया. महोदय बता रहे थे कि कैमरा रिलीज कराने के लिए वह सारा काम-काज छोड़कर लगभग एक दर्जन बार कचेहरी में घंटों बेकार कर चुके हैं अभी तक कोर्ट से कैमरा रिलीज नहीं हो पाया है. वकील और वादी के हिसाब से जितनी भी औपचारिका होनी चाहिए पूरी कर दी गई हैं लेकिन कभी कोर्ट नहीं बैठती, कभी कंडोनेन्स हो जाता है, कभी वकील साहब बीमार हो जाते हैं, कभी साहब पुकार कराते हैं तो पत्रकार महोदय नहीं पहुंच पाते हैं. कुल मिलाकर कैमरा रिलीज करने का ऑर्डर तो अभी तक हुआ नहीं एक बार प्रार्थना पत्र ऊपर से निरस्त हो चुका है. इस मामले को कानून के बड़े खिलाड़ी समझे जाने वाले वकील जनाब कलीम जायसी देख रहे हैं. हत्या, डकैती, अपहरण, लूट-बलात्कार जैसे बड़े-बड़े संगीन मामलों को लगभग ढ़ाई दशक से कानूनी धार दे रहे हैं लेकिन मामूली से कैमरे रिलीज के मामले को नहीं निपटा पा रहे हैं. ऐसा नहीं है कि वकील साहब में कोई कमजोरी है. मसला सिर्फ यह है कि खुद वकील साहब कैमरे के बहाने कचेहरी में बरबाद हो रहे वक्त की कीमत कुछ नहीं समझ रहे. और पूरे सम्मान के साथ कहना चाह रहा हूं कि वकील की तरह ही कोर्ट भी समय की संज्ञेता को कुछ नहीं समझ रही.आदमी दस बजे कचेहरी पहुंचता है चाहे मामला छोटा हो या बड़ा. इसके लिए उसे अपना हर काम छोडऩा पड़ता है. जो कचेहरी बाज हैं उनके लिए यह आम बात है लेकिन जो स्कूटर के चालान, वाहन के सीजर, कैमरे के रिलीज जैसे साधारण मसलों में महीनों चक्कर लगाने को मजबूर होते हैं कोई उनसे पूछे....। आगे चलकर ये वही लोग होते हैं जो अपने घर, परिवार, मोहल्ले और समाज में लोगों को समझाते हैं कि चाहे जो हो जाये, कोशिश हो कि मामला न्यायालय से पहले ही निपट जाये. यह प्रवृत्ति ही लोगों में न्याय के प्रति अनास्था पैदा करती है. और यह अनास्था तरह-तरह के भ्रष्टाचार को जन्म देती है. हमारी न्याय व्यवस्था का आधार है कि भले ही सौ मुजरिम छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए. कितना विशाल नजरिया है व्यवस्था का. लेकिन हालत यह है कि जो भी कचेहरी में मामले को लेकर जाता है मुंशी, वकील, मुहर्रिर, अरदली, पेशकार और बाबू लोग उसे ऐसा चिकिरघिन्नी बना कर रख देते हैं कि फैसला जब होना होता है तब होता है लेकिन मुअक्किल को सजा तत्काल मिलनी शुरू हो जाती है. इस सजा में समय और पैसे के कोड़े चलते हैं. तारीखो पे तारीखें चलती हैं. 1

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