शनिवार, 16 जनवरी 2010

खरी बात

देखो आखिर में कहीं पैंट न उतर जाये

प्रमोद तिवारी

थ्री इडियट्स सौ फीसदी प्रशंसा बटोर रही है. सिर्फ प्रशंसा ही नहीं बटोर रही है बल्कि फिल्मों की सामाजिक सार्थकता को भी साबित कर रही है. मेरा शायद ही कोई मित्र, परिचित या व्यवहारी हो जिसने फिल्म देखने के बाद इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा न की हो. मैं जब अपने साथ अपनी मंडली को जोड़कर कोई बात कहता हूं तो वह समूची की समूची उस पीढ़ी पर टीका-टिप्पणी होती है जो वर्तमान में अभिभावक की भूमिका में है, जिसे डैडी, पापा या बाबू कहा जाता है या यूं कहिए यही निर्णायक पीढ़ी है जिसको आने वाली पीढ़ी में संस्कारों का खजाना बोना है और सुनहरे भविष्य की अक्षुण्य संभावनाएं रोपानी है..थ्री इडियट्स दरअसल इसी हमारी पीढ़ी को सम्बोधित करती एक फिल्म है. और मजेदार बात यह है कि जिस पीढ़ी को यह फिल्म देखने के बाद विचारणीय मुद्रा में आ जाना चाहिए वह चहचहा कर आमिर तुसी ग्रेट हो कहकर फिर से अपने में मगन है...किसी और नई मनोरंजक फिल्म के इंतजार में. यह फिल्म गुरदेव पैलेस में उस मौके पर आई है जब छविगृह के चारो ओर फिल्म का मूल थीम (बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेशनल्स बनाने की फैक्ट्रियां) न सिर्फ कानपुर शहर को बल्कि समूचे प्रदेश को वाकई 'इडियटÓ बनाने में लगा है. काकादेव, मंधना, चौबेपुर, औनाहा, भौंती, रनिया आदि इलाके यानी शहर के ग्रामीण अंचल तक इस तरह की नई सजधज वाली फैक्ट्रियों से तकरीबन पटे पड़े हैं. हर जगह हमारी मेधावी पीढ़ी डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, सीए बनने में लगी हुई है. इन बच्चों के भविष्य के शिल्पकार खुद बच्चे नही आज की जिम्मेदार अभिभावक पीढ़ी है. अपने बच्चों के 'भविष्यÓ के लिए यह पीढ़ी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रही. मेडिकल कॉलेजों, इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए अटूट परिश्रम और जोखिम भरे कर्ज लेने में भी नहीं हिचकिचा रही. इस पीढ़ी के पहले कभी भी अभिभावक बंधुओं ने बच्चों के भविष्य निर्माता की भूमिका इतनी संजीदगी से और आर्थिक जो खिम लेकर नहीं निभाई. एक तरफ तो यह बेहद जिम्मेदारी भरा पीढ़ी गत् सकारात्मक परिवर्तन लगता है. लगता है कि आज शिक्षा के महत्व को सभी ने गले लगा लिया है. सभी ने मान लिया है कि अच्छे भविष्य के लिए उच्च शिक्षा की उच्च डिग्री अवश्यम्भावी है. इसलिए 'नो कम्प्रोमाइजÓ चाहे घर बिक जाये, चाहे सर पर कर्ज लद जाये, चाहे पुरखों की जमीन-जायदाद चली जाये लेकिन बच्चे का दाखिला और उसकी मेरिट अव्वल ही होनी चाहिए. क्योंकि इससे ही बच्चे का भविष्य (भविष्य माने ऊंचा सेलरी पैकेज) बनेगा. वह एक शानदार आनन्दमयी जीवन जियेगा. इस पूरे नियोजन में अभिभावक लोग शायद ही बच्चों की मूल प्रतिभा पर संजीदगी से विचार करते हों?एक बात तो पक्की है जो मैंने निजी स्तर पर अनुभव की है कि इस दुनिया में हर व्यक्ति प्रतिभावान है. वह अपनी प्रतिभा के बूते विलक्षण परिणाम हासिल कर सकता है. वह एक काम इतनी दक्षता से कर सकता है कि कोई दूसरा नहीं . बशर्ते व्यक्ति अपनी प्रतिभा को पहचानकर उस पर ही पूरा जोर लगाये. लेकिन वह अपनी प्रतिभा को पहचाने कैसे...? तो इसका केवल एक ही तरीका है और वह यह है कि व्यक्ति जिस काम को अन्य के मुकाबले आसानी से कर लेता हो और उस काम को करने में उसे आनंद भी आता हो तो समझो यही उसकी प्रतिभा है, यही उसका भविष्य और यही उसकी कामयाबी है. लेकिन मुश्किल यह है कि 'प्रतिभाÓ और पसंद में अक्सर टकराव हो जाता है. व्यक्ति के पास प्रतिभा होती है लेखक की लेकिन जीवन उसे अच्छा लगता है फिल्म स्टार का. वह पैदा हुआ है इंजीनियर बनने को लेकिन उसे अच्छा लगता है गले में आला लटकाना. इस तरह ज्यादातर प्रतिभाएं प्रतिकूल वातावरण में अपना अंकुरण तक नहीं कर पातीं और नतीजा यह होता है कि एक शानदार प्रतिभा चलन की चकाचौंध में एक औसत आदमी का किरदार निभाकर सो जाती है. 'थ्री इडियट्सÓ में आज के एजुकेशन सिस्टम में मार्किंग और ग्रेड बेस को आधारहीन बताया गया है. इसे ही सारी गड़बड़ी की जड़ माना गया है. और इसे 'गड़बडिय़ों की जड़ मानने से इंकार भी नहीं किया जा सकता. तब तो कतई नहीं जब हम शहर में हर वर्ष ग्रेड, रैंकिंग और मेरिट की खरीद फरोख्त, चोरी और तस्करी की खबरें हम आम पढ़ा करते हैं. आज जितनी बड़ी संख्या में इंजीनियरों की खेप तैयार होती दिख रही है क्या यह कल की समस्या नहीं होगी..! अचानक ऐसा कौन सा मेधा का बादल फट पड़ा है कि कल तक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले के लिए तैयारी परीक्षा और प्रवेश परीक्षा पास करना सात समंदर पार करने जैसे पुरुषार्थ से कम नहीं था और आज अचानक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज के दौर में घर-घर इंजीनियर बन रहे हैं. प्रतिभाओं को सलाम है लेकिन जो पैसे देकर, स्कोरिंग टैक्टिस से परचा पार करके इंजीनियर, डॉक्टर या अन्य अच्छे प्रोफेशनल के प्रमाण-पत्र लिए जिन्दगी भर ऐंठे-ऐंठे घूमेंगे दरअसल वह 'थ्री इडियट्सÓ के उस 'टैलेंटेडÓ स्वामी की तरह होंगे जिसे फिल्म (जीवन) के आखिरी में 'मनमौला मूर्खÓ के आगे अपनी पैंट उतार देनी पड़ी..!1

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें