शनिवार, 16 जनवरी 2010



टूट गयी दोस्ती?

संकट में पार्टी?


घर में घमासान


अखिलेश यादव चाचा रामगोपाल के साथ अमर सिंह के खिलाफ खुली बगावत कर जब अपनी पत्नी के साथ विदेश यात्रा पर रवाना हो गये तो अमर सिंह को पूरा सीन समझ में आ गया साथ ही यह भी कि अब यादव कुनबे पर मुलायम की पकड़ ढीली हो चुकी है. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल राजपूत की बेटी हैं. रामगोपाल यादव के बेटे की गोद भराई एक सिख पायलट की बेटी से हुई है. प्रतीक सिंह यादव एक पहाड़ी राजपूत पत्रकार की बेटी से इश्क लड़ा रहे हैं. इसतरह मुलायम कुनबे का यादवों से रोटी-बेटी का संबंध तक खतरे में है .....


मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह की दोस्ती शोले के जय और वीरू से जोड़ी को भी मात देने की स्थिति में थी. राजनीति के सारे सिद्घांत बौने थे. भला कहीं ऐसा होता है कि कोई पार्टी प्रमुख अपने दल में किसी को अपने से ज्यादा ताकतवर बनाये भी और समय-समय पर साबित भी करे. लेकिन पिछले तीन महीने के दौरान ऐसा क्या घटा कि अमर सिंह को एक-दो बार नहीं चार बार सपा से नाता तोडऩे की पेशकश करनी पड़ी. मुलायम सिंह हैं कि अमर को मनाते-मनाते नहीं अघाते दूसरी ओर उनका परिवार है जो फिलहाल अमर सिंह के खिलाफ हल्ला बोले हुए हैं. इस हल्ला बोल से दो बातें स्पष्ट हैं, एक यह कि या तो खुद मुलायम सिंह यादव अब अमर के खिलाफ हो गये हैं या फिर अब उनकी परिवार में पहले जैसी 'वीटोÓ की स्थिति नहीं रह गई. वैसे ये दोनों आधे-आधे सच हैं जिसने मिलकर एक पूरा सच तैयार किया है कि अब अमर और मुलायम के बीच दोस्ती की डोर चुकी है.विस्फोट डाट काम के प्रेम शुक्ल की रिपोर्ट के अनुसार मुलायम और अमर के विघटन पर बहुत सारे विशेषज्ञ अपनी राय रखेंगे. कुछ लोग मुलायम और समाजवादी पार्टी की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिख देंगे तो कुछ अन्य विशेषज्ञ अमर सिंह को राजनीतिक श्रद्धा सुमन चढ़ा देंगे. इस राजनीति में कौन मरेगा और कौन बचेगा? यह तो काल और परिस्थिति स्वयं तय कर देगी. इस समय किसी की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है यह समझना कि दोनों पक्ष अचानक लडऩे क्यों लगे? इस लड़ाई का मूल कारण क्या है?पहले हम मुलायम सिंह के यादव कुनबे की अंदरूनी स्थिति पर नजर डालें. यादव कुनबा जितना अमर सिंह से लड़ रहा है उतना ही उसमें पारिवारिक कलेष भी है. रामगोपाल यादव बनाम शिवपाल यादव, अखिलेश सिंह यादव बनाम धमेंद्र सिंह यादव बनाम प्रतीक सिंह यादव की लड़ाइयांॅ मुलायम के लिए मुश्किल का बड़ा कारण हैं. शिवपाल सिंह यादव पूरे यादव कुनबे के अमर विरोध के बावजूद अमर की बजाय रामगोपाल को अपना दुश्मन नंबर एक मानते हैं. अखिलेश सिंह यादव के लिए अमर सिंह को निपटना जरूरी है, लेकिन उनकी लड़ाई अमर सिंह की बजाय प्रतीक सिंह से ज्यादा गंभीर है. कुछ लोगों का मानना है कि अखिलेश ने अमर सिंह का विरोध भी प्रतीक सिंह के चलते किया है. प्रतीक सिंह यादव मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नीं साधना गुप्ता के पुत्र हैं. साधना को यादव परिवार ने बड़ी मुश्किल से अपने परिवार का अंग माना. वह परिवार प्रतीक सिंह यादव को किसी भी स्थिति में मुलायम का राजनीतिक वारिस स्वीकारने के लिए तैयार नहीं. यादव कुनबे का सबसे बड़ा दर्द है कि अमर सिंह अखिलेश सिंह यादव की बजाय प्रतीक सिंह यादव को ज्यादा प्रमोट करते हैं. विरासत को लेकर मुलायम सिंह यादव के भतीजे धमेंद्र सिंह यादव भी अखिलेश से छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं. यादव कुनबे की आपसी लड़ाई से यादव वोट बैंक भी बिखर चुका है. फिरोजाबाद और भरथन में समाजवादी पार्टी की हार के पीछे यादव वोट बैंक का बिखराव अहम कारण है. यादव मतदाता मानने लगे हैं कि अब रोटी और बेटी के मामले में मुलायम सिंह यादव यादवों से किसी भी प्रकार का सरोकार नहीं रखते. जब कभी समाजवादी पार्टी सत्ता में होती है तो उसे उद्योगपतियों का काम ज्यादा प्रिय होता है. सरकारी नौकरियों की भर्ती के मामले में भी शिवपाल सिंह यादव, यादव जाति की बजाय रूपए की जाति ज्यादा पहचानते हैं. रिश्तेदारियों के मामले में भी मुलायम सिंह यादव परिवार ने अगली पीढ़ी में किसी यादव की बेटी को स्वीकार नहीं किया है. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल राजपूत की बेटी हैं. बीते सप्ताह रामगोपाल यादव के बेटे की गोद भराई एक सिख पायलट की बेटी से हुई है. प्रतीक सिंह यादव एक पहाड़ी राजपूत पत्रकार की बेटी से इश्क लड़ा रहे हैं. ऐसे में जब यादवों से उनका रोटी-बेटी का संबंध ही नहीं बचा तो वे समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवारी करने के लिए मजबूर क्यों रहें?रामगोपाल बिना मुलायम के इशारे के अमर विरोधी बयान नहीं जारी कर सकते. यदि रामगोपाल को मुलायम सिंह का इशारा नहीं मिला होता तो मोहन सिंह अमर विरोधी बयान नहीं जारी करते. एक-दो दिन में छोटे लोहियां जनेश्वर मिश्र भी समाजवाद का पहाड़ पढऩे लगेंगे. कुल मिलाकर मुलायम सिंह यादव के समक्ष अपना कुनबा बचाने की चुनौती है, तो अमर सिंह के पास अपने तिलिस्म को बनाए रखने की दरकार. इस राजनीतिक लड़ाई में जरूर सिद्ध हो गया कि राजनीति में न कोई भाई होता है, न कोई दोस्त और न गॉडफादर, समय के साथ सियासत रिश्तों को बदलने का सामथ्र्य रखती है.मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति के सर्वोत्तम गणितज्ञ हैं लेकिन वे उम्र की जिस पायदान पर खड़े हैं उस दृष्टि से वे पार्टी में अपने बूते नई ऊर्जा भरने की क्षमता नहीं रखते. उनके लिए अपने यादव कुनबे को एकत्र रखना ही सबसे बड़ी चुनौती हैं. अमर सिंह अच्छी तरह से मुलायम सिंह यादव की इस कमजोरी को समझते हैं. बीते सप्ताह जब अखिलेश यादव ने चाचा रामगोपाल के कहने पर अमर सिंह के खिलाफ खुली बगावत कर सपत्नीक विदेश यात्रा पर रवाना हो गए तो अमर सिंह समझ बैठे कि अब यादव कुनबे पर मुलायम की पकड़ ढीली पड़ चुकी है. पिछले सात वर्षों में यादव कुनबा बारंबार अमर सिंह के खिलाफ बगावत का झंडा उठाता रहा। लेकिन हर बार मुलायम सिंह यादव अपने परिवार को दबाने में कामयाब रहे. इसलिए अमर सिंह नाराज होकर भी मुलायम के चलते पार्टी में बने रहे. फिरोजाबाद और भरथना के चुनाव परिणामों के बाद अमर सिंह भांप गए हैं कि केंद्रीय राजनीति में मुलायम सिंह के लिए अगले पांच वर्षों के लिए कोई जगह नहीं. राज्य की राजनीति में अब मुलायम सिंह यादव के पास अपना कोई वोट बैंक शेष नहीं. यदि मुलायम सिंह यादव अपनी उम्र की मुश्किलों से पार पाकर राजनीति के रिंग मास्टर बन भी जाते हैं तब भी 2012 में उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी सत्ता की दावेदार नहीं बननेवाली. इसलिए अब मुलायम के यादव परिवार की सेवा से उन्हें कुछ हासिल नहीं होना.अमर सिंह स्वयं जमीनी राजनीति नहीं कर सकते. उनकी किडनियां नाकाम हो चुकी है. उत्तर प्रदेश की लू और गर्मी, कोहरा और ठंडी सहने की उनमें क्षमता नहीं. ऊपर से यादव कुनबा गाफिल होते ही उनकी जान लेने पर आमादा हो जाएगा. ऐसे में समय रहते मुलायम को धमका-चमका कर वे पार्टी से बाहर जाने में अपनी भलाई समझते हैं. जो लोग मानते हैं कि अमर सिंह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में जाकर उत्तर प्रदेश में पांचवा समीकरण बनाएंने वे सियासत का समीकरण नहीं समझते. ये संभव है कि अमर सिंह अपनी राजनीतिक साख को बचाए रखने के लिए राकांपा में शामिल हों. केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा के अध्यक्ष शरद पवार भी राजनीति और कॉरपोरेट जगत के एक बड़बोले बाजीगर को अपने साथ रखना चाहेंगे. शरद पवार खुद अपने सियासी जीवन के आखिरी चरण में चल रहे हैं. केंद्र में उनके पास प्रफुल्ल पटेल और अगाथा संगमा जैसे गैर मराठा मंत्री हैं. पवार कभी नहीं चाहेंगे कि उनके और उनकी बेटी के अलावा कोई तीसरा मराठा केंद्र की राजनीति में आए. अमर सिंह राज्यसभा सदस्य के अलावा कोई अन्य आकांक्षा फिलहाल नहीं पालेंगे. कृषि और नागरिक उड्डयन का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें अमर सिंह अपनी कॉरपोरेट साख को बचाने में कामयाब रहेंगे.अमर सिंह को बॉलीवुड और कारपोरेट जगत में धमक के लिए महाराष्ट्र में गृह मंत्रालय का साथ चाहिए. इसलिए अमर सिंह राकांपा में चले आएंगे. कांग्रेस आलाकमान भी अमर सिंह को राकांपा में तब तक खेलने देगा, जब तक वे उत्तर प्रदेश में राकांपा के राजनीतिक विस्तार का सपना नहीं पालते. यदि अमर सिंह ने गलती से भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में पांचवीं शक्ति बनाने का प्रयास किया तो कांग्रेसी उनका टेंटुवा दबा देंगे. बीच के दिनों में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने क्लिंटन फाउंडेशन को चंदा देने के मामले में प्रवर्तन निदेशालय को फोन कर अमर की मदद की थी. अमर भी जानते है कि वे मुलायम सिंह की सपा को मार कर कांग्रेस का अप्रत्यक्ष भला कर राकांपा की घड़ी के साथ कदमताल मिलाएंगे तो फायदे में रहेंगे. समाजवादी पार्टी में वे कोई व्यापक तोड़-फोड़ नहीं कर पाएंगे. मुरादाबाद के विधायक संदीप अग्रवाल ने भले ही अमर सिंह के साथ 25 विधायक होने का दावा किया है, लेकिन सच यही है कि पेटी खोलकर भी अगर अमर सिंह बैठें तो उनकी औकात 7-8 विधायकों से अधिक की नहीं बन पाएगी. इसलिए मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल को अमर विरोधी झंडा उठाने की हरी झंडी दे रखी है.

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