शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

२०१० उल्टा अस्तुरा लिए तैयार..

प्रमोद तिवारी
नजरिया नये साल पर-एक
समय का अनुभव हमेशा खट्टा-मीठा होता है लेकिन समय जब कानपुर में कदम रखता है तो लगता है केवल खट्टा और सिर्फ खट्टा होता है. वर्ष २ हजार ९ गया और अब दस का पदार्पण हो चुका है. दस के कदम उस काल खण्ड पर पड़े हैं जिसकी तैयारी हमने सदी के अंतिम दशक से ही शुरू कर दी थी 'विजन-२०१०Ó के नाम से. शहर के योजनाकारों ने २०वीं सदी के अंतिम दशक २१वीं सदी के प्रथम दशक के दरमियान बीस वर्षोंमें शहर की जो कल्पना की थी आज उसके चिह्न तो छोडिय़े शहर १९९० के दशक में जिस तंदरुस्ती को भोग रहा था आज उसके दशाऔर गम्भीर है. 'विजन-२०१०Ó शब्दों के सहारे नगर निगम, केडीए, जिला प्रशासन समाचार पत्रों ने तरह-तरह की योजनाओं परिकल्पनाओं सर्वेक्षणों शिलान्यासों तथा नेताओं की घोषणाओं से शहर की जो स्वप्निल तस्वीर उछाली थी वह २ हजार १० की हकीकत के सामने शर्मसार है...चूर..चूर..!
२ हजार ९ को विदा करते-करते जरा सोचिए कि कानपुर क्या एक शहर है..? शहर किसे कहते हैं..? शहर केवल तीन मतलबों से..गांवों से बेहतर होता-बिजली, पानी और सड़क. आपको शायदन पता हो इसी प्रदेश में कुछ ग्रामीण इलाके ऐसे भी हैं जहां कानपुर महानगर से बेहतर सड़कें, ज्यादा बिजली और नियमित पानी की व्यवस्था है. ये ग्रामीण इलाके उन गंवार कहे जाने वाले नेताओं के प्रभाव वाले क्षेत्र हैं, जिन्हें उनकी जात बाहुबल और बेशर्मी ने कभी मंत्री बनाया तो कभी मुख्यमंत्री. मुख्यमंत्री तो हम नहीं बना पाये लेकिन मंत्री तो हम कानपुर वालों ने भी बनाए. लेकिन आज तक एक भी नरेश अग्रवाल, नसीमुद्दीन या ब्रजेश पाठक (महज सांसद) जैसे गंवारू तेवर वाले नहीं बना पाये जो देश-दुनिया में चाहे जो नरक फैलाये हों लेकिन अपने गृह जनपद को स्वर्ग बनाने में कोई कोताही नहीं बरती. न विश्वास हो तो हरदोई, उन्नाव और चित्रकूट जाकर देख आओ. इन लोगों के इलाके चमचमा रहे हैं और हम महानगरीय नेताओं की सरपरस्ती में विजन-२०१० और विजन-२०२० के कपोल कल्पित नारों और सपनों में उलझे हुए हैं. इस तरह हम कह सकते हैं कि कानपुर एक ऐसा राजनीतिक पठार है जिस पर एक गंवार नेता भी पैदा नहीं हो पाया.गांवों से पहले लोग जंगलों में थे. शहर केवल एक गारंटीड सुविधा के कारण ही जंगल से बेहतर होता है जिसे कहते हैं सुरक्षा. इसी सुरक्षा का दूसरा नाम है पुलिस. बताइये क्या शहर में आप सुरक्षित हैं..! और अगर सुरक्षित नहीं हैं तो पुलिस के होते हुए भी पुलिस का अस्तित्व कैसे स्वीकार कर लिया जाये. कानपुर में तो पुलिस 'सुरक्षाÓ में बाधक बन रही है. बाधक बनने के बदले उसे राज्य सरकार से वेतन मिल रहा है. वेतन के बावजूद वह पूरी तरह से नोट छापने वाली खाकी रंग की एक एजेंसी में तब्दील हो गई है. पहले पुलिस के इसी रूप को डकैत या लुटेरा कहा जाता था. लेकिन आज उन्हें कोई डकैत या लुटेरा नहीं कहता बल्कि १५ अगस्त और २६ जनवरी को गवर्नर से लेकर राष्ट्रपति के यहां तक उसे मान-पत्र तक दे दिया जाता है. इसी महीने यानी २ हजार ९ के अंतिम महीने में गंगा कटरी की तीन घटनाओं को सामने रखें तो शहर में पुलिस की मौजूदगी को खारिज करने के लिए पर्याप्त है. दिसम्बर माह की शुरुआत में गंगा कटरी में एक लाश पड़ी मिलती है. लोग जब नवाबगंज थाना को 'लाशÓ की सूचना देते हैं तो वहां से दुत्कार मिलती है. पुलिस लाश देखने तक नहीं जाती. और जब उससे पूछ ताछ की जाती है तो कहती है-लाश पोस्टमार्टम के बाद गंगा में बहा दी गई थी. वही बहकर आ गई थी फिर गंगा में बह गई-यह जवाब अगर पुलिस का है तो मक्कार, जल्लाद या कसाई का जवाब क्या होगा? पोस्ट मार्टम के बाद लाश गंगा में फेंकना क्या अपराध नहीं. कटी-फटी लाश फिर से गंगा में बहाना क्या अपराध नहीं. लाश किसकी थी जो सीधे गंगा में बहाई गई.क्या यह विवेचना का विषय नहीं..! अगर नहीं तो फिर नवाबगंज थाने की क्या जरूरत. यहां पर जरूरत थी गंगा प्रेमी, रामजी त्रिपाठी की जो हल्ला मचाते पोस्ट मार्टम की गई लाशों को सीधे गंगा में क्यों फेंका जा रहा है. पुलिस को दण्डित कराने के लिए धरना प्रदर्शन करते लेकिन वह तो अभी भैरव घाट पर जमा लाश सामग्री के कचरे को ही निस्तारित कर पाने में सफल नहीं हो पाये हैं. हां इतना जरूर है कि शवों के साथ का कचरा अब खुले आम दिन-दहाड़े गंगा में नहीं बहाया जा रहा है. गंगा २ हजार ९ में लोगों के प्रचार का बढिय़ा जरिया बनी रही. ऊपर के दोनों उदाहरण शहर की तीन प्रवृत्तियों को उजारगर करने के लिए पर्याप्त है. पहली सुरक्षा, दूसरी नागरिक समझदारी, तीसरी राजनीतिक तासीर. क्या आपको नहीं लगता कि इन तीनों बिन्दुओं पर शहर में २ हजार ९ खट्टा-खट्टा ही बीता.बाकी स्वास्थ्य और शिक्षा की दशा पर ज्यादा कुछ क्या कहें? नाम से उभरे एजूकेशन हब में पब (खेल) चल रहा है. सिगमा का बनना और टूटना कोंिचंग की सुनियोजित लूट का प्रत्यक्ष प्रमाण है. लेकिन जय हो लुटेरों की. सबको छूट है. इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाड़ में इंजीनियरिंग बही जा रही है. इन दिनों भाभा इंस्टीट्यूट में पार्टनरों में झगड़ा बता रहा है कि ये शिक्षाविद् भाभा इंजीनियरिंगों का कैसा भविष्य तैयार कर रहा है.मेडिकल क्षेत्र में २००९ का सरकारी फॉलाअप कुछ इस प्रकार है कि वेटीलेटर के अभाव में उर्सला और हैल्ट के बीच दौड़ते-भागते प्रतिमाह करीब दर्जन भर लोगों की मौत हो जाती है. एक सीएमओ भी एक वेंटीलेटर का भी इंतजाम नहीं कर पाता.यह सब उस शहर का सतही लेखा-जोखा है जहां पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से शहर का रूप-स्वरूप बदलने में छोटी-बड़ी दर्जनों संस्थाएं खोदी हुई हैं. तो फिर कानपुर में हो क्या रहा है? मेरी मानो तो बस समय कट रहा है जो लुट रहा है उसका भी और जो लूट रहा है उसक भी. अब हम २०१० के सामने प्रस्तुत हैं. समय फिलहाल उल्टा अस्तुरा लिए तैयार है...!अंत में आपको बताएं कि हमने २००९ की शुरुआत मुम्बई बम धमाकों की थरथराहट से शुरू की थी और समापन दिसम्बर में शहर में प्रतिदिन एक हत्या की दहशत के साथ की है.1

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