शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

प्रिंट की पीपली
प्रमोद तिवारी
कानपुर शहर में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि पुलिस अखबार के दफ्तर में घुसकर अखबार के प्रकाशन और वितरण को रोकने के लिए डंडा लहराये.कानपुर शहर में ऐसा भी पहले कभी नहीं हुआ कि किसी समाचार-पत्र के साथ घटे इसतरह के अलोकतांत्रिक हमले के विरोध में 'प्रेसक्लबÓ आंदोलन करे और अगले दिनों में शहर से प्रकाशित अखबारों में खुद 'प्रेस क्लबÓ ही का बहिष्कार देखने को मिले.शहर में शायद यह भी पहली बार ही हो रहा है कि एक बड़ा राष्ट्रीय अखबार एक बेहद संवेदनशील, अमानवीय और दिल दहला देने वाले कुकृत्य के आरोपियों को दण्डित कराने के लिए हल्ला बोले पड़ा है, शहर को आंदोलित बता रहा है लेकिन उसकी आवाज नक्कार खाने में तूती का मजाक साबित हो रही है... जिन्हें दण्डित कराने के लिए अखबार कलम तोड़े दे रहा हो वे लोग रोज अखबार पढ़कर ठहाका लगा रहे हैं।शहर में ऐसा भी पहली बार ही हुआ है कि कक्षा ६ की एक बच्ची स्कूल जाये और वहां वह खून से लथ-पथ बीभत्स व्यभिचार का नतीजा बन जाए...।सभी जानते हैं कि इन दिनों 'दिव्या-काण्डÓ को केन्द्र में रखकर हिन्दुस्तान रखकर हिन्दुस्तान अखबार अकेले दम जंग छेड़े हुए है. हालांकि यह जंग अकेले की नहीं थी, दिव्या के साथ बलात्कार के बाद शहर का पूरा मीडिया पिल पड़ा था न्याय की गुहार और अपराधियों को सजा की मांग के साथ. एक तरह से अखबारों ने एक्टिविस्टि (कार्यकर्ता) की भूमिका अख्तियार कर ली बजाय जर्नलिस्ट (पत्रकार) के. लेकिन धीरे-धीरे सारे अखबार अखबार की सीमा में लौट आये लेकिन हिन्दुस्तान उससे कहीं आगे बढ़कर जन आंदोलन का गर्भगृह बन गया. उसे शहर ने दिव्या बलात्कार काण्ड में पुलिस के खिलाफ एक पक्ष के रूप में देखा. पुलिस विरोधीं आंदोलन का सूत्रधार बनते देखा. नतीजा सामने है कि हर रोज एक अखबार 'हिन्दुस्तानÓ अपने पन्ने के पन्ने तस्वीरों और बयानों से भर-भर छाप रहा है और डीआईजी प्रेम प्रकाश के नेतृत्व वाली कानपुर पुलिस शहर भर के पत्रकारों को उनकी औकात दिखाने की मानसिकता में बेशर्मी पर उतारू है. खुलेआम उगाही, जाम, चौराहों पर काहिली-मस्ती, निर्दोषों को जेल, दोषियों को संरक्षण सब कुछ शहर भोग रहा है. इस आधे-पूरे सच के साथ कि प्रेम प्रकाश का कोई बाल बांका नहीं कर सकता. वह मुख्यमंत्री के खास हंै. इसके पहले भी अपने मातहतों, नेताओं और पत्रकारों को टेढ़ा कर चुके हैं. शहर में फैली यह किवंदति शायद कुल निराधार भी नहीं है. जहां तक अनुस्का उर्फ दिव्या को न्याय दिलाने के लिए मीडिया उर्फ हिन्दुस्तान के संघर्ष का सवाल है तो भ्रष्ट पुलिस और गुमराह मीडिया से कहीं किसी को न्याय मिलता है? शहर में एक के बाद एक तीन 'काम हिंसाÓ के मामले सामने आये. तीनों में मीडिया ने पुलिस पर मामला दबाने और अपराधियों को बचाने के आरोप लगाये. जबकि पुलिस अपने स्तर पर तीनों मामलों में अपराधियों को पकड़कर जेल भी भेज चुकी है. पुलिस अपराधियों को बचा रही है या नहीं लेखक नहीं कह सकता लेकिन इसमें क्या संदेह कि तीनों ही मामलों में अगर कानपुर का कुल मीडिया बुरीतरह नहीं पिल पड़ता तो ये मामले थाने स्तर पर लीप-पोत के बराबर कर दिये जाते. वाकई पुलिस को मीडिया ने लीपने-पोतने का अवसर नहीं दिया. ये तीनों काम हिंसाएं शासन-प्रशासन के संज्ञान में आईं और शहर तीनें ही प्रकरणों में न्याय की नुमाइंदगी करने वाले नागरिक, राजनीतिक व व्यावसायिक संगठनों तथा संस्थाओं की सक्रियता का मंच बन गया. लेकिन इतना हो-हल्ला और पुलिसिया कार्रवाई हो जाने के बाद मूल प्रश्न तो अभी तक अपनी जगह अनुत्तरित है... वह है दिव्या, कविता और वंदना को न्याय? मीडिया अभी भी यही रट लगाये है... कि न्याय नहीं हो रहा है.दरअसल यह न्याय का नहीं सीधा-सीधा मीडिया बनाम डीआईजी का मामला है जिसमें दिव्या, कविता और वंदना महज ईंधन की तरह इस्तेमाल हो रही हैं या जाने-अनजाने हो गईं. कैसे.. आइये यह भी समझते हैं. हुआ यूं कि डीआईजी प्रेम प्रकाश जैसे ही शहर में आये उनका जागरण वालों से रात के अंधेरे में झगड़ा हो गया. इस झगड़े को बड़े मीडिया समूह ने अपनी प्रतिष्ठा से न जोड़कर एक गलत फहमी में हुआ बखेड़ा मानकर झरिया दिया. इस 'झारÓ ने डीआईजी प्रेम प्रकाश के नेतृत्व वाली पुलिस को पत्रकारों के विरुद्घ निरंकुश कर दिया. आये-दिन थानों-चौकियों में पत्रकारों से दुव्यवहार होने लगा. प्रेस क्लब चूंकि कानपुर में एक 'छद्मÓ संस्था बनकर रह गयी है इसलिए शहर के तिलिमिलाये पत्रकारों को कोई मंच नहीं मिल पा रहा था पुलिस पर निशाना साधने का. तभी अचानक तीन घटनाएं हुईं सिलसिले वार. सबसे पहले चांदनी नर्सिंग में कविता की मौत उसके बाद कानपुर देहात में वंदना की आत्म हत्या और फिर अनुस्का उर्फ दिव्या के साथ बलात्कार. कानपुर प्रेस ने इन तीनों घटनाओं को तीर की तरह अपनी कमान में साध लिया. और निशाने पर रख लिया पुलिस यानी डीआईजी प्रेम प्रकाश को. पुलिस को निपटाने के चक्कर में इन दुखद घटनाओं के तरह-तरह के सनसनी खेज बिकाऊ और सबसे पहले हम के बाजारू पहलू तलाशे गये. इन रिपोर्टिंगों से पुलिस कार्रवाई में अफरा-तफरी मच गयी. मीडिया की बाजारू नियत तो इसी से साफ हो जाती है कि पहले कविता के लिए आसमान उठाये मीडिया दिव्या काण्ड सामने आते ही चांदनी नर्सिंग होम, डाक्टर सी.के. सिंह और कविता सबको भूल गया. मीडिया को दिव्या कांड में कहीं ज्यादा धारदार मिटिरियल दिखाई दिया. इन तीनों ही घटनाओं में ऐसे-ऐसे एंगल से ऐसे-ऐसे समाचार छपे कि जो पुलिस पहले 'लीपापोतीÓ की मुद्रा में थी वह बाद में पकड़ा-धकड़ी की मुद्रा में आ गई. नतीजा सामने है कि एक प्रेमी बलात्कारी बनकर वंदना का हत्यारा घोषित है. दूसरा, 'वार्ड-ब्यायÓ कविता के साथ 'आईसीयूÓ में बलात्कार का आरोपी बना जेल में है. और अब दिव्या काण्ड में स्कूल प्रबंधक, उसके दो बेटे और दिव्या का पिता तुल्य पड़ोसी चाचा मुन्ना सलाखों के पीछे है.. ये जितने भी नतीजे अब तक सामने आये हैं ये केवल पुलिस की 'तफ्तीशोंÓ का फल है, कहना गलत होगा, इसमें अखबारों के 'करमचंदोंÓ की एक से एक खोजी खबरों का भी हाथ है. क्योंकि इन तीनों ही प्रकरणों में अखबार और पुलिस गुनहगारों के बजाय बेगुनाहों पर ज्यादा बीती है.. अब इसका दुष्परिणाम यह होगा कि बिना साक्ष्यों के दबाव में केस खोलने की पुलिसिया हड़बड़ी में गिरफ्तार किये गये लोग आराम से छूट जाएंगे और असली गुनाहगार 'पिं्रट की पीपली..Ó का आनंद लेकर गुलछर्रे उड़ायेंगे.1

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