शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

अस्पताल फुल
बीमार जायें तो जायें कहां!
अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓ
कटहा गांव का पुनीत अभी ग्राम सभा सदस्य निर्विरोध निर्वाचित हुआ था. गांव भर का चहेता चौबीस वर्षीय पुनीत को दो दिन बुखार आया. इलाज में फायदा नहीं हुआ तो कानपुर लाये, जेएल रोहतगी में भर्ती कराया गया. प्लेटलेट्स पचपन हजार निकले, साथ में टायफायड भी. डॉक्टरों ने अच्छे और सस्ते इलाज के लिये हैलट आईसीयू भेजा. इमर्जेंसी के गेट पर एक घंटे तक जद्दोजहद के बाद वे उसे भर्ती नहीं करा सके. रात का दस बजा था, बेचारे घरवाले आटो में लादे पहले केएमसीएम, फिर बिमल, कुलवंती, रामा डेंटल कहां-कहां गये, कहीं ठिकाना नहीं मिला. आखिर बड़ी सिफारिश के बाद कल्याणपुर के संजीवनी आईसीयू में एक बेड उसे मिल गया. इतनी देर में हालत और बिगड़ गयी, और इलाज के साथ ही डाक्टर ने बता दिया कि केवल ईश्वर का ही सहारा है. यह एक पुनीत की कहानी नहीं है. पिछले एक पखवाड़े से रोज दस पांच पुनीत इसी तरह अपनी जान दे रहे हैं.हैलट, उर्सला सहित अधिकांश सरकारी अस्पतालों में क्षमता से ज्यादा मरीज भरे पड़े हैं. बेड फुल हैं. स्ट्रेचर, बेंच और ट्राली पर मरीज लिटा कर ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा है. बाल रोग विभाग में तो हर बेड पर दो मरीज और कुछ पर तीन तक छोटे बच्चे लेटे हैं. मधुराज, न्यू लीलामणि सहित शहर के एक दर्जन अच्छे माने जाने वाले प्राइवेट अस्पताल अब मना करने के बजाय हाउसफुल का बोर्ड टांग चुके हैं. इलाज के लिये मरीज को भर्ती नहीं किया जा पा रहा है. और उन्हें सड़क पर दम तोडऩा पड़ रहा है. वायरल, मलेरिया, टायफायड, डेंगू, चिकुनगुनिया जैसे बुखार ने कोई घर नहीं छोड़ा होगा, जहां एक दो मरीज न हों और कानपुर नगर देहात में सैकड़ों जाने जा चुकी हैं.महानगर का जूही अम्बेडकर नगर, राखी मंडी, लक्ष्मणपुर हो या सुंदर रमाबाई नगर का महदेवा, भोगनीपुर, दोहरापुर विचित्र बुखार की दहशत से हलकान हैं. एक घर में मौत के बाद लोग गंगा जी होकर लौट नहीं पाते हैं कि दूसरे गांव घर या मोहल्ले में रोना-पिटना मच जाता है. संक्रामक बीमारियों के प्रकोप को गंदगी, जलभराव, कूड़े के ढेर और मच्छरों की फौज ने दो गुना कर दिया है. ऊपर से इलाज में हीलाहवाली, जांच सुविधाओं का अभाव, ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी डाक्टरों का गायब रहना और बाढ़ के पानी ने मर्ज को लाइलाज बना दिया है.बुखार के बढ़ते मरीजों की भारी संख्या पर चिंता जताते हुये मेडिकल कालेज के रिटायर्ड डाक्टर एसके सक्सेना कहते हैं- गंदा पानी और वातावरण में गंदगी को जब तक ठीक नहीं किया जायेगा. वायरस पनपता रहेगा और मर्ज बढ़ते रहेंगे. हमको चोट जड़ पर करनी चाहिये.पहले भीषण बरसात और फिर बाढ़ के उतरते पानी ने बीमारियों का चौतरफा अटैक हुआ है. सफाई के हालात यह हैं कि त्योहारों का महीना चल रहा है. पहले गणेश पूजा, ईद, नवरात्र, दशहरा, दीपावली लेकिन शहर हो या देहात गंदगी से पटे पड़े हैं. कूड़े के ढेर सड़ांध मार रहे हैं. नगर निगम के हाल यह हैं कि नगर आयुक्त आर विक्रम सिंह, अपर नगर आयुक्त उमाकांत त्रिपाठी और मेयर रवीन्द्र पाटनी या जिलाधिकारी मुकेश मेश्राम व आयुक्त अमित घोष जहां पहुंच जायें वहीं नगर निगम का अमला हाथ पैर हिलाता दिखता है. अन्यथा अजगर करे न चाकरी...Ó की दशा को प्राप्त हैं. टूटी और खुदी सड़कों ने गंदगी, जल भराव और धूल को सर्वव्यापी कर दिया है. अब चालीस लाख की आबादी के शहर में यह पंच पान्डव भी कहां-कहां जायेंगे?मच्छरों का प्रकोप बुरी तरह बढ़ गया है, लेकिन कहीं फॉगिंग होती नहीं दिखायी दे रही है. सीएमओ अशोक मिश्र बताते हैं कि काफी लिखा-पढ़ी के बाद बजट आ गया है. एक दो दिन के अन्दर दवा आ जायेगी और पूरे शहर में बड़े पैमाने पर छिड़काव कराया जायेगा.अपर नगर आयुक्त उमाकांत त्रिपाठी कहते हैं कि गंदगी और कूड़े के ढेरों को उठाने के लिये नगर निगम की दर्जनों गाडिय़ां और सैकड़ों कर्मी लगे हुये हैं लेकिन शहर के क्षेत्रफल और जनसंख्या को देखते हुये संसाधन सीमित हैं. कुल मिलाकर बात साफ है कि सरकारी प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हैं. अब ऐसे में बीमार जायें तो जायें कहां?समस्या की जड़ पर चोट करते हुये एक डाक्टर नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, हैलट हाउसफुल है और सुदूर पीएचसी और न्यूए पीएचसी पर ताले लगे हैं. मरीज ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज सुविधा न मिल पाने पर सीधे कानपुर आ रहा है. अगर इलाज और जांच की सुविधायें कठारा, पतारा, घाटमपुर, बिल्हौर, डेरापुर, मंगलपुर में मिल जायें तो वह यहां क्यों आयेगा. लेकिन सरकार का हाल निराला है. सीएचसी बिल्हौर का हाल देखिये यहां टाइल्स लग रहे हैं, रंग-रोगन हो रहा है, लाइट फिटिंग की जा रही है लेकिन पूरे अस्पताल में चार मरीज भी नहीं भरती हैं क्योंकि कोई भी डाक्टर रात में नहीं रुकना चाहता है. और जो इमर्जेंसी करता है वह केवल मेडिको लीगल करके मरीज को कानपुर रिफर करने की खानापूर्ती करता है. यही कारण है कि जिस अस्पताल में पहले मरीजों का तांता लगा रहता था और मरीज डाक्टरों को भगवान कहते हुये निकलता था. लेकिन अब ओपीडी में भी फीस ले लेते हैं और प्रोपेगेन्डा दवाओं के द्वारा लूट लेने की चर्चाएं आम रहती हैं. यही हाल घाटमपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र का है. ककवन सीएचसी तो नाम मात्र की है. छोटे अस्पतालों में तो आज भी डाक्टर या तो हफ्ते में एक आध बार जाते हैं या नहीं जाते हैं. हैलट, उर्सला और केपीएम जैसे सरकारी अस्पतालों में इलाज भी हो रहा है और जांच सुविधा भी. लेकिन यह सब भी बीमारों की भारी संख्या को देखते हुये अपर्याप्त दिख रहे हैं. प्राइवेट अस्पतालों के पास मरीजों की भीड़ भी है और वे दोनों हाथों से रुपया भी बटोर रहे हैं, वह भी अपनी शाख को बचाते हुये. मतलब जैसे ही कोई मरीज सीरियस हुआ तो उसको हैलट, उर्सला रिफर कर देना. क्योंकि एक तो मरीज की मृत्यु के बाद बवाल मार-पीट और लेथन दूसरे अस्पताल का अपयश-बदनामी.बस इसी सरकारी काम करने की शैली और प्राइवेट नाम बदनामी के डर के साथ काम करने की मानसिकता ने मरीजों को लावारिस लाइलाज मरने की हालत में पहुंचा दिया है, वह भी प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री के गृह जिले और उसके आस-पास के जिलों कानपुर (देहात), कन्नौज, फर्रुखाबाद, हमीरपुर, उन्नाव में.1
हाल पैथालाजी का
कानपुर जिले के किसी भी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर डेंगू, चिकनगुनिया की जांच की सुविधा नहीं है. मलेरिया के प्रतिदिन सौ से डेढ़ सौ मरीज आते हैं. अगर इनकी स्लाइड बनायी जाये तो रात के बारह बजेंगे. जाहिर है कि न यह किया जा रहा है और न संभव है. चौदह तारीख को हेलो कानपुर ने अस्पतालों का दौरा किया तो पाया कि कर्मचारियों की ड्यूटी चुनाव में लगी है और लैब बंद हैं. अगर मरीज में डेंगू के सम्भावित लक्षण दिख भी रहे हैं तो उसके ब्लड सैम्पुल कानपुर भेजने की कोई सुविधा नहीं है. इसके लिये वह प्राइवेट पैथालॉजी के कलेक्शन सेंटर पर निर्भर रहता है. ऐसे सेंटर मकनपुर, अरौल से कठारा ,पतारा तक फैले हैं, जहां चौबीस घंटे में जांच रिपोर्ट आ जाती है. इनकी भारी भरकम फीस अदा करने में गांव का गरीब मरीज असमर्थ है, इसीलिये उसको सरकारी अस्पतालों की तरफ भागना पड़ता है, जहां सरकारी आफिसों की मानसिकता से दस से दो बजे तक कर्मचारी और डाक्टर काम करते हुये ज्यादा से ज्यादा अगाही पर ध्यान लगाये हैं.
सीएमओ बनाम
अन्टू बनाम बाबू
कानपुर अपवाद है,जहां सीएमओ डा. अशोक मिश्र और डीपीओ सब कुछ ठीकठाक हैं. अन्यथा शायद ही कोई ऐसा जिला है जहां दोनों के बीच शीतयुद्घ या खुली जंग न चल रही हो. संविदा के डाक्टरों की नियुक्ति डीपीओ करते हैं और उनकी ड्यूटी से सीएमओ पर फर्क पड़ता है. डाक्टरों का प्रदेश संगठन भी इसके खिलाफ उतर गया है मैदान में. लेकिन इस लड़ाई में मरीज का कोई पुरसाहाल नहीं है.मरीज मर रहे है तो मरे, स्वास्थ्य विभाग एक अलग इलाज में लगा है. यहां पूरे विभाग की ओवर हालिंग हो रही है. स्वास्थ्य विभाग और परिवार कल्याण विभाग अलग-अलग हो गये हैं. स्वास्थ्य विभाग के पास नाम मात्र का बजट है और नाम मात्र के अधिकार और काम. मंत्री अन्टू जी बयान जारी करके विभाग को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, और उनके विभाग के सीएमओ डाक्टरों की अटेन्डेंस जांचने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर पा रहे हैं. कल तक सीएमओ की पोस्टिंग का सेंसेक्स रेट गिरकर आधे पर आ गया है. और डाक्टरों को सुधारना आसान नहीं है जब हाईकोर्ट के आदेश और कैडर रिव्यू का लालच बर्खास्तगी की धमकी का उन पर असर नहीं पड़ता है तो फिर सीएमओ क्या बला है. बस फर्क यह आया है कि पहले जो डाक्टर हजार दो हजार देकर सरकारी ड्यूटी से गायब रहते थे, उन्हें अब पांच हजार दस हजार देने पड़ रहे हैं, आखिर छठे वेतन आयोगका असर घूस पर भी तो पड़ेगा. दूसरी ओर डीपीओ है जिनकी तैनाती बाबू सिंह कुशवाहा के परिवार कल्याण मंत्रालय के द्वारा ही रही है. उनके पास करोड़ों का बजट है. नई सरकारी बिल्डिंग इन्हें बनवानी हैं, नये डाक्टर संविदा पर रखने है. एएनएम, स्टाफ नर्स को नौकरी बांटनी है. अस्पतालों के लिये मेज-कुर्सी, जनरेटर, इन्वर्टर, अल्मारी, स्टूल, पर्दे जो डिमाण्ड वो हाजिर है. बस नहीं है तो अस्पतालों में अच्छी दवायें, चौबीस घंटे डाक्टर की मौजूदगी और मरीज से अच्छा व्यवहार. डीपीओ ने तैनाती के समय एक लगाओ दो पाओ के ख्वाब देखे थे, लेकिन सपने पूरे नहीं हो पा रहे हैं. क्योंकि खरीद-फरोख्त और डाक्टरों की नियुक्ति सब कुछ लखनऊ सीधे करने में लग गया है. यही कारण है कि पैसा बजट अधिकार और सुविधाओं के बावजूद कानपुर नगर में संविदा के दो डाक्टर, पांच नर्स और छह स्टाफ नर्स के पद अभी भी खाली पड़े हैं. सफाई कर्मी, वार्ड ब्याय, आया की तो बात ही करना बेकार है.1हेलो संवाददाता

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