शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

दो टूक
पीर हरण का चीर हरण चालू है....
अनुस्का उर्फ दिव्या शहर का ताजा सर्वाधिक बिकाऊ खबरीला मुद्दा है. एक ऐसा मुद्दा जिसकी शहर में जबरदस्त मांग है. मुद्दे जब मांग की शक्ल तैयार कर लेते हैं तो मीडया और राजनीति की जीभ लपलपाने लगती है. ऐसा ही हो रहा पिछले कुछ दिनों से बुरी तरह बेतरतीब बिखरे, प्राणलेवा मच्छरों की बीमारियों से जकड़े धीरे-धीरे एक तरह से कबिरस्तान सा नजरा बनाते शहर को. जागे हुये लोगों में दिव्या को जेसिका लाल और प्रियदर्शनी बनाने की होड़ मची हुयी है. बेचो.... भुनाओ..... मुद्दों को, समस्याओं को, घटनाओं को लेकिन उसके साथ बलात्कार तो न करो. दिव्या के साथ बलात्कार हुआ. बलात्कार शायद छोटा शब्द पड़ रहा है जो उस नन्हीं जान पर बीती उसे बताने के लिये. लेकिन घटना के बाद से हर रोज दिव्या का बलात्कार शहर में नये रंग रोगन के साथ सामने आ रहा है. शहर के उन तमाम निष्तेज संगठनों और नेताओं को दिव्या को न्याय दिलाने की गुहार में शायद अपनी सम्भाव्य आभा जान पड़ती है. अगर ध्यान से देखा जाये तो यह वही मीडिया और संगठन है जो दिव्या के ठीक पहले कविता और वन्दना के लिये धरती और आसमान एक किये था. इनसे पूछिये क्या कविता और वन्दना को न्याय मिल गया ? उनका पीर हरण हो गया. नहीं मित्रों, वंदना और कविता का बलात्कार पुराना हो गया.. फिर दिव्या की उम्र, घटना स्थल, जख्म और खून में घटना की जो वीभत्सतता है, प्रचारित न्याय के लिए प्रचार का जितना मिटिरियल है उतना शायद कविता और वंदना बलात्कार काण्ड में नहीं..। पुलिस... जो कि कानपुर में घटे इन तीनों बलात्कार के और बलात्कारियों के प्रति बाकायदा पत्थर सी जान पड़ी. लेकिन उसने तीनों घटनाओं में बाद तफ्तीश गिरफ्तारियां की हैं, आगे कार्रवाई के लिए लगातार कह रही है. फिर पुलिस से अब किस न्याय की बात की जा रही है..। कहा जा रहा है कि प्रबंधक का छोटा बेटा पियूष वर्मा जेल में नहीं है यह अन्याय है. जबकि खुद प्रबंधक और उसका बड़ा बेटा सलाखों के पीछे है. अब यह कैसे कहा जाये कि पुलिस प्रबंधक को बचा रही है. और अगर संगठनों और मीडिया की दृष्टि में पियूष ही बलात्कारी है तो उसके बाप और भाई के साथ क्या हो रहा है जेल में..। क्या यह उनके साथ बलात्कार, अत्याचार व्यभिचार नहीं है. यहां लेखक का आशय किसी को फंसाना या बचाना नहीं है. लेकिन एक व्यक्ति की गिरफ्तारी को न्याय कहना कितना न्यायोचित है भारतीय कानून व्यवस्था में यह तो समझना ही चाहिए. अभी आप कविता कांड में ही देखिए. ठीक ऐसे ही संगठनों की मांग, मीडिया की तथ्य परख रिपोर्टिंगों और माहौल के दबाव में पुलिस ने नर्सिंग होम के वार्ड ब्याय को बलात्कार के आरोप में अंदर कर दिया. इस घटना का फालोअप बताता है कि 'वार्ड ब्यायÓ बलात्कारी नहीं हो सकता.. लेकिन 'वार्ड ब्यायÓ की गिरफ्तारी को जागे लोगों ने कविता के साथ न्याय मान लिया. अब यही लोग दिव्या के लिए न्याय यानी पियूष को जेल मांग रहे हैं. हो सकता है पुलिस पियूष को बचा रही हो इसलिए कि उसकी गिरफ्तारी से 'साक्ष्यÓ पुष्ट होंगे और पुलिस की गढ़ी पड़ोसी बलात्कार कहानी झूठी साबित हो जायेगी. पुलिस इसलिए भी पियूष को बचा सकती है कि उसने पैसा खा लिया हो. चूंकि आगे की वैज्ञानिक जांचों से पियूष बच नहीं सकता और उसका पिता व भाई फंस नहीं सकता. इसलिए पियूष को बचाओ बदले में बाप और बड़े भाई को फसाओ ऊपर से माल कमाओ..। शायद प्रेस और नागरिक संगठन यही सोच रहे हैं. तो क्या यह मान लिया जाये कि जो ये लोग सोच रहे हैं वही सत्य है..। अरे भाई, और भी तो जागे हुए लोग हैं जो कह रहे हैं स्कूल खुलने दो, बच्चों को पढऩे दो. इनकी बात का कोई मतलब नहीं है. शहर में शहर के लिए, न्याय की सुनिश्चितता के लिए, एक नन्नी जान की सच्ची कीमत के लिए हर संभव लोकतांत्रिक प्रहार होना चाहिए. लेकिन बनावटी प्रदर्शन न तो संवेदना को जगा पाते हैं न ही नसों में दौड़ते खून को गरमा पाते हैं. यह बात हमेशा असर करती है कि वह कैसे और किससे द्वारा कही व उठाई जा रही है. उसके पीछे का उद्देश्य क्या है..झ मार्केटिंग और पैकेजिंग के जमाने में कोई बेवकूफ नहीं है.1 हेलो संवाददाता

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