सोमवार, 11 जुलाई 2011

फेसबुकनामा

कम हो गये चार आने

चवन्नी की विदाई का वक्त है पूरे मुल्क के साथ कानपुर का दिल भी बुझा-बुझा सा है. क्योंकि ये वो अमीर शहर है जिसने हमेशा चवन्नी को भी सर आंखों पर उठाया है. दस बीस बरस में चवन्नी भी उसके ज़हन से गैर हाजिर हो जाएगी. वो चवन्नी जो कभी कानपुर की ज़बान और बयान के आगे आगे चलती थी.
अगर किन्ही हजऱत में मर्दानगी कम है तो उनके लिए कहा जाता था कि 'अमां उनकी चवन्नी कम है'. अगर कोई मोहतरम अक्ल से पैदल हैं तो उनके लिए गढ़ा गया जुमला था कि 'अमां फलां साहब चवन्नी गिराए घूमते हैं.' और अगर कोई कंजूस है तो उसके लिए- 'अमां छोडि़ए वो तो रूपए में पांच चवन्नी बनाते हैं.' हालांकि के बावजूद चवन्नी के फेयरवेल के दिन जो मुहावरा मैने सबसे ज्यादा सुना वो'चवन्नीछाप' का था, जिसे सुनकर शायद चवन्नी भी टूटे हुए दिल वाली हो जाती होगी.
जहां तक मेरी जानकारी है ये मुहावरा 80 के दशक में कानपुर में उपजा और बाद में पूरे हिन्दोस्तान में बीमारी की तरह फैला. होता यूं था कि कानपुर से एक दौर में नौटंकी की पार्टियां पूरे देश में जाती थीं. इनमें उत्तेजक प्रसंग आने पर दर्शक मंच की तरफ चवन्नियां उछालते थे. बाद में ये चलन सिनेमा हाल तक जा पहुंचा. इन्ही लोगों को चवन्नी छाप कहा जाता था. मुहावरा पूरी तरह इंसानी मिजाज़ बताने के लिए था लेकिन बाद में चवन्नी का मिजाज़ भी इसी से तय होने लगा. दुनिया ये भूल गई कि इसी चवन्नी से बचपन अपने बेशुमार ख्वाब खरीद लेता था.
बहुत पुरानी बात नहीं है जब पतंगों की कीमत चवन्नी हुआ करती थी. दो चवन्नी मिलाकर मै और मेरा भाई सुपर कमांडो ध्रुव नागराज या डोगा की एक कामिक्स किराए पर लाते थे,जिसे पढ़ते पढ़ते ही मै निराला, मीर और तहलका तक पहुंचा. 25 पैसे में इनाम खोलने का एक कूपन मिलता था जिसमें कभी कभी घड़ी और मिथुन या धरमिंदर का बड़ा पोस्टर तक हाथ लग जाता था. शक्तिमान का स्टिकर भी चवन्नी में ही था. मांएं अपने बच्चों को नजऱ और हाय से बचाने के लिए चवन्नी की शरण में ही जाती थी. फिर बच्चे अपनी करधनी और गले से चवन्नी लटकाए घूमते थे. यही नहीं आंख दुखने पर मां जो देसी ट्यूब (जिसे आम जुबान में गल्ला कहते हैं,) बच्चे के लगाती थी वो भी चवन्नी का मिलता था. इसके साथ ही संतरे की वो सदाबहार टाफियां भी याद आती हैं जो मेरे पूरे बचपन भर 'चवन्नी की दो वाली' संज्ञा से ही नवाज़ी जाती रहीं. (अंग्रेजी में मजबूत कुछ बच्चे इन्हे आरेंज वाली टाफी भी कहते थे). इसी तरह कुछ टाफियों का नाम 'चवन्नी वाली' भी था. संतरे की फांक जैसा लैमनजूस या लैमनचूस (पता नहीं इसका सही नाम क्या होता है,) भी चवन्नी का ही मिल जाता था.
बचपने का रिजर्व बैंक यानि गुल्लक को तोड़कर अपनी अमीरी दिखाने के लिए जब सिक्कों की कुतुब मीनार बनाई जाती थी तो उसकी सबसे ऊपरी मंजिल भी चवन्नी से ही बनती थी. ये भी कहा जाता था कि चवन्नी को अगर कड़वे तेल में डुबो कर रेलगाड़ी के नीचे रख दो तो वो चुम्बक बन जाती है, कई दफा ये प्रयोग मैने भी सेन्ट्रल स्टेशन और गोविन्दपुरी की पटरियों पर आजमाया लेकिन सफल नहीं रहा. चवन्नी को उंगली की चोट से देर तक घुमाने की प्रतियोगिताएं भी खूब होती थी जिसमें इनाम वही चवन्नी होती थी. स्कूल के बाहर काला वाला तेज़ाब मिला हुआ चूरन भी चवन्नी में एक पुडिय़ा मिल जाता था जो कि जबान पर छाला निकालने के लिए काफी होता था. इसी तरह आइसक्रीम के ठेलों पर डिस्को नाम की एक आकर्षक चीज (पन्नी में भरा ठंडा रंगीन मीठा पेय) का दाम भी 25 पैसे था.
लेकिन फिर एक वक्त और भी आया जब इसी चवन्नी के दिन ऐसे बदले कि सफर पर जाते वक्त ढूढ ढूढ के चवन्नियां रखी जाने लगी. भिखारियों को देने के लिए. और भिखारी भी इन्हे, देने वालों को चवन्नीछाप कहके वापस कर देने लगे. बच्चों ने चवन्नी लेकर दुकान जाना बंद कर दिया और अगर कोई बच्चा पहुंच गया भी तो दुकानदार ने बनियागिरी दिखाते हुए उसका दिल तोड़कर उसे ये कहते हुए लौटा दिया कि चवन्नी नही चलेगी. जबकि मुझे घर के पास वाला बनारसी आज भी याद है जिसने मुझे 25 पैसे की इमली की गोली एक बिस्सी यानी 20 पैसे में इस शर्त के साथ दी थी कि मै पंजी या 5 पैसे उसे बाद में दे दूंगा. हालांकि मै उन्हे कभी दे नहीं पाया और पता नहीं बनारसी दादा कहां चले गए. चवन्नी के बंद होने पर व्यवहारिक रूप से कोई क्षोभ जरूरी नहीं है. लेकिन फिर भी चूंकि ये घटना अतीत के खूबसूरत पन्ने दोबारा पलट गई है इसलिए माहौल का जज्बाती होना लाजिमी है. पहले बनारसी दादा गए, फिर बचपन गया और आज बचपन के खजाने का सबसे बड़ा सिक्का यानि चवन्नी भी रूखसत हो गई.1
अरविन्द त्रिपाठी

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