सोमवार, 11 जुलाई 2011

बन्धु अभी भी बंधुआ है


देश की अर्थव्यवस्था में चाहे कितना उछाल आया है, शैक्षिक दर बढ़ी है, पर बंधुआ मजदूर की किस्मत का ताला अभी नहीं खुल सका है. पेट पालने के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करना आज भी उनकी नियति बना हुआ है. ठेकेदार और नियोक्ता दोनों उनका शोषण कर रहे हैं और उनके श्रम की कीमत पर डाका डाला जा रहा है.
बंधुआ मजदूर के पास खेती योग्य जमीन नहीं है. रोजी रोजगार के कोई साधन सरकार की तरफ से नहीं मिले हैं. ईंट भट्टों पर आसानी से काम मिल जाता है.और भट्टा मालिकों और ठेकेदारों द्वारा इनका जमकर शोषण किया जा रहा है. बिहार व झारखण्ड के लोकल ठेकेदार बड़ी संख्या में मजदूरों को यूपी में ला रहे हैं. ये ठेकेदार उन्हें भट्टा मालिकों को देते है. इनको पैसा भी सीधे मालिको से न मिलकर ठेकेदारों द्वारा ही दिया जाता है. पहले से मजदूरी निश्चित नहीं की जाती है. जब भट्टों का काम बंद होता है, उस समय मालिक जो चाहे उस रेट के हिसाब से मजदूरी देता है. श्रम मूल्य भी ठेकेदार को दिया जाता है और फिर ठेकेदार मनमर्जी से मजदूरों को पैसा देता है.
बिहार, झारखण्ड व छत्तीसगढ़ राज्यों में तो ये स्थिति है कि इनको गाँव के अन्दर भी नहीं रहने दिया जाता..गाँव के बाहर घास फूस की झोपड़ी बना कर ये लोग गुजारा करते हैं. इनके बच्चों के साथ वहां आज भी छुआछूत का वर्ताव है. इनके बच्चों को स्कूल में सभी आम बच्चों के साथ पढऩे को नहीं बैठाया जाता हैं. मजदूरी इतनी कम है कि इसमें गुजारा करना नामुमकिन है. बिहार आदि राज्यों मे एक दिन की मजदूरी 20-25 रु. और दो से तीन किलो चावल है. यूपी में कच्ची ईंट ढुलाई का 1000 प्रति ईंट पर 90-110 रु. मिलता है, जबकि पूरे परिवार के साथ खच्चर या घोड़ा जो भी इनके पास हो, उसकी मजदूरी भी शामिल होती है. छत्तीसगढ़ राज्य के मजदूर ज्यादातर निकासी के काम के लिए जाने जाते हैं. इनका काम तो और भी कठिन है.
वे गर्म ईंट को हाथ से निकाल कर चट्टे तक पहुचाते हैं. इनको मिलते हैं प्रति 4000 ईंट के 200 से 250 रु.. मास्क उपलब्ध नहीं कराये जाने से जले कोयले की राख सांस द्वारा इनके शरीर के अन्दर जाती है और उससे ये दमा अस्थमा जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.
जरूरी है श्रम सुधार
लखनऊ में विगत दिनों आयोजित कार्यक्रम में बाल एवं बंधुआ मजदूरों के उन्नयन में लगीं विजया रामचंद्रन ने कहा कि संगठित क्षेत्र की तरह इन मजदूरों को भी विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ मिलनी चाहिए. जैसे साथ मे आये बच्चों हेतु आंगनवाडी/ बालबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएँ, जिसमें गर्भवती महिलाओं हेतु मातृत्व लाभ, कार्यस्थल पर शौचालय-स्नानघर के साथ आवास, मालिक के योगदान से भागीदारी प्राविडेंट फंड व पेंशन की सुविधाएँ आदि उपलब्ध करायी जानी चाहिए. . चूँकि इस कार्य में मालिक मजदूर के रिश्ते में निरंतरता नहीं होती, अत: मजदूरों को जहा भी वह जाएँ, उपर्युक्त सुविधाओं हेतु मान्यता मिलनी चाहिए.. हमें ऐसी योजना अपनानी पड़ेगी, ताकि प्रत्येक मालिक का हरेक मजदूर के खाते में निश्चित कल्याणकारी भुगतान जमा होता रहे. मजदूर जहा भी जाएँ उसको मिलने वाली सुविधाएँ बरकरार रहनी चाहिए.
इसके अलावा राज्य को ईंट उधोग पर एक कर लगाकर एक निधि का निर्माण करना चाहिए, जिससे मजदूर को कर्ज मिल सके तथा आपातकालीन परिस्थितियों में सामाजिक सुरक्षा मिल
.यदि श्रमिकों को अंतर्राज्य प्रवासी मजदूर अधिनियम (1068-1979) के अनुसार मजदूरी नहीं मिलती तो सरकार को मालिक/प्रधान - नियोक्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए.. सेमिनार में इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन जेनेवा के रिप्रजेंटेटिव्स ने भी अपने विचार साझा किये.1
शालिनी द्विवेदी

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