रविवार, 3 अक्तूबर 2010

पंचायत चौराहे पर

अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

गांव अपने मुखिया (प्रधान) चुनने जा रहे हैं. लेकिन चुनाव में मारकाट और हत्यायें हो रही हैं. शराब पानी की तरह बहायी जा रही है. जाति के बगैर कोई बात नहीं कर रहा है. बेईमानों और लुच्चों ने लोकतंत्र की प्रथम सीढ़ी पर कब्जे की ब्यूह रचना कर ली है, लेकिन लोकतंत्र तो फिर भी जीतेगा हर बार की तरह, वह भी आम आदमी की बदौलत.

ग्राम पंचायतों के चुनाव, दरअसल देश के सबसे बड़े राज्य के असली लोकतंत्र की परीक्षा हंै. इस बार इन चुनावों ने ग्रामीण क्षेत्र के साथ शहरी अभिजात्य वर्ग की भी अभिरुचि बढ़ा दी है. कारण कई हैं. सबसे खास बात यह है कि ग्राम प्रधानी बीडीसी, ग्राम सदस्य के साथ जिला पंचायत के सदस्य भी चुने जा रहे हैं. जिला पंचायत के चुने सदस्य ही आगे चलकर जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव करेंगे. अध्यक्ष जिले की सबसे बड़ी लालबत्ती होती है, जैसे मेयर या नगर पालिका अध्यक्ष नगर का प्रथम नागरिक होता है. जाहिर है इनका चयन भले ही गांव से होता हो, लेकिन खान-पान, रहन-सहन और संबंध-व्यवहार सब कुछ अद्र्घ-शहरी होता है. यही कारण है कि पचहत्तर हजार रुपये की सीमा वाले इस चुनाव में बीस लाख रुपये तक खर्च करने वाले प्रत्याशी हर कदम पर हैं. दूसरी ओर ग्राम प्रधानी अब रूखी-सूखी नमक-रोटी का जुगाड़ भर नहीं, बल्कि मलाई-रबड़ी खाने और बुलैरो-सफारी पर चलने का जरिया बन गई है. इससे पहले जवाहर रोजगार योजना, इन्द्रा आवास और पट्टे आवन्टन की संस्तुति में कुछ प्रधान लाखों के वारे-न्यारे करने लगे थे. ऐसा नहीं है कि प्रधान अकेले रुपया हड़प कर जाने वाला प्राणी है. जिसकी सत्ता होती है, उसके स्थानीय छुटभैय्यों से लगाकर सांसद-विधायक तक और ग्राम सेकेट्री से लगाकर बीडीओ, एसडीएम तक, इस बंदरबार में शामिल रहते हैं. मनरेगा की मलाई ने जेआरवाई की खुरचन को गुजरे जमाने की बात बना दिया है. मनरेगा सीमित पानी की झील नहीं, बल्कि पानी की तरह रुपया बहाने की नदी बनकर आयी है, जिसमें गोते लगाने की इतनी मारामारी है कि भगवान ही मालिक है. इसीलिये चाहे शहर में सोने-चांदी की दुकान खोले स्वर्णकार हों या दिल्ली में नौकरी कर रहे गौतम जी अथवा वकालत कर रहे सिंह साहब, सब प्रधान बनने की लाइन में लगे हैं. कानपुर से ४० किमी. दूर जीटी रोड पर बीबीपुर गांव में मात्र साढ़े बारह सौ वोटर हैं और एक दर्जन प्रत्याशी यहां भाग्य अजमा रहे हैं. नानामऊ बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं, लेकिन दो हजार वोटरों के बीच सोलह लोग हाथ-पैर मार रहे हैं. ऐसा ही नजारा महंगवा का है, जहां ११०० वोटरों के बीच नौ लोगों में प्रधानी की गलाकाट जंग जारी है. सीट महिला है, चेहरा घूघंट में है, लेकिन लम्बरदार साहब उनकी आड़ में प्रधानी के शिकार में लगे हैं. अकबपुर से घाटमपुर तक और हमीरपुर से कन्नौज तक कुछ ऐसा ही नजारा दिख रहा है. यह तो एक पक्ष है. दूसरा पक्ष और भी स्याह है. ढूंढे ही शायद दो-चार गांव मिलें, जहां सुबह से शाम तक शराब पानी की तरह बहाई न जा रही हो. शराब कहीं ड्रमों में भरी रखी है, तो कहीं डिमांड पर हाजिर है. प्रत्याशी गांव के विकास पर अपने मत से जनमत को प्रभावित कर बहुमत पाने की बजाय, जाति-धर्म और विवादों की भांग खिलाकर, ऊपर से शराब पिलाकर, नकद नोट उड़ाकर लोकतंत्र के प्रथम प्रहरी बनने की जोर आजमाइश कर रहे हैं. इस जोर आजमाइश में अच्छे-सीधे सज्जन और पढ़े-लिखे ईमानदार भी हैं. लेकिन ताम-झाम और शोर शराबे में उनकी बात न तो मुखर हो पा रही है और न ही सुनी जा पा रही है. भाई-भतीजावाद भी इस चुनाव में सर चढ़कर बोल रहा है. बड़े नेता खुद तो सांसद विधायक हैं ही, अपने ही भाई, बेटे, बेटियों, बहू, पत्नी या मां को अपना उत्तराधिकारी बनाने की जुगत में हैं. इस समय राकेश सचान की पत्नी पुष्पा सचान जिला पंचायत अध्यक्ष हैं. जब वह अध्यक्ष बनी थीं तो समाजवादी पार्टी की सरकार थी और इन्हें अध्यक्ष बनने में कोई खास दिक्कत नहीं आयी थी, उस चुनाव में तीन से चार लाख रुपये तक की खरीद फरोख्त हुयी थी. उससे पहले के चुनाव में समाजवादी पार्टी के विधायक शिव कुमार बेरिया ने अपनी पत्नी रमा बेरिया को चुनाव लड़ाया था, लेकिन सरकार चूंकि भाजपा की थी, इसलिये सारे जुगत के बाद भी वे चुनाव नहीं जीत सकीं थीं और मीरा शंखवार अध्यक्ष बन गयी थीं. पुष्पा सचान इस समय जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और अभी छह माह तक अध्यक्ष रहेंगी, इसलिये नये संशोधन के मुताबिक वे अध्यक्ष से इस्तीफा दिये बगैर सदस्य का चुनाव नहीं लड़ सकती हैं. विकल्प हाजिर हो गया कि पुष्पा सचान जी की सास अर्थात फतेहपुर से सांसद राकेश सचान की मां पतारी से चुनाव लड़ेंगी, उनकी तैयारी भी शुरू हो गई, लेकिन इसी बीच सरकार ने नियमों में एक और संशोधन कर दिया कि सामान्य सीट से चुना गया व्यक्ति आरक्षित अध्यक्ष पद पर चुनाव नहीं लड़ पायेगा. बस फिर क्या था. वे पतारी के बजाय कु दौली से चुनाव लडऩे पहुंच गयी और यहां से चुनाव लड़ रहे सपा के छुन्नी लाल सचान को दूसरी जगह भेजा जा रहा है. छुन्नीलाल पिछला चुनाव दबंग और प्रभावी नेता विजय सचान की भाभी से मात्र सात वोटों से हारे थे. वह भी तब जब उन्हें चुनाव से पहले जेल भेज दिया गया था. ऐसा ही कुछ नजारा घाटमपुर के वर्तमान विधायक आरपी कुशवाहा के इर्द-गिर्द दिख रहा है. जिलापंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर निगाह लगाये कुशवाहा ने अपनी पत्नी को बिन्नौर सामान्य सीट से चुनाव लड़ाने की तैयारी की थी. शासन के नियम के मुताबिक वे भी बिन्नौर से लड़कर अध्यक्ष की सीट पर नहीं विराज पातीं. फिर उनके लिये भी चौबेपुर सीट का इंतजाम किया गया और वहां से लड़ रही उनकी अपनी निकटस्थ गायत्री कुशवाहा को भी मानमनौव्वल के साथ फल, पुष्प चढ़ा कर मैदान से हटाने की तैयारी जारी है. बड़े नेताओं की सभी पदों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति से जहां कार्यकर्ताओं में उदासी और आक्रोश है, वहीं इसके परिणाम उल्टे भी निकल सकते हैं. उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पूर्व हुये फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम सिंह यादव की बहू (अखिलेश की पत्नी) डिम्पल कार्यकर्ताओं के विरोध के चलते हार गईं थीं. बिल्हौर में भी स्थानीय विधायक कमलेश दिवाकर की पत्नी ने बीडीसी सदस्य के लिये नामांकन कराया है. साफ है कि निशाना ब्लाक प्रमुख सीट पर है, जो इस बार रिजर्व कर दी गई है. बांगरमऊ के रहने वाले कमलेश सपा सरकार के दौरान भी स्वयं व अपने भाई को प्रमुख निर्वाचित करा चुके हैं. जाहिर है इस बार तो परिस्थितियां बिल्कुल ही अनुकूल हैं. पंचायत पदों पर कब्जे करने की यह लड़ाई इतनी रोचक है कि बसपा जैसी अनुशासित पार्टी के अन्दर भी गला काट जंग शुरू हो गई है. राधन सीट पर चुनाव लडऩे आयी उपमंत्री का दर्जा प्राप्त सुशील कटियार की पत्नी प्रतिभा, स्थानीय विधायक कमलेश दिवाकर के असहयोग के चलते हार निकट देखकर मैदान से ही बाहर हो गयीं, इससे सबसे ज्यादा खुशी आरपी कुशवाहा को हुयी जिनके रास्ते का पहला कांटा निकल गया. माया दरबार में शामिल बाबू सिंह कुशवाहा के आशीर्वाद से ही अध्यक्ष की कुर्सी फाइनल होनी है. सुशील के लड़ाई से बाहर होने के बाद अब आरपी कुशवाहा की दावेदारी मजबूत हो गयी है. इससे पहले बाबू सिंह, अशोक कटियार को एमएलसी बनवाकर विरोधियों को चित कर चुके हैं. हिसाब-किताब साफ है मतदान गांव में होगा लेकिन पंचायत लखनऊ में लगेगी.

परिवारवाद की बीमारी दिल्ली लखनऊ, पटना और सैफई से होती हुयी अब बिन्नौर, राधन और कुदौली तक पहुंच गयी है. सांसद, विधायक और मंत्री अपने पुत्र-पत्नी, भाई-भतीजे को प्रधान, प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर येनकेन प्रकारेण बैठाल देना चाहते हैं. कार्यकर्ता तो दरी बिछाने के लिये ही बना है‡

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