रविवार, 3 अक्तूबर 2010

खरीबात

जो फंसा वो चोर बाकी शाह

अनुराग अवस्थी 'मार्शल'

चांदनी में कविता से बलात्कार, केएमसी में मरीज की गलत इंजेक्शन से हालत गम्भीर, दवा विक्रेता की गिरफ्तारी पर हड़ताल, कल्याणपुर में डाक्टर की पिटाई पर डाक्टरों की हड़ताल सेे एक दर्जन मरीज मरे. पिछले एक माह से शहर में इन घटनाओं ने उथलपुथल मचा रखी है. इसी बीच कल्याणपुर में स्कूल गई छोटी सी छात्रा की सन्देहास्पद परिस्थितियों में बलात्कार और हत्या हो गई है.डाक्टरों को भगवान का दर्जा दिया गया है. यह भगवान अब कलयुगी इन्सान तो बन ही गये हैं. समाज के हर क्षण गिरते चारित्रिक पतन और नैतिकता के हास के साथ अब अगर इनमें से कुछ शैतान भी बन जायें, तो कोई आश्चर्य नहीं.चांदी के सिक्कों से जब व्यवस्था की खरीद-फरोख्त होती है तो ऐसे ही कांड सभ्य समाज के मुंह पर कालिख पोतते हैं. कविता और केएमसी कांड पर खूब लिखा-पढ़ा जा चुका है. क्या कोई बतायेगा कि नर्सिंग होमों के क्या मानक हैं? और उनकी जांच का तंत्र कब कितना सक्रिय होता है. सरकार द्वारा नर्सिंगहोमों के मानक बनाते ही शहर के दो सौ नर्सिंग होमों ने अपने बोर्ड पर पुताई कराकर नर्सिंगहोम की जगह हॉस्पिटल लिख दिया. हॉस्पिटल का कोई पैमाना नहीं है. चाहे जितनी जगह में, चाहे जैसे डाक्टर-कर्मचारी रखकर हॉस्पिटल चालू कर दें. इसीलिये केएमसी में डायलिसिस के दौरान अप्रशिक्षित कर्मी से गलत इंजेक्शन लगते ही सबने हाथ खड़े कर दिये. वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने स्वास्थ्य सेवाओं में रिसर्च को जब टैक्स छूट दी, तो उसके चलते बहुत से नर्सिंग होमों ने अपने को रिर्सच सेंटर में बदलकर लाखों रुपये के टैक्स की बचत शुरु कर दी. स्वास्थ्य सेवाओं में क्या है इनकी नयी रिसर्च और आम आदमी को क्या मिला इसका फायदा. है किसी को मालूम? यही कारण है कि आईसीयू, पीबीयू, डायलिसिस के लिये आवश्यक डिप्लोमा डिग्री के बगैर डाक्टर और कर्मी रखकर उगाही का तंत्र दिन-प्रतिदिन विकसित होता जा रहा है. स्वास्थ्य मंत्री कह चुके हैं कि अतिशीघ्र नर्सिंग होमों के लिये एक्ट आयेगा. पिछले दो सालों से विधि आयोग इसकी संरचना में जुटा है. यह जिन्न कब प्रकट होगा पता नहीं और जब आयेगा तक 'क्या हुकुम मेरे आकाÓ कहकर चांदी के जूते की मार से इसके कानून भोथरे नहीं होंगे इसकी क्या गारन्टी? जरूरत इस बात की है कि बेवजह के कानून न बनाये जायें, क्योंकि ये कानून व्यवस्था में सुधार के बजाय कसाई के हाथ में गाय पहुंचाने का काम करते हैं. जो कानून हैं उनका पालन अक्षरश: करवाया जाये और जो उल्लंघन करे उसे सजा अवश्य मिले. मेडिकल स्टोरों की तुलना में फार्मसिस्ट की आधी संख्या भी न होने के बावजूद उनकी अनिवार्यता का नियम आज भी चल रहा है और इसी के साथ कागज पर उनकी तैनाती के बदले में रुपये का खुला खेल भी. सरकार व उच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद भी झोलाछाप डाक्टर आराम से आज भी प्रशासन की नाक के नीचे प्रैक्टिस करते मिल जायेंगे, बस उनसे वसूली का रेट बढ़ गया है. केन्द्र सरकार गांवों में तैनात ऐसे झोलाछापों को आवश्यक प्रशिक्षण देकर प्राथमिक इलाज का मन्सूबा बना रही है, लेकिन सब कुछ हवा में है और तब तक गांवों की कविताओं को इन हाइस्कूल फेल यमदूतों से अपना इलाज कराने को विवश होना पड़ता रहेगा. और फिर गंभीर दशा में रिफर होकर शहर के डाक्टरों के पास आना पड़ेगा क्योंकि गांवों के सरकारी अस्पतालों में तो ताला ही पड़ा रहता है. यही है हमारी व्यवस्था की नाकामी जो ऊपर से नीचे तक है जिसमें जो फंसा, वो चोर बाकी शाह.1

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