मंगलवार, 27 जुलाई 2010

खरी बात
विषैला प्रतिकार
सवर्ण अभिभावक जिस राह पर अपने बच्चों को ढकेल रहे हैं उस पर सिर्फ कांटे ही नहीं कुं आं और खाई भी हैं. इस सप्ताह रमाबाई नगर और आस-पास से लगातार खबरें आईं कि अमुक गांव के अमुक स्कूल में सवर्ण बच्चों ने इसलिए मिड-डे मील (दोपहर का सरकारी भोजन) का तिरस्कार कर दिया क्योंकि इसे दलित रसोइयों ने बनाया था. जहां से भी ये खबरें आईं तुरन्त पुलिस और प्रशासन के आला अफसर मौके पर दौड़े. खूब माथा-पच्ची हुई, पंचायत बैठी, लोगों को समझाया बुझाया गया, मान मन्न्उवल हुई. लेकिन किसी भी स्कूल के प्रधानाचार्य शिक्षाधिकारी या सवर्ण अभिभावकों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई. क्या इसतरह की घटनाएं कानूनन अपराध नहीं हैं? क्या सार्वजनिक रूप से सवर्णों का यह दलित तिरस्कार दलित उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता. एक व्यक्ति किसी कारण वश दूसरे व्यक्ति को जाति सूचक शब्द के साथ गाली देता है, तत्काल उस पर हरिजन एक्ट ठोंक दिया जाता है. क्या यह कुल दलित समाज को कुछ नामित सवर्णों की ओर से गाली नहीं है. आखिर पुलिस क्यों नहीं रिपोर्ट लिखती, क्यों नहीं उन गांव वालों को जेल में डालती जिन्होंने कोमल, पावन, सुंदर चित्त वाले बच्चों के दिल और दिमाग में 'जातीय विषÓ घोलने का काम किया है. प्रदेश में दलित उत्थान के एजेंडे वाली सरकार है. वह सरकार है जिसने सवर्णों को जूतों से मारकर सत्ता हासिल करने का डंका पीटा था. आज जब 'जूताÓ खाने का काम कुछ सिरफिरे सवर्णों ने खुलेआम किया है तो सरकार चुप्पी साधे है. प्रशासन समझदार काजी की भूमिका में नजर आ रहा है. और पुलिस पंडित जी को, ठाकुर साहब को, सेठ जी को हरिजन-एक्ट में सड़ा देने वाले तेवर नहीं दिखा रही है. सभी मामले को किसी तरह दबाने में लगे हैं. क्योंकि अगर यह चिंगारी जरा भी भड़की तो सूबे का सारा जातीय सौहार्द अनियंत्रित अराजकता में तब्दील हो सकता है. निसंदेह सरकार पुलिस और प्रशासन बेहद समझदारी और संजीदगी से काम ले रहा है. आप सोच रहे होंगे एक तरफ कानूनी कार्रवाई की पुरजोर वकालत और दूसरी तरफ लीपा-पोती का समर्थन.. आखिर यह कैसी खरी-खरी है..? तो यह खरी-खरी ऐसी है कि 'जूताÓ मारकर कोई सत्ता भले हथिया ले लेकिन जूता मारकर कोई व्यवस्था नहीं चला सकता. जिस समय मायावती ने दलित स्वाभिमान के भ्रम में सवर्णों को सार्वजनिक रूप से गरियाया था तब भी पुलिस, प्रशासन व व्यवस्था को उस विषैले बयान को संज्ञान में लेकर कठोर कार्रवाई करनी चाहिए थी. लगभग 'जूताÓ मारने जैसी ही कार्रवाई .. लेकिन 'जूताÓ से व्यवस्था कहां चलती है? शायद इसीलिए तब की सरकार मौन थी और शायद इसीलिए आज की सरकार भी मौन है. आज जब प्रदेश में मायावती की सरकार है तो यह दलितों के सामाजिक उत्थान का स्वर्णिम काम होना चाहिए. दलितों के प्रति अन्य जातियों का प्रेम बढऩा चाहिए. केवल अर्थ व्यवस्था ही नहीं सामाजिक अवस्था भी सुधारनी चाहिए दलितों की. लेकिन जब दलित का नेतृत्व निज जातीय उत्थान के लिए अन्य जातियों के खिलाफ अपमान जनक भाषा और भेद-भाव पूर्ण कानूनी कार्रवाइयों का इस्तेमाल करेगा तो प्रतिक्रिया में विषैले जातीय विद्वेष का ही जन्म होगा. पिछले हफ्ते कानपुर और कन्नौज जिलों में 'मिड-डे-मीलÓ की बहिष्कार की घटनाओं के रूप में सवर्णों की विषैली प्रतिक्रिया ही प्रकट हुई है. जातीय विद्वेष विष है. विष का व्यवहार समान होता है. वह सब को मारता है. जिन सवर्ण अभिभावकों ने अपने बच्चों का जेहनी तौर पर दलित रसोइये के हाथों खाना न खाने की 'घुट्टीÓ पिलाई है, उन्हें पता नहीं कि उनसे कितनी बड़ी खता हो गई है.ये बच्चे जिस दौर में कदम रख रहे हैं वहां अगर ये इसी मानसिकता से आगे बढ़े तो भूखों मर जाएंगे. होटलों में, शादी-ब्याह के समारोहों में, ढाबों में, यहां तक कि शहर के घरों में कौन पूछ रहा है किसकी जाति..? शहरों में तो घरों में झाड़ू-पोंछा ही नहीं, चौका-बरतन और खाना बनाने का ज्यादातर काम मुख्यत: दलित लड़कियों ने ही संभाल रखा है. शादी-ब्याह में तो खाना परोसने का काम अब दलित बहुल काम हो चुका है. आज उन्होंने जाने-अनजाने अपने बच्चों में 'विषारोपणÓ कर दिया है. जो दुनिया है उसमें जाति और धर्म का कोई व्यवहारिक महत्व नहीं बचा है. वैसे भी जाति 'संस्कारगत गुणों का समूहÓ और धर्म आध्यात्मिक विकास का नाम होता है. जब समाज को संस्कारों से और मनुष्य को 'अध्यात्मÓ से कोई लेना-देना शेष नहीं रह पा रहा है फिर दलित, सवर्ण का, हिन्दू-मुसलमान का काम क्यों..? मिड-डे-मील का यह नया मसला मेरी दृष्टि में सवर्णों का खुद अपनी पौध की जड़ों में तेजाब डालनेवाला कृत्य हुआ. सवर्ण तो वह है जो शबरी के जूठे बेर खाये.. रैदास के चरणों में बैठकर आचरण सीखे.. और अगर सामने भीमराव जैसी दलित मेधा पड़ जाये तो उसे निखारकर अम्बेडकर बना दे.1

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