रविवार, 10 अप्रैल 2011

कवर स्टोरी

श्री राम
आपदामपहर्तारं दातारां सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्री रामं भूयो-भूयो नमाम्यहम।।
नीलाम्बुज श्यामल कोमलांङ्गम सीतासमारोपितवामभागम।
पाणौमहासायक चारुचापं नमामि रामं रघुवंश नाथम।।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम केवल हिन्दुओं के आराध्य ही नहीं बल्कि स्वयं भारत की अखंड पहचान हैं,भारत और भारतीयों का अस्तित्व हैं। बिना राम के भारत और भारतीयता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। राम भारत के कण कण में बसे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम मानवता की पहचान हैं। इसीलिये भारतीय परम्पराओं में रामराज्य की बात कही गयी है। जिसके पीछे का सार्थक तर्क यह है कि जहाँ राम का नाम है वहां शुभ, मगंल, सुख, शान्ति, ज्ञान और समृद्धि ही होगी। अमंगल और अशुभ जैसा कुछ भी होगा ही नहीं।

राम महज एक नाम नहीं है बल्कि एक मंत्र है। एक ऐसा मंत्र जो हर भारतीय के हृदय में बसा हुआ है। राम केवल हिन्दुओं के आराध्य ही नहीं हैं बल्कि स्वयं में एक सम्पूर्ण संस्कृति और मानवता को स्वयं में समाये हुये हमारे लिये एक जीवन्त उदाहरण भी हैं। इसीलिये उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहा जाता है। क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन चरित्र ही समस्त मानव समाज के लिये एक ऐसा उदाहरण है जिसपर चलकर ही विश्व शान्ति और वसुधैव कुटुम्बकम् की पुरातन भारतीय मान्यता और विचार को सार्थक और यथार्थ किया जा सकता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाले नव संवत्सर की नवमी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने धरती पर अवतरण किया।
पौराणिक मान्यता के अनुरूप श्री राम का जन्म त्रेतायुग में इक्ष्वाकुवंश में हुआ था। स्वयं मानस में तुलसीदास जी ने इस बात की पुष्टि की है 'नौमी तिथि मधुमास पुनीता, भये प्रकट क्रपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारीÓ। हमारी हिन्दू परम्परा में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं माना गया है। कहने का मतलब यह है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार मनुष्य स्वयं परमपिता परमेश्वर का ही एक अंश है। इसीलिये हिन्दू मान्यताओं में हर देवी-देवताओं का अवतरण दिवस मनुष्यों के जन्म दिवस की ही भांति निश्चित किया गया है और इसके पीछे तमाम सार्थक तर्क भी हिन्दू ग्रन्थों में दिये गये हैं। जैसा कि आधुनिक इतिहासकारों में भी मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्म की अवधि को लेकर अभी भी मतैक्य नहीं हो पाया है।
इसकी भी एक वजह है। दरअसल राम स्वयं अनादि हैं अजन्मा हैं। उनका जन्म हुआ ही नहीं। वे तो स्वयं समस्त पृथ्वीवासियों की मनोकामनाओं की परिणित स्वरूप इस धरती पर अवतरित हुए थे। भारतीय पुराणों के अनुसार समय काल की गणना  कल्प के अनुसार होती है।  एक कल्प में १४ मन्वन्तर होते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर का अलग मनु होता है। अब तक ६ मन्वन्तर (पहले स्वायम्भुव, दूसरे स्वारोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पांचवे रैवत और छठवें मनु) वर्तमान में सातवें वैवस्वत मनु का काल चल रहा है। इस काल में भी २६ महायुग समाप्त होने के बाद वर्तमान महायुग के तीन युग समाप्त होकर अब कलयुग चल रहा है। भारतीय पुराणों के अनुसार चार युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग) का एक महायुग होता है। महायुग सौरमान से ४३ लाख २० हजार वर्ष का होता है। एक सहस्त्र महायुगों का एक कल्प होता है। भारतीय मान्यता के अनुसार सृष्टि रचयिता ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प का होता है और रात्रि भी एक कल्प की होती है और सात सौ बीस कल्प का ब्राह्मवर्ष माना गया है। इस प्रकार सौ ब्राह्मवर्ष स्वयं ब्रह्मा की आयु मानी गयी है।
भारतीय पौराणिक काल की गणना के अनुसार कलयुग का आरम्भ महाभारत के युद्ध के पश्चात माना जाता है। यानी ईसा से लगभग ३१ सौ वर्ष पहले। इस सम्बन्ध में डा. पुसल्कर  की किताब वैदिक ऐज में वैवस्वत मनु का समय महाभारत से १७ सौ १० वर्ष पूर्व कहा गया है। इतिहासकारों का एक वर्ग पुराणों में इक्ष्वाकुवंश की नामावली को देखकर मिथ्या अनुमान करता है कि राम कृष्ण के बाद हुये थे। अग्निपुराण के २६वें अध्याय में स्पष्ट किया गया है कि राम के पुत्र लव तथा इनके पुत्र पद्म हुये। पद्म के पुत्र ऋतुपर्ण और ऋतुपर्ण के अक्ष्वापाणि हुये। अक्ष्वापाणि के पुत्र शुद्धोधन तथा इनके पुत्र बुद्ध हुये। इस नामावली में केवल प्रमुख राजाओं का ही वर्णन है। बुद्ध का जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष से कुछ अधिक पहले हुआ था। हालांकि यह समय काल भी अभी तक विवादित ही है। इस प्रकार राम का आविर्भाव कलयुग में आता है। पुराणों और हिन्दू ग्रन्थों में कृष्ण के देहावसान से कलयुग का प्रादुर्भाव बताया गया है।
इस आधार पर मर्यादा पुरुषोत्तम के आविर्भाव की यह गणना अतार्किक और मित्था ही है।  कुल मिलाकर जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम अजन्मे हैं, अनादि हैं। इसलिये उनके  धरती पर  अवतरण के काल का निर्णय करना इतना सरल नहीं है। इसके पीछे भी एक तर्क है। हिन्दू परम्परा में पूर्वजों का इतिहास लिखने की वैसी परम्परा कभी नहीं रही है जैसा कि वर्तमान में इतिहास लिखा जाता है। जो भी ऐतिहासिक तथ्य वंशावलियां राज्यकाल इत्यादि मिलते भी हैं वो भी पुराणों और प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में कथानक के रूप में ही लिखे गये हैं। इसके पीछे भी एक सार्थक तर्क  हिन्दू परम्परा की यह मान्यता 'बीती ताहि विसार दे आगे की सुधि लेÓ मतलब जो बीत गया है उससे अगर मानवीय, आध्यात्मिक व धार्मिक विकास की कोई सीख मिले तो उसे तो हमें अपने मन-मस्तिष्क में औरों को देने, उसे आगे बढ़ाने के लिये रखना चाहिये।
बाकी सबको भूत समझकर विसार देना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने  इस धरती पर कब अवतार लिया यह काम इतिहासकारों का है। उनके अवतरण के सही-सही समय की जानकारी मिल जाने का मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र और उनके लिये हमारी श्रद्धा और महत्ता पर  कोई फर्क न तो अब तक पड़ा है और न ही आगे भी पड़ेगा।
श्री राम अनादिकाल से समस्त भारतीयों के हृदय में वास कर रहे थे, आज भी कर रहे हैं और हमेशा ही निश्चित रूप से करते ही रहेंगे। क्योंकि ऐसी कोई स्थिति है ही नहीं जो राम हमसे अलग हो सकें और हम राम से। यूं तो हिन्दू धर्म में राम से पूर्व और राम के बाद भी तमाम अवतार हुये। लेकिन उन सब में राम का महत्व बिल्कुल अलग है। हिन्दू धर्म में अवतारों की महत्ता का साहित्यिक तरीके से वृत्तांत बताने की परम्परा है।  मजे की बात यह है कि राम कथा ही सभी भारतीय भाषाओं में कही गयी। चाहे वह संस्कृत में आदि कवि बाल्मीकि कृत अखण्ड रामायण हो, तेलगू में बुद्धराज कृत रंगनाथ रामायण हो, उडिय़ा में शारलादास कृत विकंला रामायण हो, कन्नड़ में बत्तलेश्वर कृत तोरबे रामायण हो, गुजराती में भलण कृत रामायण हो,  अवधी में तुलसीदास कृत रामचरित मानस हो या अन्य तमाम भारतीय भाषाओं में लिखी गयी अलग-अलग रामायण काव्य। इसकी वजह सीधी और सपाट है और वह यह कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र ही कुछ इस तरह का है कि उससे ज्यादा आदर्श और मर्यादित इस संसार में और कुछ हो ही नहीं सकता। जो हमें मूल रूप से यही सिखाता है किसत्य मार्ग पर चलते हुये दूसरों के लिये जियो। क्योंकि मानव जीवन समस्त जीवों के कल्याण के लिये ही मिला है।
हिन्दू ग्रन्थों और राम काव्यों के नजरिये से देखा जाये तो मर्यादा पुरुषोत्तम अपने भक्तों के लिये बहुत सरल हैं। अपने नाम से लेकर अपनी मर्यादा सभी में। लेकिन अध्यात्मिकता की कसौटी पर राम अपने आप में सब कुछ समेटे हुये हैं।
शंकर, ब्रह्मा सहित अन्य देवी-देवताओं ने भी समय-समय पर भगवान राम की स्तुति की है। तुलसीदास जी की रामचरित मानस में यह उल्लेख आता है कि शंकर-सती एक बार सीता हरण के बाद आकाश मार्ग से गुजर रहे थे। नीचे जंगल में माँ सीता की  खोज में भटक रहे श्री राम को देखकर अनायाश ही भगवान शंकर ने पूर्ण श्रद्धा से भगवान राम को प्रणाम किया और उनके हृदय में भाव जगा-'हरि लोचन छवि सिन्धु निहारी, कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारीÓ। साथ चल रही पार्वती को शंका हुई कि शंकर तो जगत के ईश्वर हैं परन्तु उन्होंने नृप सुत को सच्चिदानन्द कहकर प्रणाम क्यों किया। तब भगवान शंकर ने पार्वती को रामकथा का वृत्तांत बताते हुये कहा- 'सोइ मन इष्ट देव रघुवीराÓ। इसके अलावा भी जब श्रीराम लंका पर चढ़ाई करने के लिये समुद्र किनारे पहुंचे तब विद्वानों ने उनसे समुद्र के किनारे शिवलिंग का निर्माण कर विधिवत पूजन करने का उपाय बताया। श्रीराम ने ऐसा ही किया और उस शिवलिंग का नाम रामेश्वर रखा। साथ मौजूद वानर सेना और अन्य लोगों के पूछने पर उन्होंने रामेश्वर का अर्थ बताया- राम के ईश्वर हैं जो, अर्थात शिव। कैलाश पर्वत पर पार्वती के साथ विराजे भगवान शिव से भगवान राम के रामेश्वर नाम का वर्णन सुनकर नहीं रहा गया और उन्होंने पार्वती से कहा कि वास्तव में राम आदर्श हैं और स्वयं भगवान शिव ने पार्वती को रामेश्वर का भावार्थ यह कहकर बताया कि राम ईश्वर हैं जिसके वही रामेश्वर और इसके साथ ही समस्त देवी-देवताओं ने राम द्वारा स्थापित रामेश्वर शिवलिंग पर पुष्पों की वर्षा की।
रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है कि शंकर पार्वती जी से कहते हैं कि जिसका मन राम के चरणों में अनुरक्त है वही सर्वज्ञ है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है, वही पृथ्वी का भूषण है, पंडित है और दानी है, वही धर्म परायण है। रामभक्ति संजीवनी जड़ी है तथा श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही इसका अनुपान है। इसके मनोरोग नष्ट होते हैं। 'रघुपति भगति सजीवन मूरी, अनुपान श्रद्धा मति पूरी'। जब विमल ज्ञान के जल से प्राणी स्नान कर लेता है तब प्राणी के हृदय में रामभक्ति छा जाती है। राम की भक्ति के बिना सुख नहीं है। 'राम विमुख न जीव सुख पावै' और 'हिम से अनल प्रकट बस खोई, विमुख रामसुख पाव न कोई'। हरि भक्ति बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता है। यह मानस का अटल सिद्धान्त है। 'बिनु हरि भजन भव तरिअ यह सिद्धान्त अपेल'।
भारत में प्राचीनकाल से ही यह विषय बहस का रहा है कि भक्ति श्रेष्ठ है या ज्ञान। श्रीमद भागवतपुराण में भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है। अध्यात्म में स्थिति तथा तत्व ज्ञान द्वारा परमात्मा का नित्य दर्शन हो वही ज्ञान कहा जाता है। तत्व ज्ञानी उद्धव तथा तत्वज्ञान हीन गोपियों का संवाद साहित्य का प्रिय विषय रहा। वहीं रामचरित मानस में भक्ति मार्ग की श्रेष्ठता को महिमा मंडित किया गया है। लेकिन भक्ति और ज्ञान में भेद नहीं किया गया है। भेद वस्तुत: कृतिम है। ज्ञान कहने, समझने में कठिन है तथा साधन करने में भी कठिन है। यदि संयोगवश ज्ञान प्राप्त भी हो जाये तो इसे सुरक्षित रखने में अनेक विघ्न आते रहते हैं। 'कहत कठिन, समुझत कठिन, साधन कठिन विवेकÓ।
मर्यादा पुरुषोत्तम को समझने और उनकी कृपा पाने के लिये ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। बल्कि उनकी कृपा पाने में ज्ञान तो काफी हद तक बाधक ही है। क्योंकि  ज्ञान का आधार बुद्धि जो दोषमुक्त नहीं है जबकि भक्ति का आधार हृदय है। जो दोषमुक्त हो सकता है। यदि हृदय में भक्ति का भाव और वास हो ठीक वैसे ही जैसे कि कबीरदास जी ने अपने दोहे में कहा है कि- 
आठ पहर चौंसठ घड़ी मेरे और न कोय, नैना माहीं तू बसे नींद को ठौर न होय।।
जब भक्त की यह स्थिति हो जाती है तभी वह राम को समझ सकता है। जिसका सीधा सा मतलब है कि राम को समझने के लिये सब कुछ विसारना पड़ता है। क्योंकि जहाँ राम हैं वहाँ और कोई नहीं,और कोई हो ही नहीं सकता। इसी लिये राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं,भगवान हैं जीवन के आधार हैं। जब राम की कृपा मिल जाती है तो उसके बाद फिर कोई अन्य आवश्यकता नहीं रह जाती है।1

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