शनिवार, 23 अप्रैल 2011

खरी बात

फेवीकोल का मजबूत जोड़
 दरअसल प्रेस क्लब की गद्दी पर चिपक जाने की परम्परा की शुरूआत शहर के वरिष्ठ और समझदार कहे जाने वाले हमारे वयोवृद्घ पत्रकार विष्णु त्रिपाठी ने शुरू की थी। उन्होंने ही प्रेस क्लब कमेटी की सीटों के ऊपर फेवीकोल का पोस्टर चिपकाया था जिसका असर आज भी देखने को मिल रहा है।


प्रेस क्लब की परम्परा  ही कुछ ऐसी है कि यहां की कुर्सी पर जो  भी एक बार बैठ गया  उसने जब तक उठने का नाम नहीं लिया जब कि उसे हिलाकर उठाया या भगाया नहीं गया। एक दिन टीवी पर फेवीकोलका विज्ञापन देख रहा था  जिसमें इधर-उधर भागते एक शरारती बच्चे की मां अजिज आकर बच्चे को फेवीकोल के खाली डिब्बे में बैठा देती है और बच्चा चिपक कर वहीं बैठा रहता है। यह विज्ञापन पहले मेरी समझ में पूरा नहीं आता था। पर जबसे प्रेस क्लब की कमेटी पर निगाह डाली है तब से मानने लगा हूं कि यह विज्ञापन सत्य घटना पर आधारित है।
दरअसल प्रेस क्लब की गद्दी पर चिपक जाने की परम्परा की शुरूआत शहर के वरिष्ठ और समझदार कहे जाने वाले हमारे वयोवृद्घ पत्रकार विष्णु त्रिपाठी ने शुरू की थी। उन्होंने ही प्रेस क्लब कमेटी की सीटों के ऊपर फेवीकोल का पोस्टर चिपकाया था जिसका असर आज भी देखने को मिल रहा है। भई कमाल का असरीला है यह फेवीकोल शुरूआत से बात करें तो प्रेस क्लब के संस्थापक सदस्यों स्व. नरेन्द्र मोहन गुप्ता, खान गुफरान जैदी,  सईदुल हसन नकवी तक तो सब ठीक ठाक चलता रहा। विष्णु त्रिपाठी के पहली बार अध्यक्ष बनने के साथ ही पहला काम तो यह हुआ कि संवाददाता संघ का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया गया। इसके बाद विष्णु त्रिपाठी और योगेश बाजपेयी वाली प्रेस क्लब कमेटी मन लगाकर पहली बार ऐसी जमी कि हटने का नाम ही नहीं लिया। उस समय का माहौल आज के माहौल से थोड़ा जुदा था। इस कमेटी का भी आम विरोध हुआ। अमर्यादित तमाशे के बाद त्रिपाठी  जी को हटाकर दुबारा चुनाव कराये गये। फिर सईदुल हसन नकवी और शैलेन्द्र दीक्षित की अगुवाई में कमेटी बनी। इस दौरान महामंत्री शैलेन्द्र दीक्षित का कानपुर से वास्ता टूट गया। वह आगरा चले गये। उनका पदभार सम्भाला अरुण अग्रवाल ने। अरुण अग्रवाल और नकवी साहब भी वर्ष दर वर्ष प्रेस क्लब को भोगते रहे। फिर हो-हल्ला हुआ और  फिर चुनाव कराया गया। इस बार अध्यक्ष बने शैलेन्द्र दीक्षित और महामंत्री प्रमोद तिवारी। दीक्षित जी और तिवारी जी की जुगल जोड़ी भी प्रेस क्लब में तीन साल तक डटी रही। आखिर में ये लोग भी स्वेच्छा से हटे नहीं बल्कि हटाये गये।
हांलाकि प्रमोद तिवारी और शैलेन्द्र दीक्षित का कार्यकाल प्रेस क्लब का स्वर्णिम कार्य काल कहा जाता है और ऐसा है भी क्योंकि इसी कमेटी  ने प्रेस क्लब का पुनरुद्घार करवाया जहां आज शहर के सारे पत्रकार आराम से  जा कर ठंडी हवा खाते हैं और आराम फरमाते हैं। इसके अलावा खास पत्रकारों के लिए बनी योजना पत्रकारपुरम भी इसी जुगल जोड़ी की ही देन है। जहाँ आज भी शहर के न जाने कितने पत्रकारों के मकान बने हैं, वह अलग बात कि तमामों ने अपने नाम आवंटित मकान मुनाफे में बेंच डाले। कुल मिलाकर यही एक मात्र ऐसी कमेटी थी जिसके शहर के पत्रकारों को कुछ दिया था और पत्रकारों के हित की लड़ाई भी लड़ी। खैर जो भी हो इस कमेटी ने भी खुद इस्तीफा नहीं दिया इसको भी हटाया गया और इसको हटाकर विष्णु त्रिपाठी और जमील साहब की एक कार्यकारी कमेटी बनाई गयी। यह कार्यकारी कमेटी प्रेस क्लब का काम काज देखने के लिए नहीं चुनाव कराने के लिए बनायी गयी थी। लेकिन कमाल की बात यह थी कि चुनाव कराने के लिए बनायी गयी त्रिपाठी जी की यह कमेटी उस कमेटी से भी ज्यादा समय तक कुर्सी से चिपकी रही जिसे हटा कर इसे चुनाव कराने की बागडोर सौंपी गयी थी।  स्वेच्छा से तो कोई हटता नहीं है तो त्रिपाठी जी की यह कमेटी भी कहाँ हटती सो इन्हें भी जबरन हटाना पड़ा। चुनाव की तैयारियाँ हुई पूर्व महामंत्री प्रमोद तिवारी की सदस्यता ही समाप्त कर दी गयी बाकी बचे शैलेन्द्र दीक्षित तो अच्छा ही हुआ कि वो पहले ही बिहार कूच कर गये थे वरना सदस्यता तो उनकी भी नहीं रहती। खैर जैसे-तैसे चुनाव हुए अध्यक्ष बने अनूप बाजपेयी और महामंत्री कुमार।
इस कमेटी ने तो कुर्सी से चिपकने के पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। कुर्सी के ऊपर लगे फेवीकोल के पोस्टर को साफ कर यह कमेटी कुर्सी से ऐसी चिपकी कि नौ साल बीत जाने के बाद आज भी अन्दर से कुर्सी से हटने का मन नहीं बना पा रही है। इसलिए इसकमेटी के साथ भी वही हुआ, पिछला इतिहास एक बार फिर दोहराया गया। मतलब इनको भी झकझोर कर कुर्सी से हटाना पड़ा। बहरहाल अब नये कमेटी के चुनाव की तैयारियां की जा रही हैं। इस उम्मीद के साथ कि प्रेस क्लब की सीटों के ऊपर लगाफेवीकोल का मनहूस पोस्टर अब शायद हटेगा और अगले साल प्रेस क्लब अपने नये अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारियों से रू-ब-रू होगा।
शैली दुबे

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