शनिवार, 16 अप्रैल 2011

कवर स्टोरी

अहिंसा
परमोधर्म:
भारतीय दर्शन में मनुष्य के लिये काम,क्रोध,मद,लोभ,मोह ये पाँच महाशत्रु बताये गये हैं जो मनुष्य के भीतर ही रहते हैं और संसार की सभी बुराइयों का मूल हैं। और इन पाँच शत्रुओं में से क्रोधया हिंसा तो मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। अगर मनुष्य हिंसा को वश में कर ले उस पर विजय पा ले तो समस्त विश्व में शांति और प्रेम का विस्तार होगा और हर जगह खुशहाली होगी। जैन धर्म में भी इन पाँचों को मनुष्य का शत्रु ही बताया गया है और अहिंसा के सदाविचार पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया गया है जो आज हमारे लिये सबसे बड़ी आवश्यकता है।
समस्त विश्व को शान्ति,अहिंसा प्रेम का ज्ञान देने वाले जैन  धर्म की महत्ता आज इस वैर वैमनस्याता और कलह भरी दुनिया में शान्ति चाहने वाले बखूबी जानते हैं। आज के परिवेश में हमें जैन धर्म के उपदेशों और मान्यताओं की ही परमावश्यकता है जो हमें त्याग और अहिंसा की अनमोल नीति और ज्ञान देता है। जैन धर्म भारत के प्रचीन धर्मों में से ही एक है। ऐतिहासिक तथ्यों को देखने पर पता चलता है कि अगर भारत को विश्वगुरु कहा जाता है तो वह अक्षरश: सत्य ही है। इसकी वजह भी बिल्कुल स्पष्ट है क्योंकि यही वह पुण्य प्रतापी धरती है जहाँ से कई मौलिक और श्रेष्ठ मान्यताएँ, परम्पराएँ और दर्शन निकले जो कालान्तर में इतने ज्यादा प्रभावी और उपयोगी हुए कि धर्म के रूप में स्थापित हो कर सामने आये। वैसे पुरातन हिन्दु ग्रन्थों के अनुसार धर्म का अर्थ है च्धार्यति इति धर्म:ज् जो धारण किया जाय अर्थात जिसका निर्वहन और वहन किया जाय वही धर्म है। भारत की धरती से विश्वशान्ति और समृद्धि के लिये जिन धर्मों का उद्गम हुआ उनमें से एक महत्वपूर्ण और विश्व को शांति का संदेश देन वाला जैन धर्म भी है।
 जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है । च्जैनज् उन्हें कहते हैं  जो च्जिनज् के अनुयायी हों। च्जिनज् शब्द बना है च्जिज् धातु से। च्जिज् माने-जीतना। च्जिनज् माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं च्जिनज्। जैन धर्म अर्थात च्जिनज् भगवान का धर्म। जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-
णमो अरिहंताणं॥
णमो सिद्धाणं॥
णमो आयरियाणं॥
णमो उवज्झायाणं॥
णमो लोए सव्वसाहूणं॥
एसो पंच णमोकारो॥
सव्व पावपणासणो॥ मंगलाणं च सव्वेसिम॥
पदमं हवई मंगलं॥
अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।
 जैन मतावलम्बियों का अभिमत है कि जैन धर्म की भगवान महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त है, उसके वाचक निगंठ धम्म (निर्ग्रन्थ धर्म), आर्हत् धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं। जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ जी के समय तक च्चातुर्याम धम्मज् था। धर्म साधक अत्यन्त ऋजु,प्रज्ञ एवं विज्ञ थे। वे स्त्री को भी परिग्रह के अंतर्गत समझकर बहिद्धादान में उसका अन्तर्भाव करते थे। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की।
जिसमें ब्रह्मचर्य व्रत का अलग से उल्लेख किया है। पूज्यपाद ने महावीर के विभाग-युक्त चारित्र का स्वरूप बताया है। ये विभाग महावीर स्वामी के पहले नहीं थे। जैन धर्म के चौबिस तीर्थंकरों में से महावीर स्वामी का महत्व इस दृष्टि से भी अलग है कि उन्होंने उग्र तपस्या करके संघर्षों को सहज रूप से झेलने का एक मानदंड स्थापित किया तथा आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चरित्र से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बना कर भारतीय मनीषा को नया आयाम दिया।  महावीर स्वामी का जन्म दिन चैत्र शुकल  त्रयोदशी को महावीर स्वामी जन्म कल्याणक  पर्व के रूप में मनाया जाता है । जैन ग्रन्थों के अनुसार भगवान् महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व (आधुनिक गणना के अनुसार २७ मार्च) चैत्र शुक्ल त्रयोदशी उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र सोमवार कुन्डल पुर (बिहार) में हुया था। पूरे विश्व में जैन धर्मावलम्बी महावीर स्वामी का जन्म दिवस बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।1

2 टिप्‍पणियां:

  1. धर्म का अर्थ - सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) ।
    व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
    सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
    व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    धर्म सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
    धर्म एवं ‘उपासना द्वारा मोक्ष’ एक दूसरे आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
    कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

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  2. वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।

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