शनिवार, 2 अप्रैल 2011

कवर स्टोरी

नम: आद्या शक्ति

हिन्दू दर्शन विश्व की तमाम संस्कृतियों और धर्मों में सबसे श्रेष्ठ इसलिये माना जाता है क्योंकि हमारे हिन्दू धर्म में शक्ति आराधना का विशेष महत्व है और तमाम धार्मिक ग्रन्थों और वेद-पुराणों में इस पूरी सृष्टि को ही आद्याशक्ति मां दुर्गा की रचना बतायी गयी है। यही एक मात्र वह धर्म है जहां पर सम्पूर्ण नारी जाति को ही साक्षात देवी का दर्जा प्राप्त है। जैसा कि विश्व के किसी दर्शन या किसी भी धर्म में नहीं मिलता है। शक्ति द्वारा समस्त सृष्टि की संरचना के बारे में यह मान्यता है कि स्वयं भगवान शिव विष्णु और ब्रह्मा भी शक्ति द्वारा ही संरचित किये गये हैं।
दुर्गा सप्तशती के प्राधानिकं रहस्यं में स्पष्ट किया गया है कि त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही समस्त देवी-देवताओं का आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्य रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं। जो अपनी चार भुजाओं में मातुलुंग, गदा, ढाल और पानपात्र तथा मस्तक पर नामलिंग तथा योनि इन वस्तुओं को धारण करती हैं। माता महालक्ष्मी ने ही अपने तेज से इस शून्य जगत को शून्य देखकर सर्वप्रथम तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा अपना ही एक अन्य उत्कृष्ट रूप  धारण किया। इस रूप की कान्ति काले रंग की, नेत्र बड़े-बड़े और चार भुजायें जिनमें ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुये मस्तक से सुशोभित थीं तथा वक्षस्थल पर कबन्ध की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये थीं।  मां महालक्ष्मी ने इस तामसी देवी को महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा,तृष्णा,एकवीरा,कालरात्रि तथा दुरत्यया नाम दिये। इसके पश्चात महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्वगुण के द्वारा चन्द्रमा के समान गौरवर्ण का दूसरा रूप धारण किया। जिसे महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी नाम दिये। इसके बाद महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से अपने-अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोड़े उत्पन्न करने को कहा और पहले महालक्ष्मी ने स्वयं स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा उत्पन्न किया तथा पुरुष को ब्रह्मन, विधे, विरिंच तथा धात: और स्त्री को श्री पद्मा, कमला, लक्ष्मी इस नाम से सम्बोधित किया। इसके बाद महाकाली ने कण्ठ में नील चिन्ह से युक्त और मस्तक पर चन्द्र मुकुट धारण किये पुरुष अर्थात शिव और गौरवर्णीय पार्वती को उत्पन्न किया। महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा तथा श्याम रंग के पुरुष जिनका नाम विष्णु, कृष्ण, ऋषिकेश, वासुदेव, जर्नादन को उत्पन्न किया। इसके बाद महालक्ष्मी ने सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्नी रूप में समर्पित किया। रुद्र को गौरी तथा भगवान विष्णु को लक्ष्मी दी। ब्रह्मा सरस्वती ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया। रुद्र गौरी ने उसका भेदन किया। जिससे पंचमहाभूतात्मक जगत की उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी और विष्णु ने जगत का पालन-पोषण किया और प्रलय काल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत का संहार किया। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और संचालन प्रक्रियाप्रारम्भ हुई।1
कलश स्थापना

देव पूजन में कलश स्थापना का सर्वाधिक महत्व है। वैदिक और  पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विधिवत कलश स्थापना किये बिना कोई भी पूजा अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता है और न ही उस पूजा अनुष्ठान की फल प्राप्ति होती है। इसलिये किसी भी पूजा अनुष्ठान का  'श्री गणेश' विधिवत कलश स्थापना के साथ ही करना चाहिये।
    कलश स्थापना के लिये सर्वप्रथम मिट्टी या धातु का सम्पूर्ण कलश (टूटा-फूटा न हो) का प्रयोग करना चाहिये। कलश में रोली से स्वातिक चिन्ह बनाकर कलश के गले में तीन धागा वाली मौली(कलावा) लपेटें और कलश के एक ओर रख लें।
  कलश के सम्मुख ही कच्ची मिट्टी या धातु की बनी मां गौरी की स्थापना भी करनी चाहिये। जहां कलश स्थापित  करना हो उस भूमि अथवा पाटे पर कुमकुम या  रोली से  अष्टदल कमल बनाकर निम्न मंत्र से भूमि से का स्पर्श करना चाहिये। मंत्र है
ॐ  भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धत्र्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ ँ ् ह पृथिवीं मा हि ँ ् सी:।।
निम्नलिखित मंत्र पढ़कर पूजित भूमि पर सप्तधान्य  (जौ, धान, तिल, कंगनी, मूंग, चना, सावा)अथवा गेंहू, चावल या जौ रख दें। इस धान्य पर निम्नलिखित मंत्र पढ़कर कलश की स्थापना करें।
ॐ आ जिघ्न कलशं मह्या त्वा विशन्त्विन्दव:।
पुनरुर्जा नि वर्तस्व सा न: सहस्त्रं धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनर्मा विशताद्रयि:।।
तत्पश्चात निम्नलिखित मंत्र पढ़कर कलश में जल छोड़ें।
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद।।
इसके बाद निम्नलिखित मंत्र पढ़कर कलश में चन्दन छोड़ें।
ॐ  त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पति:। त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान् यक्ष्मादमुच्यत।।
इसके बाद कलश में निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ सर्वौषधि (मुरा जटामासी, वच, कुष्ठ, शिलाजीत, हल्दी और दारु हल्दी, सठी, चम्पक, मुस्ता ये सर्वौषधि कहलाती हैं।) छोड़ें।
ॐ  या ओषधी: पूर्वाजातादेवेभ्यस्त्रियुगंपुरा। मनै नु बभ्रुणामह ँ ् शतं धामानि सप्त च।।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ कलश में दूब छोड़ें।
ॐ  काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुष: परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्त्रेण शतेन च।।
इसके पश्चात कलश पर निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुये पंच पल्लव (बरगद, पीपल गूलर, आम, पाकड़ ये पंच पल्लव हैं)  रख दें।
ॐ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता। गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम्।।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये कलश में कुश छोड़ें।
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभि:। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्काम: पुने तच्छकेयम्।।
इसके पश्चात  निम्नलिखित मंत्र का जाप कर कलश में सप्तमृत्तिका (घुड़साल, हाथीसाल, बाँबी, नदियों के संगम, तालाब, राजा के द्वार और गौशाला इन सात स्थानों की मिट्टी को सप्तमृत्तिका कहते हैं।) छोड़ें।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ कलश में सुपारी छोड़ें।
ॐ  या: फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणी:। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व ँ ् हस:।।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र के साथ कलश में पंच रत्न (सोना, हीरा, मोती, पद्मराग और नीलम ये पांच रत्न कहे जाते हैं।)डालें।
ॐ  परि वाजपति: कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत् । दधद्रत्नानि दाशुषे।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र पढ़कर कलश में दृव्य (दक्षिणा सोने, चांदी या कोई भी प्रचलित सिक्का) डालें।
ॐ  हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्यजात: पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम्।।
इसके पश्चात  निम्नलिखित मंत्र के साथ कलश को वस्त्र से अलंक्रत करें।
ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमास्सदत्स्व: वासो अग्ने विश्वरूप ँ ् सं व्ययस्व विभावसो।।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र के साथ चावल से भरे पूर्ण पात्र को कलश पर स्थापित करें
ॐ  पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज ँ ् शतक्रतो।।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र के साथ पात्र पर लाल कपड़े से लपेटा हुआ नारियल रखें।
ॐ या: फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणी:। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व ँ ् हस:।।
अब कलश में देवी का आह्वान करना चाहिये। सबसे पहले हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर निम्नलिखित मंत्र से वरुण का आह्वान करना चाहिये।
ॐ  तत्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश  š   समान आयु: प्र मोषी:।।
अस्मिन् कलशे वरुणं साङ्गं सपरिवारं सायुधं सशक्तिकमावाहयामि।
ॐ भूर्भुव: स्व: भो वरुण! इहागच्छ, इह तिष्ठ, स्थापयामि, पूजयामि, मन पूजां गृहाण।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र पढ़कर अक्षत और पुष्प कलश पर छोड़ दें।
ॐ अपां पतये वरुणाय नम:।।
इसके पश्चात हाथ में अक्षत पुष्प लेकर चारो वेद एवं समस्त देवी देवताओं का आह्वान करें और उसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र से कलश की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।
ॐ  मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ  ँ् समिमं दधातु। विश्वे देवास इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ।। कलशे वरुणाद्यावाहितदेवता: सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये अक्षत पुष्प कलश के पास छोड़ दें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये पुष्प समर्पित करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:, ध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये अक्षत  कलश के पास छोड़ दें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये जल कलश के पास छोड़ दें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: पादयो: पाद्यं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये स्नानीय जल कलश के पास छोड़ दें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: स्नानीयं जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये आचमनीय जल कलश के पास छोड़ दें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये पंचामृत से स्नान करायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: पंचामृतस्नानं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये जल में मलयचन्दन मिलाकर स्नान करायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: गन्धोदकस्नानं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये शुद्ध जल से स्नान करायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये आचमन के लिये जल चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये वस्त्र चढ़ायें
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: वस्त्रं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये आचमन के लिये जल चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये यज्ञोपवीत चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: यज्ञोपवीतं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये यज्ञोपवीत का आचमन के लिये जल चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: यज्ञोपवीतं आचमनीयं जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये उपवस्त्र चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: उपवस्त्रं (उपवस्त्रार्थे रक्तसूत्रम)  समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये आचमन के लिये जल चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: उपवस्त्रं आचमनीयं जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये चन्दन लगायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: चन्दनं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये अक्षत समर्पित करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: अक्षतान्  समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये पुष्प और पुष्पमाला चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: पुष्पं (पुष्पमालाम्) समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये विविध परिमल द्रव्य समर्पित करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये सुगन्धित द्रव्य (इत्र) चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: सुगन्धितद्रव्यं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये धूप आघ्रापित करायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: धूपमाघ्रापयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये दीप दिखायें। (दीप दिखाकर हाथ धो लें)
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: दीपं दर्शयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये नैवेद्य निवेदित करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: सर्वविधं नैवेद्यं निवेदयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये आचमन एवं पानीय तथा मुख और हस्तप्रक्षालयन के लिये जल चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: आचमनीयं जलम् , मध्ये पानीयं जलम् , उत्तरापोअशने, मुखप्रक्षालनार्थे, हस्तप्रक्षालनार्थे च जलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये करोद्वर्तन के लिये गन्ध समर्पित करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: करोद्वर्तनं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये सुपारी, इलाचयी, लौंह सहित पान चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: ताम्बूलं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये द्रव्य- दक्षिणा चढ़ायें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: कृताया: पूजाया: साद्गुण्यार्थे  द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये आरती करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: आरार्तिकं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये पुष्पांजलि समर्पित करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये प्रदक्षिणा करें।
ॐ वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम: प्रदक्षिणां समर्पयामि।

देवदानवसंवादे मथ्यमाने महोदधौ।
उत्पन्नोअसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयं ।।
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवा: सर्वे त्वयि स्थिता:।
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणा: प्रतिष्ठिता:।।
शिवा: स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापति:।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा: सपैतृका:।।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेअपि यत: कामफलप्रदा:।
त्वत्प्रसादादिमां पूजां कर्तुमीहे जलोद्भव।
सांनिध्यं कुरु में देव प्रसन्नो भव सर्वदा।
नमो नमस्ते स्फटिकप्रभाय सुश्वेतहाराय सुमङ्गलाय।
सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधिनाथाय नमो नमस्ते।।
ॐ  अपां पतये वरुणाय नम:।
इसके पश्चात निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करते हुये पुष्प समर्पित करें।
ॐ  वरुणाद्यावाहितदेवताभ्यो नम:, प्रार्थनापूर्वकं नमस्काराम् समर्पयामि।
कलश स्थापना के बाद साधक देवी की विधिवत आराधना प्रारम्भ कर सकता है। उच्चारण की सुविधा हेतु ँ ् का उच्चारण गुम् की तरह किया जाना चाहिए। ऐसा शास्त्रों में प्रशस्त है।
   कलश स्थापना के पूरे विधि-विधान में भावना का विशेष महत्व है। हिन्दू ग्रन्थों में कई बार कई जगह यह स्पष्ट भी किया गया है कि देव साधक की भावना का इच्छुक होता है।  इसलिये यदि इस पूरे विधान में बतायी गयी सामग्रियों  (जैसे- पंचरत्न, पंचौषधि आदि )का अभाव हो तो साधक अक्षत या मौलि को ही बतायी गयी सामग्री के भाव से देव  को समर्पित कर सकता है। इसमें किसी भी प्रकार का दोष शास्त्र सम्मत दृष्टि से नहीं माना गया है।1

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