सोमवार, 13 सितंबर 2010

जमींदोज किसान

बर्बादी का एक्सप्रेस वे

विशेष संवाददाता

किसान से आसान कुछ नहीं. उसे देव भी सताये और दैत्य भी. अभी देखिए २६ अगस्त को संसद घेरने की किसानी हुंकार को उत्तर प्रदेश की मुखिया मायावती ने पूर्ण समर्थन दिया वही किसान जब अलीगढ़ में अपनी जमीन बचाने के लिए सड़क पर उतरा तो उसके आंदोलन को कुचलने में लग गई. पुलिस की गोलाबारी में तीन किसानों की मौत हो गई. मौत क्या हुई राजनीति की पौबारा हो गई. कांग्रेस, सपा, भाजपा और बसपा सब किसानों के हिमायती हो गए. राहुल गांधी तो दलित की कुटिया से किसान की खटिया तक जा पहुंचे. टप्पल में बारिश में भीगते हुए जब उन्हें किसानों के साथ मंच पर खड़ा देखा गया तो कहने वालों ने कहा कि यह तो बाप और दादी से भी दो कदम आगे हैं..। चाहे इन्दिरा जी रही हों चाहे राजीव गांधी, किसानों के बीच इसबार प्रदेश में गंगा और जमुना के दो अरब क्षेत्र में आंदोलन पनप रहा है. एक अनुमान के अनुसार गंगा-यमुना एक्सप्रेस वे जैसी विकास की परियोजनाओं से करीब २५ हजार के आस-पास गांव प्रभावित होंगे. अकेले नोएडा से आगरा तक यमुना एक्सप्रेस वे में १२ सौर गांवों के लगभग ७ लाख से ज्यादा किसान परिवार प्रभावित हो रहे हैं.लाजमी है कि विकास होगा तो कुछ लोग प्रभावित होंगे. लेकिन जानने वाली बात यही है कि प्रभावित हमेशा आदिवासी और किसान ही क्यों होता है. विकास के नाम पर उसी की बलि क्यों ली जाती है. क्या यह उसकी नियति है कि जिंदगी भर वह शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से महरूम रहे. और शहर के लोगों को यह सब जल्दी मिले, इसके लिए एक दिन उसका आशियाना भी उजाड़ दिया जाए.अलीगढ़ में किसानों के उग्र आंदोलन और राज्य के अन्य हिस्सों में भी इसकी आग फैलने की आशंका को देखते हुए मायावती सरकार पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ गई है. मामले की न्यायिक जांच के अलावा मृतक के परिजनों को पांच के बजाए 10 लाख रुपए देने और 450 के बजाए 570 रुपए प्रति वर्ग मीटर मुआवजा देने के प्रस्ताव के बावजूद किसान आंदोलन वापस लेने के मूड में नहीं हैं. स्थानीय किसान नेता और कांग्रेस के महासचिव राम बाबू कटैलिया के सरकार से समझौते करने के बावजूद किसानों का कहना है कि वे नोएडा की तरह 850 रुपए प्रति वर्ग मीटर के मुआवजे की अपनी मांग पर अड़े रहेंगे. कल यदि किसानों को 850 रुपऐ प्रति वर्ग मीटर या उससे अधिक भी मिल जाए लेकिन मौजूं सवाल यही उठता है ऐसी स्थिति हमेशा बनती ही क्यों है. ऐसा उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के किसी भी अन्य राज्यों में भी देखने को क्यों मिलता है. पहले यह बांधों-खदानों के नाम पर होता था. फिर 'सेजÓ के नाम पर हुआ और अब ई-एक्सप्रेस-वे और ई-टाउनशिप के नाम पर हो रहा है. बांधों से बनी बिजली आज तक गांवों में नहीं पहुंच पाई. खदानों के खनिजों से सरकार और कंपनियों ने अपने खजाने तो भर लिए लेकिन वहां बसे आदिवासियों की कभी सुध नहीं ली. 'सेजÓ के नाम पर हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन किसानों से ले ली गई लेकिन स्थानीय किसानों को 'सेजÓ कंपनियों में नौकरी देने की बात हवा हो गई. और अब एक्सप्रेस वे और टाउनशिप आ गई है. कल को कुछ और आ जाएगा. जमींदोज तो किसान ही होंगे. ऐसे में ठेठ गांव का जागा किसान महेन्द्र सिंह टिकैत का यह कहना कतई काबिले गौर है कि सरकार किसानों की सबसे बड़ी दुश्मन है. जिस चीज के सरकार किसानों को दो रुपये देती है उसी चीज को आगे दो हजार रुपये में बेचती है. वही दो हजार रुपये की चीज आगे २० हजार की कीमत ररखने लगती है. यह कौन सा विकास है. यह तो व्यापार भी नहीं हुआ. खुली लूट हुई. अगर सरकार व्यापार करना चाहती है तो किसानों से व्यापारी की ही तरह बात करे. यह लूट तो बर्दाश्त के बाहर है.

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