शुक्रवार, 27 मई 2011

आ गई... आ गई

मैरा एक मित्र इन दिनों कानपुर आया हुआ है, वह भी मुंबई से। उसने अभी कल ही मुझसे पूछा कि 'यार, कानपुर में कभी-कभी अचानक पूरा का पूरा मोहल्ला आ गयी... आ गयी.. आ गयी.. काहे को चिल्लाने लगता है। आखिर ऐसी क्या चीज आ जाती है कि पूरा का पूरा मोहल्ला चिल्लाने लगता है और वह भी एक साथ। कभी मुझसे भी मिलवाओ उससे। जरूर उसमें कुछ न कुछ तो खास बात होगी ही। इतना हुल्लड़ तो हमारे यहां मुंबई में तब भी नहीं मचता जब स्टेज पर रानी मुखर्जी के सामने 'बिना शर्ट पहने अपने सल्लू मियां इंट्री लेते हैं।' ...मैं अपने दोस्त को क्या बताता.. लेकिन छुपाता भी तो कब तक... मैंने कहा, 'यार, कुछ नहीं... बस बिजली आती है।' जिसकी खुशी में पूरा मोहल्ला चिल्ला उठता है... आ गयी.. आ गयी...।' मित्र का अगला प्रश्र था कि '.... तो फिर बिजली जाती कहां है?'  इसका जबाव भी मेरे लिए दूभर ही था। मैंने कहा, 'भइए, अगर मुझे यह मालूम होता कि जाती कहां है तो आ गयी.. आ गयी.. चिल्लाने वालों में मैं खुद शामिल क्यों होता? ...फिर तुम ये सब बातें छोड़ों। कुछ दिन अगर तुम भी इस शहर में रह गये तो खुद ही पसीने से तर बनियाइन मुंह से फूंकते हुए चिल्लाते घूमोगे ...आ गयी ...आ गयी।'  तभी जोरों से आवाजें आने लगी आ गयी ...आ गयी ...आ गयी। मित्र महोदय ने मुझे देखा फिर छत पर टंगा खामोश पंखा....। पंखा धीरे-धीरे डोलने लगा था।
प्रमोद तिवारी 

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