शनिवार, 29 जनवरी 2011

प्रथम पुरुष

बाकी है मैला ढोने की प्रथा का अन्त
सिर पर मलवा ढोने की प्रथा. नवम्बर २०१० को पूर्णत: समाप्त हो गयी सरकार की योजना के अनुसार परन्तु यह अधूरा सत्य है. आज भी रेलवे प्रशासन एवं उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वीकारा कि प्रथा पूर्णत: बन्द नहीं है. अन्य राज्य भी  झूठ बोल रहे हैं क्योंकि सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने तमाम सबूत तस्वीरों सहित पेश किये हैं. उनके अनुसार आज भी देश में तीन लाख सफाई कर्मचारी यह काम कर रहे हैं. इसके लिये वह स्वयं एवं सरकार दोषी है.
अभी तक इस प्रथा को समाप्त करने को दो उपाय करे गये एक तो सूखे शौचालयों को फ्लश टाइप में बदलना और इस काम में लगे सफाई कर्मचारियों कि अन्य कार्य में लगाना. पहला उपाय  तो हो गया परन्तु उनको अन्य कार्य दिलाना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि सफाई कार्य (मैला ढोना) से जुड़े गन्दे काम का दाग मिटाना बहुत कठिन है. इसके लिये सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति करने की प्रणाली और नीतियों को बदलना होगा. अन्यथा यह प्रथा पूर्णत: समाप्त नहीं होगी. यद्यपि सूखे शौचालयों की संख्या कम हो गयी है परन्तु अभी भी उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और बिहार में २.४ लाख सूखे शौचालय हैं अतएव आवश्यक है हाथ के द्वारा सफाई करने की परिभाषा में अन्य गन्दे तरीकों से शौचालय आदि को साफ करना भी जोड़ा जाये. शहरों, कस्बों एवं गरीबों के क्षेत्रों में मलमूत्र बहा देते हैं बहाया जा रहा है यह न तो सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं और न ही  जमीन के अन्दर गहरे गड्ढों से खुले नाले में बहाने से स्लेज और मलमूत्र नालों में ठहर जाता है जिसे सफाई कर्मचारी द्वारा हटाना पड़ता है फावड़े या हाथों से. एक ही जाति या सम्प्रदाय द्वारा यह काम करा जायेगा. इसके लिये इस कार्य को गन्दा और निम्नतम कार्य समझना भी छोडऩा होगा सभी जाति के व्यक्तियों को इस कार्य को करने के लिये आगे आना होगा. कुछ लोग अपने शौचालय साफ करने लगे हैं. किसी भी व्यक्ति से अन्य व्यक्तियों के मलमूत्र को अपने सर पर ढुलवाना सबसे बड़ा अपराध है उस व्यक्ति के मानवीय अधिकार छीनने का. वह जीवन भर बीमारियां झेलता है और महसूस करता है इन्सान नहीं है जानवर से भी गया बीता है. सफाई कर्मचारियों को भी अपनी सोच बदलना होगा. वह इसे अपना काम न समझे इस पर अपना हक न जतायें. वे पढ़े-लिखे और अन्य कार्यों में आयें. हम भी उनसे कोई कार्य कराने में न हिचके.
बाल्मीकि दलित नाम की जाति इसमें डोम, हेला, आदी अरुण दतिमार, माडिगा, रेली, पाखीज, चेकीलियार इत्यादि आते हैं का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिये. वर्ण व्यवस्था की अब कोई जरूरत नहीं. अवसर सभी को कार्य क्षमता के अनुसार परन्तु सभी व्यक्ति बराबरी के माने.1

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