शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

खरी बात

न्याय को अब आमआदमी

से सहानुभूति नहीं रही

हाल ही में देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ही आलोचना की है. आलोचना करते हुए कहा है कि वैश्वीकारण की दौड़ में आम आदमी का दर्द समझने में दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के शीर्ष न्यायालय की न्यायायिक प्रक्रिया में आम आदमी के प्रति सहानुभूति खत्म होती जा रहा हैं. आम आदमी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की अपनी ही आलोचना पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक आदेश की चुनौती याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी और ए के गांगुली की खण्डपीठ ने की. खण्डपीठ ने यह भी कहा कि अदालती प्रक्रिया आम आदमी की स्थिति और धैर्य को नहीं समझ पाती है. यह स्थिति संवैधानिक रूप से उत्पन्न हुई है. यदि कोई इस स्थिति को बदलना चाहता है तो उसे देश को नजदीक से देखना चाहिए. इसके लिए देश का भ्रमण करने की जरूरत है.मतलब साफ पर देश की शीर्ष अदालत में जब आम आदमी का सुनने वाला कोई नहीं हैं, तो फिर भला निचली अदालतों का क्या हाल होगा, यह सहज अनुमान लगाया जा सकता हैं. यह आलोचना इसलिए भी महत्वपूर्ण क्योंकि कोर्ट के एक खण्डपीठ ने ईमानदारी से गणतन्त्र भारत के साठ साल बाद अपनी गिरेबान में झांकने की कोशिश तो की. पर आम आदमी के दर्द समझने के हिमाकत कौन करेगा, देश का कौन और कैसे करेगा। इसमें कोर्ट का संकेत कार्यपालिका की तरफ दिखता है कि वह वह दफ्तरों से निकलकर आम आदमी तक पहुंचे और आम आदमी के लिए बदले हुए संविधान के बुनियादी आकार में बदलाव करें. इस आकार में बदलावा की ताकत स्वयं कोर्ट को नहीं है.सुप्रीम कोर्ट की अपनी ही आलोचना में इस बात का भी स्पष्ट संकेत हैं कि भले ही कानून अमीर गरीब का भेद नहीं देखता हैं, लेकिन कानून का लाभ उठाने वालों में गरीब नहीं है. समाज में एक पुराना जुमला प्रसिद्ध है. दादा के जमाने में दायर केस पर पोते के जमाने तक भी निर्णय आ जाए तो ख्ुाशकिस्मत समझिये. देश का प्रबुद्ध ही नहीं विभिन्न ओहदे पर बैठे प्रभावशाली लोग भी इसको लेकर चिन्ता जता चुके हैं. पर समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने का संकेत कुछ दिखता नहीं है.60 साल का युवा गणतन्त्र भारत आम आदमी को त्वरित न्याय दिलाने के मामले में फेल हो चुका है. पर प्रभावशाली और धन बल से संपन्न लोगों के मामले जल्द सुलझने के अनेक उदाहरण है. आजाद भारत की तरक्की भले ही सन्तोषजनक न हो, लेकिन वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में देश ने काफी तरक्की की है. पर अदालती प्रक्रिया में तरक्की नहीं हुई. बार-बार न्यायपालिका और कार्यपालिका की आपसी टकराहट के बीच न्यायिक प्रक्रिया का मुद्दा हमेशा ही सुस्त रहा है. अब भला सुप्रीम कोर्ट आम आदमी के प्रति सहानुभूति जता कर उन्हें क्या दे देगा, सहानुभूति दिखाने से न्याय तो मिलने से रहा.बीते एक सप्ताह की एक और खबर आई. एक समाजिक कार्यकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल होने वाली याचिकाओं की जानकारी सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी. जब सूचना मिली तो पता चला कि गए एक दशक में सुप्रीम कोर्ट में दस गुनी याचिकाएं बढ़ी है. वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट में 119 पुननिरीक्षण याचिकाएं दर्ज की गई थीं। 2009 तक यह संख्या 2016 पहुंच गई. पर याचिकाकर्ताओं के पक्ष में दिए गए निर्णय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जानकारी नहीं दी. यह बात समझी जा सकती है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों का एक तबका अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर पारदर्शी होने की राह पर अग्रसर हो रहा हो, वहीं दस वर्षों में दायर याचिकाओं पर निर्णय की जानकारी कोर्ट ने देने से इनकार क्यों कर दिया? जाहिर सी बात है, यचिका दायर होने के आंकड़े तो हैं, पर उनमें कितने मामले निपटाये गए, यह कैसे पता चलेगा. सूचना कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से यह भी पूछा गया था कि उद्योगपतियों, वीआईपी और सामान्य आदमी में भेदभाव क्यों किया जाता है?टाटा बिरला अंबानी जैसे बड़े घरानों के न्यायिक मामले त्वरित क्यों सुलझ जाते हैं? न्यायाधीश कितने समय काम करते हैं? कुछ ऐसे गम्भीर सवालों के जवाब सुप्रीम कोर्ट को देते नहीं बन रहा है. लिहाजा,कोर्ट के निबंधन विभाग ने यह कह कर इन सवालों से पल्ला झाड़ लिया कि ये सवाल सूचना के अधिकार के तहत नहंी आते है. जाहिर है, देश की जिस शीर्ष अदालत में मामलों का संख्या तेजी से बढ़ रही और न्यायधीशों की संख्या स्थिर है, वहां कोर्ट का झुंझलाना लाजिमी है. न्यायमूर्ति समाज के ही अंग होते हैं. उनमें से कुछ के मन में आम आदमी के प्रति सहानुभूति की संवदेना उमडऩा सहज है. पर संवेदनाओं के इस धार से सुप्रीम कोर्ट का प्रायश्चित नहीं होगा. न्यायिक प्रकिया में टाटा, बिराला, अंबानी बंधुओं जैसे प्रभावशाली लोगों के मामलों की तरह आम आदमी से जुड़े मामलों के त्वरित निपटान से ही असली प्रायश्चित होगा.1

* संजय स्वदेश

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