शनिवार, 20 फ़रवरी 2010


ये हो क्या
रिया है?

इन दिनों मैं शहर के मिजाज से खासा दुखी हूं. एक अजीब सा परिवर्तन देखने को मिल रहा है शहर के लोगों में. पता नहीं गेहूं की कौन सी किस्म खा रहे हैं? जहां देखो फांदे पड़ रहे हैं. अंधी, गूंगी, बहरी, अगली-पगली सबकी जान सांसत में है. कनपुरियों की यही तिला मर्दाना हरकत डीआईजी साहब को जम गई लेकिन शहरियों की तासीर में कोई फर्क नहीं आया, बीती १३ तारीख को एक और निपट गई. पूरब के इस मैनचेस्टर में औरतें नास्ते की तरह उड़ रही हैं.इन दिनों एक अखबार सहित शहर के कई संगठन कानपुर को हांगकांग बनाने पर तुले हैं. बड़ी-बड़ी लफ्फाजियां चल रही हैं और मोटा-मोटा ज्ञान बांटा जा रहा है. अरे शहर के ज्ञानपाडों बीसी करने के बजाय फूलवाली गली की एक बार गुलजार बनाने की प्रयास करो. कम से कम शहर की औरतें तो बची रहेंगी. आदि काल से वैश्यालयों का अस्तित्व रहा है और इन्हें समाज का ड्रेनेन माना जाता था. ये एक सामाजिक व्यवस्था थी. इसके खत्म होने के साथ आम महिलाओं को खतरा दिन ब दिन बढ़ता गया. वर्तमान में हालात इतने बेकाबू हो गये हें कि देशी मेम हों या विदेशी सब खतरे में पड़ रही हैं. अब समय आ गया है कि इस समस्या का सामाजिक हल तलाशा जाये चूंकि कानून तो इस मसले पर बुरी तरह फेल हो चुका है. इस मामले को गंभीरता के साथ सोचने का है नहीं तो पुलिस अफसर बदलते रहेंगे और शहर में नीलम, गीता, रीता अपने प्राण छोड़ती रहेंगी.शर्मनाक१३ फरवरी १९३१ को भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव ने अपने प्राण देश के लिए न्यौछावर कर दिये थे. हम इन्हें भूल गये लेकिन १४ फरवरी को वेलेन्टाइन डे मनाना याद रहा.1

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