सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

शपथ लेकर संविधान का उल्लंघन
अनुराग अवस्थी 'मार्शलÓ
शरद पवार कृषि उत्पादों के बढ़ते दामों पर नियंत्रण करने के बजाय क्रिकेट सेलेक्शन में मस्त रहते हैं. ममता रेल सुरक्षा के उपायों पर ध्यान लगाने के बजाय पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों को उखाड़ फेंकने के अभियान में लगी है. पूरी की पूरी उत्तर प्रदेश सरकार प्रदेश को बाबा साहब के भरोसे छोड़कर दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश में हाथी को मजबूत करने के लिए महीनों गायब रहती है. यह सब उस जनता जनार्दन की कीमत पर जिसके प्रति यह जिम्मेदार है, फिर तो जिन्होंने इन्हें वोट दिया है उन्हें संविधान की शपथ लेकर साठ साल के हो चुके गणतंत्र पर संविधान की धज्जियां उड़ाने के इस अभियान पर रोक लगाने की आवाज उठानी ही पड़ेगी.
दो हजार दस की जनवरी का पहला पखवाड़ा एक दो नहीं चार बड़ी रेल दुर्घटनाओं के लिए याद किया जायेगा. इन दुर्घटनाओं में दर्जनों जानें गईं. करोड़ों का नुकसान हुआ और सैकड़ों हताहत हुए. इसी के साथ अपने को संसार की बड़ी रेल लाइनों और मुनाफा कमाने वाले चंद सरकारी संस्थानों में से एक भारतीय रेल से आम यात्री का विश्वास और कम हुआ.फिर एक जांच अधिकारी चंद निलंबन, कुछ लाख का मुआवजा, रेलवे के नुकसान की आंकड़ेबाजीे और फिर ट्रेन भी ट्रैक पर और जिन्दगी भी. कुछ नहीं मालूम कि नई दुर्घटना कब, कहां और कैसे हो जायेगी.मशीन और मानक दोनों कभी भी भूल कर सकते हैं, इसीलिए यह दावा कोई नहीं कर सकता कि ऐसा करने से शत् प्रतिशत दुर्घटनायें रुक जायेंगी लेकिन जब दुर्घटनाओं के साथ यह खबरें आती हैं कि--कोंकण रेलवे ट्रेन दुर्घंटना से बचने के लिए सुरक्षात्मक प्रणाली का उपयोग पहले से कर रहा है.-आईआईटी कानपुर एक वर्ष जीएसपीएम सिस्टम रेलवे को दे चुका है.-खराब पुर्जे और कमीशनबाजी भी है दुर्घटनाओं की जिम्मेदार आदि-आदि...तब मन यह सोंचने को मजबूर हो जाता है कि आखिर क्या कर रही है हमारी व्यवस्था? क्यों इसमें जंग लग रही है? क्या करते हैं प्रशासन के शीर्ष पर बैठे मंत्री गण?बात अगर केवल रेल मंत्रियों की ही ले ली जाये तो पिछले पन्द्रह सालों का उदाहरण हमारे सामने है. संविधान की सच्ची श्रद्घा, पूर्ण निष्ठा और लगन से अपने कत्र्तव्यों का पालन करूंगा कि शपथ लेने वाले मंत्रियों ने अपने मंत्रालय के काम को पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करने के बजाय व्यक्तिगत स्वार्थों, राजनैतिक हितों,जातीय अहं और दलीय पंचायतों के दायरे से बाहर निकले बगैर किया है. हमारा यहां उद्देश्य रेल मंत्रालय और उसके मंत्रियों के ऊपर जातिवाद, भ्रष्टाचार, भर्ती घोटोले, फर्जी आंकड़ेबाजी की ओर ध्यान खींचना नहीं है. इसकी खबरें अखबारों और चैनलों में न केवल समय-समय पर आती रहती है. बल्कि इससे निपटने के लिए हमारे पास कानून भी है (भोंथरे ही सही). पिछले पंद्रह वर्षों के रेलवे के कामों की समीक्षा कर ली जाये तो शायद यह साफ हो जायेगा कि दिल्ली में भारत सरकार का कोई रेल मंत्री था ही नहीं. पहले नीतीश फिर लालू और अब ममता.लालू और नीतीश ने जितने दौरे सारे भारत के विभिन्न प्रान्तों के लिए किये होंगे उससे कई गुना पटना और मुजफ्फरपुर के किये और आज ममता जी, उनका रेल मुख्यालय ही दिल्ली के बजाय कलकत्ता पहुंच गया है. मतलब साफ है पहले नीतीश भारतीय करदाताओं के पैसे से चलने वाली रेल को ट्रैक पर दु्रतगामी, सुविधाजनक, सुरक्षित और समय पर चलाने के बजाय उसे बिहार में लालू सरकार को कमजोर करने के लिए जनता दल (यू) रथ के रूप में हांक रहे थे. फिर लालू ने नीतीश सरकार को कमजोर करने और राष्ट्रीय जनता दल का झण्डा बिहार में मजबूत करने के लिए तेल पिलापन लाठी चलावन रैली के लिए भारतीय रेल को चलाया. आज ममता जी पूरी ईमानदारी से यही काम कलकत्ता में कर रही है. पूरी निर्ममता के साथ ममता की ट्रेन प०बंगाल में सीपीएम की छाती पर तृणमूल कांग्रेस का झण्डा गाड़ती घूम रही है.क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि पिछले पन्द्रह सालों से भारतीय रेल भारत के विकास का पहिया बनने के बजाय राजनैतिक नेताओं का एक क्रांति रथ है, जिस पर संविधान की शपथ लेकर बैठने वाले ने अपना झण्डा लगा दिया और हांक दिया अपने ग्रह राज्य की ओर. ऐसा नहीं है कि उससे पहले यह काम नहीं हो रहा था.लेकिन इतनी बेहयाई और बेशर्मी के साथ नहीं. ऐसा भी नहीं है कि रेल के अलावा यह काम किसी और मंत्रालय में नहीं हुआ. लेकिन बढ़ती रेल दुर्घटनाओं और जनसामान्य के रोजमर्रा से जुड़ी होने के कारण हम पहले रेल की बात कर रहे हैं. अब जब रेलमंत्री, रेलमंत्री कम, जनतादल यू अध्यक्ष, राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष या तणमूण कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में गाड़ी चलायेगा तो वही होगा जो हो रहा है. वह भी राष्ट्रीय अध्यक्ष एक शुद्घ प्रादेशिक पार्टी का. फिर न तो उसकी पार्टी राष्ट्रीय होगी और न रेल भारतीयों की जरूरत के हिसाब से कोने-कोने तक जा पायेगी. इसीलिए आज तक इटावा से भिण्ड तक ट्रैक नहीं बिछ पाया, ऐतिहासिक महत्व की बिठूर रेल लाइन का आमान परिवर्तन नहीं शुरू हो सका है. लाइन पड़ जाने के बाद भी मथुरा कासगंज लाइन उद्घाटन का इंतजार कर रही है. देश के जाने कितने हिस्सों में रेल कारखाने खुलने और चालू होने का इंतजार कर रहे हैं. अरबों रुपयों की रेलवे की जमीनों पर अवैध कब्जे हो रहे हैं. रेलवे सुरक्षा की दर्जनों रिपोर्टें धूल खा रही हैं. उनको पढऩे का समय किसी के पास नहीं है.'जथा राजा तथा प्रजाÓ लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि जब जनसेवक बनने के बजाय राजा की तरह अपने राज्य की भलाई में व्यस्त रहने के बजाय विरोधी राज्य पर चढ़ाई में लगा रहेगा तो प्रजा अस्त-व्यस्त और त्रस्त रहेगी ही.देश में ऐसा कोई कानून है भी नहीं जो इन्हें यह सब करने से रोके. इसलिए यह कोई गैर कानूनी काम नहीं कर रहे हैं. लेकिन उस शपथ का क्या होगा जो इन्होंने संविधान के प्रति ली है आपने कर्तव्यों के निर्वहन की. जिससे इन्होंने किसी भी क्षेत्र, जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव न करने की सौगंध खाई है.नितीश और लालू का उदाहरण हमारे सामने है. रेल ने इन्हें मुख्यमंत्री बनाया या बने रहने में मदद की. भविष्य बतायेगा कि शायद रेल मंत्री ममता प०बंगाल का मुख्यमंत्री बन जायें. यहां यह बात स्पष्ट की जानी आवश्यक है कि नितीश, लालू और ममता इनमें से किसी की भी संघर्षशीलता, नेतृत्व क्षमता और योगयता पर किसी को भी शक सुबह नहीं होगा. रेल मंत्री न बनते तो भी शायद यह अपनी नेतृत्व क्षमता या विरोधियों के कुशासन के बल पर जो चाहते बन जाते. तो फिर भारतीय संविधान की शपथ लेकर रेल को इनके हाथ का मोहरा क्यों बनने दिया जाये. भारतीय रेल को भारत के कोने-कोने तक भारत की प्रगति और विकास का पहिया ही बनाया जाये. रेल जैसा शायद ही कोई दूसरा मंत्रालय होगा इसीलिए दिल्ली में कैबिनेट गठन के समय रेल को लेकर ही सबसे ज्यादा मारामारी होती है.भारत का विदेश मंत्री, वित्तमंत्री, रक्षामंत्री चाहकर भी अपने पद, मंत्रालय और बजट का उपयोग अपने गृहराज्य में अपनी पार्टी का झण्डा गाडऩे के लिये क्षेत्र विशेष के लिए नहीं कर सकता है.क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि केन्द्र में मंत्री बनने के बाद विभिन्न पार्टियों के नेता अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष या प्रादेशिक अध्यक्ष का पद स्वेच्छा से त्याग दें? अपनी पार्टियों के दूसरे कर्मठ नेताओं को विरासत सौंप दें?इससे पार्टी और सरकार के बीच का अंतर भी बना रहेगा और चुनाव आयोग के नियमों के तहत पार्टियों के अंदर आन्तरिक लोकतंत्र भी वास्तविक अर्थोंमें कायम होगा.क्या केन्द्र में मंत्री बनने वाले नेताओं के लिए शोभा बढ़ाऊ , ताकत दिखाऊ , पैसा उगाऊ सस्थानों और पदों पर मनोनयन या निर्वाचन पर रोक नहीं होनी चाहिए. आखिर कितनी प्रतिभा के धनी हैं हमारे मंत्री जो एक साथ कई पदों पर रहते हुए सभी के साथ न्याय कर लेते हैं.सारे भारत में जब महंगाई से गरीब और मध्यम वर्गीय त्राहि-त्राहि कर रहे होते हैं तो हमारे कृषि मंत्री साउथ अफ्रीका में क्रिकेट देख रहे होते हैं. कृषि नीति हमारे नीति नियंता आज तक नहीं बना पाये लेकिन टेस्ट मैच, वन डे, फिफ्टी-फिफ्टी, ट्वेंटी-ट्वेंटी, आईपीएल, नाइट मैच में रोज नये-नये प्रयोग, परिवर्तन और सुधार हो रहे हैं. शरद पवार बीबीसीआई के अध्यक्ष बन जाते हैं. सीपी जोशी राजस्थान क्रिकेट, नरेन्द्र मोदी गुजरात के अरुण जेटली दिल्ली के.एक क्रिकेट तभी सचिन बन पाता है जब सौ प्रतिशत लगन, उत्साह और समय देकर वह क्रिकेट खेलता है फिर भला आधे-अधूरे मन से राजनीति से बचा-खुचा समय देकर यह लोग उस देश या प्रदेश में कैसे क्रिकेटर को मजबूत करेंगे?राजनीतिज्ञों की तर्ज पर नौकरशाह भी बढ़ चले हैं. इन सुविधा भोगियों ने विभिन्न प्रभुता सम्पन्न संस्थाओं और पदों का उपयोग अपने निजी हितों के लिये कर अपार धन पैदा किया है. बल्कि संस्थाओं का बेेड़ा गर्क किया है. नैतिकता की उम्मीद इनसे करना बेकार है. राजनैतिक लोगों के मन, वचन और कर्म सत्ता में आने तक दूसरे और सत्ता में आने के बाद तीसरे हो जाते हैं. उम्मीद अब न्याय पालिका से है.सुप्रीम कोर्ट जब माया सरकार के इन तर्कों को खारिज कर समीक्षा कर सकता है कि कैबिनेट द्वारा पास किये गये बजट के बाद पार्क और मूर्ति निर्माण कराना तर्क संगत या न्याय संगत नहीं है तो इसकी समीक्षा क्यों नहीे होनी चाहिए कि हमारे मंत्रीगण संविधान की शपथ लेकर हमारे पैसों की मोटी तनख्वाह लेकर अपने मंत्रालय का कामकाज पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी से देखने के बजाय अपनी पार्टी को मजबूत करने, क्रिके टिया, राजनीति करने या विदेशों में घूमने में व्यस्त रहते हैं. महीनों अपने मंत्रालय नहीं जाते हैं. फाइलें नहीं देखते हैं, पुराने जांच आयोगों की रिपोर्टों को देखकर यात्रियों या नागरिकों की सुरक्षा के इंतजामात नहीं करते हैं.1

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