शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

सहालगों में जलता बचपन

एक रौशन अंधेरा

हेलो संवाददाता

व्यवस्था बाल श्रम कानून की रोटी तो खाती है लेकिन उसे जलता हुआ बचपन नहीं दिखाई देता. लेकिन हेलो कानपुर देख रहा है. एक बच्चा एक फूलदान के आकार के पात्र को उठाकर चल रहा है. उस पात्र के ऊपर कई सारे बिजली के बल्ब लगे हुए हैं. उसी पात्र में से एक बिजली का तार निकल उसके कंधे और हाथ को छूता हुआ पीछे की तरफ जा रहा है और उसी तार का एक और हिस्सा आगे की तरफ.

फरवरी का पहला पखवारा घनघोर सहालगों से लैस रहा. शहर से लेकर आस-पास के जिलों में हजारों की संख्या में शादियों की धूम-धड़ाम रही. एक भी गेस्ट हाउस, बैण्ड वाला, लाइट वाला, हलवाई (कैटरर्स) खाली नहीं बैठा.बैण्ड वालों ने एक-एक दिन में चार-चार, पांच-पांच शिफ्ट में ढोल-मंजीरा बजाया बावजूद इसके सैकड़ों बारातें बिना ढोल-ताशे के ही उठीं. हर साल सहालगों का एक तेज झोंका आता ही है. लेकिन इस बार यह झोंका आंधीनुमा था क्योंकि 'शुभ-लग्नोंÓ का टोटा जो था...! पान-फूल, मिठाई और आदर-सत्कार के इस मौसम में कानपुर शहर से लगे देहात और आस-पास के जिलों में हेलो कानपुर ने एक रोशन अंधेरा देखा. यह अंधेरा अंधेरा कम अंधेर ज्यादा है. १० बरस से लेकर १४ बरस तक के बच्चों और किशोरों के सर पर बिजली या मिट्टी के तेल से जलता 'सुरजÓ देखकर भाई शिव ओम अम्बर का शेर याद आ जाता है-जन्म से बोझ पा गये बच्चे पालने मेंबुढ़ा गये बच्चे और क्या।इस धृतराष्ट्री व्यवस्था को जो बाल श्रम कानून की रोटी तो खाती है लेकिन उसे जलता हुआ बचपन नहीं दिखाई देता. लेकिन हेलो कानपुर देख रहा है-एक बच्चा एक फूलदान के आकार के पात्र को उठाकर चल रहा है. उस पात्र के ऊपर कई सारे बिजली के बल्ब लगे हुए हैं. उसी पात्र में से एक बिजली का तार निकल उसके कंधे और हाथ को छूता हुआ पीछे की तरफ जा रहा है और उसी तार का एक और हिस्सा आगे की तरफ. आगे की तरफ जा रहा तार, आगे चल रहे बच्चे के हाथ में पकड़े बिजली के बल्बों वाले पात्र से जुड़ा हुआ है, पीछे की तरफ जा रहे तार का भी यही हाल है और इस तरह से एक लम्बी कतार बन रही है.
सबसे पीछे एक ट्राली के ऊपर जनरेटर रखा हुआ है, जहाँ से बिजली प्रवाहित हो रही है. यह दृश्य एक बैंड पार्टी का है. यह बैंड पार्टी बारातियों के आगे चल रही है और पूराने-नए हिन्दी गानों की बेसूरी धून बजा रही है, जिस पर बाराती थिरक रहे हैं. दूल्हा घोड़े पर बैठा मुस्कुरा रहा है और बाराती नाच-गानों में व्यस्त हैं. लेकिन किसी का भी ध्यान 10-12 बच्चों की उस कतार पर नहीं है जो अपनी जिंदगी को दाँव पर लगाए हुए हैं.अचानक एक बच्चा एक बाराती के नए कपड़ों को छू जाता है. बाराती को यह रास नहीं आता और वह बच्चे को धक्का दे देता है. बच्चा लडख़डाता है और गली के किनारे खुदी नाली में गिरते-गिरते बचता है, लेकिन वह अपने बिजली वाले पात्र को जैसे तैसे कर गिरने नहीं देता. उसके आगे और पीछे चल रहे बच्चे भी लडख़डा जाते हैं, और उनके बिजली के पात्र झूलने लगते हैं. जनरेटर की ट्राली चला रहे व्यक्ति को यह रास नहीं आता और वह सबसे पीछे चल रहे बच्चे को एक थप्पड़ धर देता है. थोड़ी देर हंगामा सा होता है और फिर सब 'जैसे थेÓ की मुद्रा में आ जाते हैं. कानपुर शहर में तो नहीं शहर से लगे छोटे-मझोले जिलों जैसे उन्नाव, फतेहपुर, कन्नौज, हमीरपुर, हरदोई, इटावा, औरैया और गांवों कस्बों में कुछ ऐसी ही जिन्दगी है सहालगों में लाइट लेकर चलने वाले बच्चों की. कुछ ऐसी ही जिन्दगी है सहालगों में लाइट लेकर चलने वाले बच्चों की. इनमें से ज्यादातर या तो पढ़ते नहीं हैं या पढ़ते भी हैं तो बस नाम मतलब दाम (बजीफे) के लिए. सहालग शुरू होते ही लाइट वाला इनके घरों में खबर भिजवा देता है. ७,८,९,११,१२....सभी दिन आना है.सुभानपुर बिल्हौर में प्राइवेट स्कूल चलाने वाले शुक्ला कहते हैं कि जिस दिन बारात होती है, इसके अगले दिन स्कूल में हाजिरी कम हो जाती है. मतलब सीधा सा है. ट्रैक्टर में लदकर दो-तीन-चार बते से लदकर यह बच्चे लाइट ढोने चले जाते हैं और रि रात एक-दो बजे तक लौटते हैं. अगले दिन का स्कूल गोल.इसके बदले में इन्हें पचास साठ और सत्तर रुपये तक मिल जाते हैं. और बारात में चोरी-छिपेया खाना भी कई बार पान्डाल में खाने के चक्कर में इन्हें गालियां भी मिल जाती हैं. और कभी कभार प्लेट छीनकर बाहर भी कर दिया जाता है.गांव का ही कल्लू बताता है कि अभीन साहब के यहां शादी में मैं कभी नहीं गया, लाजपत भवन जैसा वहां पास (वार्ड) चेक होते हैं, लाइट वालों को कहां खाना नसीब होता है.बिल्हौर के ही छप्पन लाइट सर्विस से हमने इन नौनिहालों से काम कराकर इनके भविष्य से खिलवाड़ करने की बात कही तो उन्होंने कहा कि बारात में एक से दो घण्टे के लिए सर पर पांच-सात किलो की लाइट लादने के बदले में सत्तर-अस्सी रुपये मिलते हैं. कहां है इतनी मजदूरी? फिर हम इनसे काम जबरदस्ती तो कराते नहीं है. इनके घर वाले इन्हें अपनी मर्जी से भेजते है।. खाना अलग बढिय़ा खाने को मिलता है.कड़ाके की सर्दी म्रें सूट-बूट से लैस 'ऐट पी एमÓ की तरंग में झूमते बारातियों को रोशनी से लबालब करते एक कमीज पायजामें में सर पर बोझ उठाये रिंकू, टिंकू पिंकू की मजबूरियों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है. यही है देश का भविष्य. अपना आज खराब कर देश का कल कैसे ठीक होगा? इस पर किसी का ध्यान नहीं है.हो भी क्यों? सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर अमल के लिए अपने यही बाबू जी हैं न. इन्होंने गांवों के पुराने तालाब खुदवा दिये? इन्होंने सर पर मैला ढोना रुकवा दिया, इन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर रिगरेट पीने पर रोक लगा दी?सार्वजनिक स्थानों पर अवैध मन्दिर, मस्जिद हटवा दिये फिर भला क्या डारना?इसीलिए शहर हो या देहात कहराना, धोबियाना जैसे दलित, पिछड़े बिरादरी के गरीब बच्चे परम्परा का निर्वाह करते चले आ रहे हैं, कहीं मजबूरी तो कहीं लालच में..!फ्लैश-शादियों का एक खेल यह भी है कि सहालग के दिन स्कूल के अतिरिक्त सफाई कर्मियों का टोटा हो जाता है. नर्सिंगहोमों तक में काम करने वाले सफाई कर्मी गायब रहते हैं. वेटर सप्लाई करने वाले जावेद भाई बताते हैं कि ज्यादातर शादियों में देर रात तक ये वेटर के रूप में खाना सप्लाई करते हैं और डेढ़ से दो सौ रुपये पैदा करते हैं, साथ में शानदार भोजन सूप से लेकर स्नैक्स और फिर पिस्ता दूध.शहर से आगे प्रदेश और प्रदेश से आगे देश भर में ऊपर सुनाई गई कहानी एक जैसी है. राजस्थान में भी ये बैंड बाजे वाले रोशनी के लिए जिन बत्तियों वाले ढांचों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें छोटे बच्चे जिनकी उम्र 10 से 12 वर्ष के करीब होती है, उठाकर चलते हैं. सभी ढांचे आपस में बिजली के तारों से जुड़े रहते हैं. ये ढांचे भारी होते हैं, इसलिए चलते समय काफी दिक्कत आती है. एक बच्चे का संतुलन बिगडऩे पर उसके आगे और पीछे वाला बच्चा भी लडख़ड़ा जाता है. इससे उसके गिरने, चोटिल होने और बिजली का करंट लगने की सम्भावना काफी अधिक होती है.बच्चों के लिए भारी पात्र उठाकर चलना, आपस में संतुलन साधना, भीड़ में जगह बनाना और पतली गलियों के दोनों किनारों पर खुदी नालियों से बचना दुरूह भरा कार्य होता है. यदि एक बच्चा गिर जाए और उसके हाथ से या फिर सिर के ऊपर से बिजली वाला पात्र गिर जाए तो उस पर लगे सभी बल्ब और ट्यूब लाइट टूट सकती हैं, और इससे बच्चे को करंट लगने का खतरा बढ़ जाता है. स्थिति तब और भी विकट हो सकती है जब वह बाल मजदूर किसी नाली में गिर जाए जिसमें कीचड़ और पानी भरा हुआ है. चालू बिजली के नंगे तारों का सम्पर्क पानी में आ जाए और उसमें वह बाल मजदूर गिरा हुआ हो तो स्थिति भयानक रूप ले सकती है.बिजली के तार भी सामान्य गुणवत्ता के होते हैं और उनके टूट जाने और उनसे बिजली का झटका लगने की पूरी पूरी सम्भावना बनी रहती है.

सीधी बात

हम सब अंधे हैं

सच बात तो यह है कि हम सब अंधे हैं. क्या समाज का यह दायित्व नहीं है कि वे इस प्रथा को बंद करें, या फिर बाल मजदूरों के द्वारा इतना जोखिम भरा कार्य किए जाने पर आपत्ति दर्ज कराए. क्या हम इतने असंवेदनशील हो सकते हैं कि किसी बच्चे के द्वारा छू लिए जाने पर उसे गिराने की हद तक धक्का दे दें, वह भी तब जबकि उसके सिर पर बिजली का पात्र रखा हुआ हो. क्या आप ऐसी किसी बारात में हिस्सा लेंगे अथवा अपनी या अपने रिश्तेदार की शादी में ऐसे बैंड बाजों की सेवा लेंगे जो बाल मजदूरी करवाते हों? जब बैंड पार्टी के मालिक से यह सवाल पूछा गया तो उसने पहले तो आश्चर्य व्यक्त किया. उसके बाद काफी देर तक यही सवाल पूछे जाने के बाद उसने कहा कि अधिकतर बच्चे बाजा बजाने वाले लोगों के होते हैं और बारात में आने के लालच में वे पैसे नहीं लेते. जो कोई पैसे लेते भी हैं तो वे सस्ते होते हैं. कोई बड़ा आदमी इन पात्रों को उठाएगा तो वह पैसे ज्यादा लेगा. बारात में महिलाएँ भी चलती हैं और वे यह पसंद नहीं करेंगी कि कोई पुरुष उनके पास पास चले. इस तरह की बैंड पार्टी में वर्षों से बाल मजदूरों का उपयोग बिजली के पात्र उठाने के लिए होता आया है तो सरकार इस पर कदम क्यों नहीं उठाती?

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