शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

मदीने में राम कथा की चाह

शायर मुन्नवर राना को संत-फकीर घोषित किया

संपादक रिपोर्ट

इलाहाबाद माघ मेले में १७ जनवरी को कोहरा बरसाती शुक्ल पक्ष तृतीया की रात प्रयाग तट पर संत अंगद जी महाराज के डेरे में हिन्दुस्तान के ही नहीं पूरी दुनिया में उर्दू अदब के तरोताजा लहजे के खुशनुमा झोंके की तरह डोल रहे $जनाब मुन्नवर राना का बेसब्री से इंतजार हो रहा था. मंच पर महाराज जी सिंहासन पर बिराजे थे. उनके बगल में उनकी धर्म संगिनी पत्नी साध्वी अपर्णा भारती जी का आसन खाली था. कवि सम्मेलन व मुशायरा अपने पूरे शबाब पर था.मुन्नवर साहब हैदराबाद से जहाज, टैक्सी और ठंडी रेत को पार कर अंतत: १२ बजे के करीब प्रयाग तट पर मस्ताने संत के डेरे में दाखिल हुए. अरे यह क्या..? सभी शायर व कवि मंच पर बिछे गद्दे पर नवाजे गये हैं. लेकिन मुन्नवर साहब का इस्तकबाल का तो अंदाज ही निराला था. महाराज जी खुद मुन्नवर साहब की गुलपोशी को आगे आये. उन्हें आशीर्वाद स्वरूप शाल ओढ़ाया फिर अपने ही बगल में खाली पड़े प्रथम महिला जगद् गुरु शंकराचार्य अपर्णा भारती के विशिष्ट आसन पर उन्हें बिठा दिया. सर से पांव तक ढीले-ढाले काले पायजामे और काले चोंगे में एक ओर मुन्नवर राना साहब और ठीक बगल में गेरुए वस्त्रों में महाराज अंगद जी. कवि, शायर, श्रोता, भक्त सब स्तब्ध...! यह हो क्या रहा है? महाराज ने एक शायर को अपने बगल अपनी धर्म संगिनी पत्नी मां का सिंहासन सौंप दिया. पांडाल में चक् -चक् शुरू हो गई. महाराज जी समझ गये.., वह मुस्कराते हुए उठे...माइक पर आये और फिर कुछ यूं बोले...
'आप लोग समझ रहे होंगे कि पता नहीं आज महाराज जी को क्या हो गया है.
देश के अजीज शायर मुन्नवर राना को अपने बगल के सिंहासन पर बिराज दिया है. मुन्नवर साहब एक सच्चे मुसलमान हैं. उनको प्रयाग तट पर इस कड़कती ठंड में मैंने क्यों बुलाया है? तो आप जान लें कि मेरी दृष्टि में मुन्न्वर राना केवल एक शायर नहीं है और न ही मैंने किसी शायर को अपने बगल में सिंहासन पर बिठाया है. मुन्नवर राना वह रुहानी शख्सियत है जिसने उर्दू अदब में महबूबा की जुल्फों में उल्झी शायरी को घर भीतर राखी बांधती बहन, मोहब्बत के आंसू छलकाती मां, फुटपाथ पर जूझती जिंदगी और डालों पर चहकती चिडिय़ों की चहचहाहट से न सिर्फ संवारा बल्कि उसके पर खोल दिये जिसके सामने कहन का असीम आसमान है. शाायरी को उन्होंने इंसानी दीन के उस मुकाम पर पहुंचाया जहां शायर मुन्नवर राना महज एक शायर न होकर एक संत ...एक $फकीर, एक मस्त कलंदर सरीखे जान पड़ते हैं. आप मेरे सिंहासन के बगल में जिन्हें बैठा देख रहे हैं वह संत श्री मुन्नवर राना हैं न कि शायर...सिर्फ शायर...! इसके बाद महाराज के भक्तों में लहर सी दौड़ जाती है...समवेत् स्वर में पांडाल गूंज उठता है. मुन्नवर राना की जय.. मुन्नवर राना जिन्दाबाद.बात अगर सिर्फ यहीं तक होती तो शायद प्रयाग की रेती पर गूंजी शब्द बीथी हेलो कानपुर के कागज पर न उतरती. इसके आगे जो महाराज जी ने कहा वह तो क्रांति थी..धर्म की, अध्यात्म की, साहित्य की और इंसानियत की..!अंगद जी महाराज बोले कि जब मैं छोटा था तो हमेशा एक गीत गाया करता था..! 'मोहम्मद के रो$जेकी जाली पकड़कर मैं कुल हाल अपनी जुबानी कहूंगा, सबा मुझको ले चल उड़ाकर मदीने $गमे हि$ज्र की मैं कहानी कहूंगा.Ó लेकिन क्या करूं..? मैं हिन्दू के घर पैदा हो गया. मेरी चोटी न ऊपर से सफाचट की गई और न ही नीचे से. मेरा वीजा-पासपोर्ट दोनों जब्त. मैं नहीं जा सकता $गमे हि$ज्र की कहानी सुनाने मदीना. इसीलिए संत कोटि के शायर मन्नवर राना को मैंने माघ मेले में उस पावन काल व तट पर शेर सुनाने के लिए बुलाया है जहां इन दिनों तीनों लोक देवी-देवताओं का प्रवास चल रहा है. मेरी ओर से यह पहल है कि अगर विश्व एकात्मवाद की कोई कल्पना है तो मुन्नवर प्रयाग के तट पर हमें अपने शेरो-सुखन से नवा$जे और हम उन्हें मदीना में बैठकर राम कथा सुनायें. महाराज जी का यह कहना था कि मानो गंगा-जमुना-सरस्वती सभी महाराज जी के डेरे में हर-हर महादेव की गूंज करती हुई लहर मार गई हों..! अंगद जी महाराज जी की जय..अंगद जी महाराज जिंदाबाद के उद्घोष से पूरा प्रयाग तट गुंजायमान हो गया. मुन्नवर राना के साथ नसीम निखत तारिक, अदम गौण्डवी के.के. बाजपेयी और मैं स्तब्ध... एक-दूसरे का मुंह ताकते हुए..! किसी ने ठीक ही कहा है संत की महिमा संत ही जानें. कवि सम्मेलन-मुशायरा समाप्त होने के बाद महाराज जी के भक्तगण कह रहे थे-'अच्छा तो इसलिए रखा गया था मुशायरा. वही हम कहें महाराज जी को इस साल शेरो-शायरी की क्या सूझी..!

अंगद पांव

अंगद जी महाराज का रूप प्राकट्य एक क्रांतिकारी संत के रूप में ही हुआ. याद होगा प्रदेश में जब मुलायम सरकार थी उस काल में भी प्रयाग तट पर अद्र्घ कुम्भ के अवसर पर देश के भर के साधु-संत एकत्र थे. महाराज जी ने चार दलित ईश भक्तों को चार पीठ बनाकर शंकराचार्य घोषित कर दिया था. इस कदम के पीछे वे उस धारणा को धूल-धूसरित करना चाहते थे जिसके अनुसार दलित मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकता, मंत्र और श्लोक का उच्चारण नहीं कर सकता. अंगद जी की उस समय उम्र कोई तीस-बत्तीस बरस की रही होगी. अंगद जी महाराज का जन्म सुल्तानपुर जनपद का है, उनकी शिक्षा-दीक्षा और विकास कानपुर के कड़े पानी को पीकर के हुआ है और इन दिनों वे उज्जैन में महामृत्युंजय मठ को अपना आसन बनाये हुए हैं. महाराज जी के इस क्रांतिकारी कदम की हिन्दु साधु-संत समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई और अंगद जी महाराज की जान पर बन आई. अद्र्घ कुम्भ के दौरान उनके डेरे पर नागा साधुओं ने हमला भी बोला लेकिन वे अपने पक्ष पर डटे रहे और पूरी सरकार उनकी सुरक्षा में लग गई. इस पहल का कोई मानी किसी को समझ आया हो या न आया हो लेकिन दलितों में इस भावना का सूत्र अवश्य हुआ कि सनातन धर्म और हिन्दु दर्शन जातीय आधार पर दलितों के खिलाफ नहीं है. आगे चलकर मनोनीत दलित शंकराचार्य भय से पीठ पर आसीन नहीं रह सके. और इस बार उन्होंने प्रयाग के तट पर अपनी इच्छा जाग्रत की है कि वे मदीने में बैठकर पूरी दुनिया में राम कथा सुनाना चाहते हैं.

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