शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

आईसीयू में मुन्नी

अशोक मिश्रा

'मुझे कुछ नहीं चाहिए मुझे बस मेरी बेटी वापस कर दो. ७२ घण्टे तो दूर मैं ७२ सेकेंड इस अस्पताल में इलाज नहीं कराऊंगा. जितना पैसा बनता हो तो बताओ...मुझे तुम्हारे यहां इलाज नहीं कराना...Ó विक्षिप्त सी मुद्रा में एक बाप का यह कारुणिक आक्रोश एक्सेल हॉस्पीटल में मौजूद मरीज और तीमारदारों को सन्न करने वाला था.. लोग जानना चाहते थे कि आखिर हुआ क्या..?

अंसार कंबरी शहर के ही नहीं देश के नामी-गिरामी कवि हैं. उनकी बेटी मुन्नी की ऐन ईद के दिन शाम को तबीयत बिगड़ गई. भाई हैदर उसे लेकर घर के सबसे पास वाले महंगे एक्सेल हॉस्पीटल की ओर भागा. एक्सेल में 'मुन्नीÓ को तत्काल 'आईसीयूÓ में भर्ती कर लिया गया और परिवार के सदस्यों को बाहर रहने का फरमान सुना दिया गया. मुन्नी के अब्बा 'अंसार कंबरीÓ ने जब 'आईसीयूÓ में अपनी बच्ची को देखने की जिद की तो उन्हें बेहद अपमानजनक तरीके से 'आईसीयूÓ से बाहर कर दिया गया. साथ ही एक परचा दवाइयों का हाथ में थमा दिया गया. इस बीच 'अंसारÓ के मित्रों को खबर लगी. उनमें कई पत्रकार, साहित्यकार व जागरूक नागरिक थे. उन्हीं में से एक थे हेलो कानपुर के संपादक प्रमोद तिवारी. करीब डेढ़ घण्टे बाद प्रमोद तिवारी 'आईसीयूÓ के पहरेदारों की अनुसनी करते हुए 'आईसीयूÓ में दाखिल हुए. क्योंकि तब तक किसी को कुछ भी पता नहीं चल रहा था कि आखिर मुन्नी को हुआ क्या है और भीतर आईसीयू में चल क्या रहा है. आईसीयू में कोई डॉक्टर गुप्ता अपने दो सहयोगियों के साथ बैठे बाकायदा गप्पे काट रहे थे.मुझे कुछ नहीं चाहिए मुझे बस मेरी बेटी वापस कर दो. ७२ घण्टे तो दूर मैं ७२ सेकेंड इस अस्पताल में इलाज नहीं कराऊंगा. जितना पैसा बनता हो तो बताओ...मुझे तुम्हारे यहां इलाज नहीं कराना... विक्षिप्त सी मुद्रा में एक बाप का यह कारुणिक आक्रोश एक्सेल हॉस्पीटल में मौजूद मरीज और तीमारदारों को सन्न करने वाला था..लोग जानना चाहते थे कि आखिर क्या हुआ..?अंसार कंबरी शहर के ही नहीं देश के नामी-गिरामी कवि हैं. उनकी बेटी मुन्नी की ऐन ईद के दिन शाम को तबीयत बिगड़ गई. भाई हैदर उसे लेकर घर के सबसे पास पडऩे वाले महंगे एक्सेल हॉस्पीटल भागा. एक्सेल में 'मुन्नीÓ को तत्काल 'आईसीयूÓ में भर्ती कर लिया गया और परिवार के सदस्यों को बाहर रहने का फरमान सुना दिया गया. मुन्नी के अब्बा 'अंसारÓ ने जब 'आईसीयूÓ में अपनी बच्ची को देखने की जिद की तो उन्हें बेहद अपमानजनक तरीके से 'आईसीयूÓ से बाहर कर दिया गया और एक परचा दवाइयों का हाथ में थमा दिया गया. इस बीच 'अंसारÓ के मित्रों को खबर लगी. उनमें कई पत्रकार, साहित्यकार व जागरूक नागरिक थे. उन्हीं में से एक थे हेलो कानपुर के संपादक प्रमोद तिवारी. प्रमोद तिवारी 'आईसीयूÓ के पहरेदारों की अनुसनी करते हुए करीब डेढ़ घण्टे बाद 'आईसीयूÓ में दाखिल हुए. आईसीयू में कोई डॉक्टर द्विवेदी अपने दो सहयोगियों के साथ बैठे बाकायदा गप्पे काट रहे थे. पत्रकार संपादक ने अपना परिचय गुप्त रखा. डॉक्टर के पूछने पर उन्होंने खुद को मरीज मुन्नी का चाचा बताया. बकौल प्रमोद तिवारी डॉक्टर और उनके सहायकों ने पहले तो यही उन्हें भी बदतमीजी से 'आईसीयूÓ के बाहर जाने को कहा लेकिन जब उन्होंने 'मुन्नीÓ के इलाज और बीमारी के जाने बगैर बाहर न जाने का ईरादा जता दिया तो डॉक्टर बोला, हां! बताइये क्या जानना चाहते हैं. आइये जानें इसके बाद क्या हुआ.तीमारदार-'मुन्नीÓ कहां है..?डॉक्टर-ईशारे से बताते हुए वह रही..!तीमारदार-यह तो ऐसे ही पड़ी है. अभी इलाज नहीं शुरू हुआ...!डॉक्टर-उसने पखाना कर रखा है. इलाज कैसे शुरू हो.तीमारदार-घर वालों को आप घुसने नहीं दे रहे हैं. खुद 'पखानाÓ साफ करवा नहीं रहे हैं. डेढ़ घण्टा हो गया है आखिर यहां हो क्या रहा है. 'आईसीयूÓ में भर्ती करने का मतलब क्या है..!डॉक्टर-कहा है नर्स से...आ रही है. मैं तो साफ नहीं करने लग जाऊंगा.तीमारदार-क्यों नहीं साफ करने लग जायेंगे. नर्सिंगहोम है. मरीज की नर्सिंग की फीस लेते हैं आप. चलिए मैं साफ कर देता हूं आप इलाज तो शुरू करिए...इसके बाद डॉक्टर ने नर्स से कुछ कड़े शब्दों में कहा और 'मुन्नीÓ की सफाई शुरू हो गई.पत्रकार ने फिर पूछा-''आखिर बच्ची को हुआ क्या है.ÓÓडॉक्टर-मेरी आंखों में कैमरा तो लगा नहीं है तो देखकर बता दूं कि क्या हुआ है.पत्रकार (पारा चढ़ाते हुए)-'लेकिन मुझे तो बताया गया था कि डॉक्टर की आंख में कैमरा लगा होता है. वह मरीज देखकर ही ताड़ जाता है...अगर आपकी आंखों में मरीज को देखने का कैमरा नहीं है तो लगता है हम गलत जगह आ गये.इसके बाद डॉक्टर थोड़ा सामान्य हुआ बोला,'आपसे पहले इनके अब्बा आये थे वह चीख चिल्ला रहे थे. अब आप आ गये हैं. बाहर जाइये तो इलाज शुरू हो.Óअब बताइये मरीज को डेढ़ घण्टे से 'आईसीयूÓ में लावारिश की तरह लिटाये हैं. बाहर परिवार वाले समझ रहे हैं इलाज चल रहा है. जबकि अंदर क्या हो रहा था आपको बताया ही जा चुका है.इसके बाद पूरी रात 'मुन्नीÓ के परिवारीजन दवाइयों पर दवाइयां लाते रहे. इसतरह सुबह हो गयी. अंसार 'कंबरीÓ से उनके बिफरने की वजह पूछने पर उन्होंने बताया,'मुझे अंदाजा नहीं था कि भीतर क्या चल रहा है. मैं जब सुबह अपनी बच्ची से मिलने गया तो उसके दोनों हाथ बेल्ट से बंधे हुए थे. वह बहुत दहशतजदा थी. मुझे देखकर वह आंखे फाड़-फाड़कर रोने लगी. वह ऐसे हरकत कर रही थी मानों उसे कसाई बाड़े में छोड़ कर चला गया था. मैंने पूछा इसके हाथ क्यों बांधे गये थे तो नर्स ने बताया कि मुन्नी बार-बार हाथ पटक रही थी जिससे डिप नहीं लग पा रही थी. इसलिए उसके हाथ बांधने पड़े. वह कहते हैं कि मेरी फूल सी बच्ची अकेले में अगल-बगल के माहौल से इतनी डर गई थी कि मुझे देखकर भी चौंक -चौंक जा रही थी. हू-हू-हू के अलावा उसके मुंह से कुछ निकल नहीं रहा था. मैंने तय कर लिया कि चाहें कुछ हो जाये मुन्नी को इस कसाई बाड़े से निकालना है. मैं दफ्तर गया (डीआई) तुरंत पैसे का भरपूर इंतजाम किया और अस्पताल आ गया. बाकी सब आपको मालूम है मैंने क्या किया.. क्या कहा..!अंसार कंबरी हालांकि अपनी बेटी को नहीं बचा सके. उनका मानना है जीना-मरना तो ऊपर वाले के हाथ में है लेकिन डाक्टरों को तो हम धरती का भगवान ही मानते हैं लेकिन ये लोग क्या करते हैं? एक तरह से मरीज का अपहरण कर लेते हैं और फिर इसके बाद शुरू हो जाती है पर्चा-पर्चा, जांच-जांच फिरौती. नरर्सिंग होम में जाओ तो डाक्टर मरीज को देखकर ललचा जाता है, और अगर सरकारी अस्पताल में चले जाओ तो खिसिया जाता है. उनका कहना है कि 'मरीजÓ एक तो वैसे ही कमजोर होता है. घर वालों की मौजूदगी उसे मजबूती देती है. मरीज चाहें जितना गंभीर हो उसके घर के एक सदस्य को तो हमेशा उसके साथ रहना ही चाहिए. आखिर मरीज के घर वाले भी तो देखें कि इलाज जो हो रहा है, वह क्या हो रहा है. यह कौन से चिकित्सा पद्धति है कि मरीज कमरे में बंद. बाहर घर वाले बस दवाइयों पर दवाइयां खरीद-खरीदकर लाते रहें. क्या हाल है मरीज का कुछ पता नहीं. क्या हो रहा है दवाइयों का कुछ पता नहीं. बस काउंटर पर पैसे जमा करते रहो. चलो पैसे भी ले लो लेकिन इलाज तो करो. सहानुभूति पूर्वक बात तो करो. मरीज को अगर ग्राहक ही समझ रहे हो तो ग्राहक को ग्राहक का मान तो दो. अब बताइये बच्ची ने पखाना कर दिया था. घर का कोई सदस्य होता तो क्या डेढ़ घण्टे तक बच्ची पखाने में ही पड़ी रहती. इंजेक्शन लगाने में, डिप लगाने में बच्ची हाथ पटक रही थी. साथ में अगर घर वाला होता तो हांथो को बांधने की जरूरत पड़ती..? अंसार एक सादा और नेक बंदा है. आज उसकी बेटी उसका साथ छोड़कर चली गई है. लेकिन 'मुन्नीÓ की मौत शहर के लूट-खसोट के अड्डे बने नर्सिंगहोमों की संवेदनहीन कार्यशैली की पोल खोल गई है. वाकई कितनी लूट है. इसका प्रमाण एक्सेल का वह बिल भी है जिसमें पखाना से घिन वाले ड्यूटी डॉक्टर से लेकर सीनियर डाक्टर की फीस क्रमश: १ हजार व १४ सौ लगाई गई थी. जबकि मुन्नी एक्सेल में केवल रात भर रही और उसे किसी डॉक्टर ने ठीक से देखा भी नहीं. रात को सीनियर डॉक्टर आये नहीं, ईद थी. सुबह अंसार ने विद्रोह कर दिया. फिर भी १४ सौ लग गये. यह सब अच्छा नहीं हो रहा. अंत में एक सच्चाई को तो हर किसी को मानना होगा कि मौत निश्चित है और मौत से पहले बीमारी और इलाज भी. चाहे वह डाक्टर हो, नर्स हो, वार्ड ब्याय हो या मुन्नी या फिर अंसार.

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