मंगलवार, 25 अगस्त 2009





रोशनी के रहनुमाओं! चराग बीमार हैं



पसीना मौत का झलका है यारो आईना लाओहम अपनी जिंदगी की आखिरी तस्वीर देखेंगे



यह शेर आज राही दादा, स्वामी, पंडित जी और मेहंदी भाई पर पूर्णरूपेण चस्पा हो रहा है. $िजन्दगी इन दिनों इनसे $कायदे से नहीं मिल रही. चाह रही है कि ये रोयें, गिड़गिड़ाएं, घुटने टेक कर सूरज, चाँद, सितारे देखने की मोहलत मांगे लेकिन यह तो तब संभव हो जब इनकी सांसें इनके और सिर्फ इनके कुनबे के लिए हों. इनकी सांसों से तो शहर की रुहानी (आत्मिक) सरपरस्ती होती है. इन्हें अपनी चिंता नहीं करनी है. शहर को इनकी चिंता होनी चाहिए. संपादक रिपोर्ट
अंधेरों के खिलाफ कभी आग, कभी चिंगारी तो कभी बिजली बनकर शहर को रोशनी का इत्मीनान देने वाले चार चहेते चराग इन दिनों बीमार चल रहे हैं. समाजवादी नेता रघुनाथ सिंह गले के कैंसर से पीडि़त इंदिरानगर और कैंसर अस्पताल के बीच सांसों की जद्दोजहद में खीझ रहे हैं. शेर की तरह दहाड़ मारते हुए वीर चंद्र शेखर आजाद की राष्ट्रभक्ति पर रच-रचकर धनाक्षरी के घनघोर घनों को घनघना देने वाले पंडित धर्मपाल अवस्थी निशब्द, खामोश पक्षाघात से पछाड़ खाकर अब इशारों की सांसे जी रहे हैं. देश का कौन सा कोना ऐसा है जहां कानपुर के ओजस्वी स्वर और ज्योति जवाहर के रचयिता पंडित देवी प्रसाद राही की गंध न महमहा रही हो. वे जिन्दगी से विदा की पूर्ण तैयारी की मुद्रा में, बस एक ही इच्छा शेष बताते हैं कि उन्हें आजादी का सिपाही मान लिया जाये और इन सब में सबसे छोटे, सबके चहेते, प्यारे-दुलारे, महफिल कोई भी हो उसकी हथेली पर मेहंदी सा रच जाने वाले जनाब सैयद मेहंदी जाफरी फैजाबादी (मेहंदी भाई) का भी नाम लिखना पड़ रहा है. भाई के 'प्रेन्क्रयाजÓ में जिन्दगी छुपकर बैठ गई है. ऊपर वाले का करम है कि मेहंदी भाई की जिन्दगी की जंग जारी है और मेडिकल साइंस हाथ झाड़कर खड़ी हो गई है. आपको जो ये चार नाम गिनाये जा रहे हैं ये शहर की रुहानी हैसियतें हैं-जीवन मरण कोई सरकारी इंतजाम नहीं है कि इसमें किसी तरह की खोटा-खोटी की जाये या किसी को 'प्राणलेवाÓ बीमारियों के लिये दोषी ठहराया जाये. लेकिन यह शहर की संवेदनशीलता के जड़ हो जाने का प्रमाण तो है ही कि जिन्हें सदियों को सहेज कर रखना चाहिए. उन्हें अपनी गलियों में दुबक कर वर्तमान स्वास्थ्य की सरकारी और बाजारू मार से कराहना पड़ रहा है. जबकि शहर की छाती पर इन सभी के अमिट हस्ताक्षर हैं. जनाब सैय्यद मेहंदी फैजाबादी उम्र पचास के करीब. खूबसूरत चेहरा, खनकती आवाज, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी पर $ग$जब का नियंत्रण, मुशायरा हो या सेमिनार, धार्मिक जलसा हो या बहस मुबाहिसा अगर मेहंदी भाई माइक पर हैं तो ज्ञान, विज्ञान और वाचिक कला एक साथ कुलांचे मारती देखी जा सकती है. भाई को लगता है हुनर मंदों के दुश्मनों की नजर लग गई. वरना अभी साल भर पहले वे पूरे शहर में चहकते हुए दिखाई पड़ रहे थे. अभी १३ अगस्त को उनकी अचानक तबीयत और बिगड़ गई. घर के लोग उन्हें लेकर पीजीआई दौड़े. तीन दिन पीजीआई (लखनऊ) में गुजार वह फिर से डिप्टी पड़ाव अपने घर लौट आये हैं. मेहंदी और मेहंदी भाई के घर वाले कहें भले ही कुछ ना लेकिन शहर और शहर के जिम्मेदारों से उन्हें कोई आश नहीं बची है...पूछने पर वह एक शेर कहते हैं-झुंझला के मैने फेंक दी-मांगी हुई शराब, हैरत से तिश्नगी मेरा मुंह देखती रही
ठीक है खुद्दारी भी कोई चीज है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हर खुद्दार केवल मरने के लिए छोड़ दिया जाये. इन दिनो पांच हजार रुपये इंजेक्शन जब मेहंदी की नसों में उतरते हैं तब कहीं जाकर दिन पार होता है. 'एम्सÓ मेहंदी का सटीक इलाज है. यह उनके लिए संभव है बशर्ते केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल उनके इलाज के प्रति अपना कुछ दायित्व समझ लें. हालांकि पीजीआई में भी मेहंदी के जीवन को तरजीह मिल सकती है लेकिन 'अंटूÓ चाहें तो...! मेहंदी पूछ रहे हैं 'अंटू भाईÓ कहां हैं.रघुनाथ सिंह का इलाज इन दिनों जे.के.कैसर इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ.अवधेश दीक्षित की निगहबानी में चल रहा है. लेकिन रघुनाथ सिंह इलाज से खीझे हुए हैं. कहते हैं-'मौत से नहीं डरता, कल आनी हो आज आ जायेÓ लेकिन डॉक्टरों, अस्पतालों, जांचों के ठग जाल और शरीर की दुर्दशा से निजात चाहता हूं. ७५ पार रघुनाथ जी इंदिरा नगर में अपने भरे पूरे परिवार के साथ हैं. लेकिन सुबह से शाम तक चेतना चौराहा, नगर निगम परिसर, नवीन मार्केट, भारत और शर्मा होटल में समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता करने ठीक है खुद्दारी भी कोई चीज है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हर खुद्दार केवल मरने के लिए छोड़ दिया जाये. इन दिनों पांच हजार रुपये के इंजेक्शन जब मेहंदी की नसों में उतरते हैं तब कहीं जाकर दिन पार होता है. 'एम्सÓ मेहंदी का सटीक इलाज है. यह उनके लिए संभव है बशर्ते केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल उनके इलाज के प्रति अपना कुछ दायित्व समझ लें. हालांकि पीजीआई में भी मेहंदी के जीवन को तरजीह मिल सकती है लेकिन 'अंटूÓ चाहें तो...! मेहंदी पूछ रहे हैं 'अंटू भाईÓ कहां हैं.रघुनाथ सिंह का इलाज इन दिनों जे.के.कैसर इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ.अवधेश दीक्षित की निगहबानी में चल रहा है. लेकिन रघुनाथ सिंह इलाज से खीझे हुए हैं. कहते हैं-'मौत से नहीं डरता, कल आनी हो आज आ जायेÓ लेकिन डॉक्टरों, अस्पतालों, जांचों के ठग जाल और शरीर की दुर्दशा से निजात चाहता हूं. ७५ पार रघुनाथ जी इंदिरा नगर में अपने भरे पूरे परिवार के साथ हैं. लेकिन सुबह से शाम तक चेतना चौराहा, नगर निगम परिसर, नवीन मार्केट, भारत और शर्मा होटल में समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता करने वाली लोहियावादी राजनीति के फॉलोअर रघुनाथ सिंह कहते हैं-ऐसा केवल मेरे साथ ही थोड़े ही है. वक्त बदल चुका है. बाजारवाद में मेरा क्या मतलब. मैं वस्तु थोड़े ही हूं. मनुष्य हूं.. आज मनुष्य का क्या..! अपने बेहतर से बेहतर इलाज के बारे में वह खामोश हंै. किससे कहें, क्या कहें. नेता जी (मुलायम सिंह यादव), जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह सभी सीधे परिचित हैं. पता नहीं उन्हें खबर है भी कि नहीं. अंटू भी भतीजा है उसके पिता दोस्त हैं. लेकिन अब ये सब पकड़ के बाहर हैं. इनसे उम्मीद करना बेकार है. रघुनाथ सिंह अभी भी बीमार शरीर की पीड़ा के बीच शहर की दशा पर कागज काले करने के लिए जब कब कलम उठा लेते हैं. उन्होंने पिछले पांच वर्षों में शहर के लिए विभिन्न कोणों से निरंतर लेखन किया है. हेलो कानपुर में उनके लेख लगातार प्रकाशित भी हुए हैं. इन दिनों वे मृत्यु का सामना करते हुए भी अपने लेखों को संकलित कर 'यह कौन सा शहर हैÓ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित करने जा रहे हैं. पुस्तक छप चुकी है. अब विमोचन की तैयारी चल रही है. इस तैयारी में लेखक की भी भूमिका है. वह इन हालातों में भी अपनी अदा से बाज नहीं आते, कहते हैं-लागत है तुम लोग हमार स्मृति में किताब का विमोचन करइ हौ..! हम सब हंसने को हंस देते हैं. लेकिन यह हंसने की बेला नहीं.केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल उनके अनुज मित्र सरीखे हैं. बहुत काम आ सकते हैं. बशर्ते वह 'स्वामीÓ रघुनाथ सिंह को श्रीप्रकाश जी इसी संबोधन से पुकारते हैं.वैसे तो सब कुछ हरा-भरा नजर आता है. लेकिन लोहियावादी रघुनाथ सिंह अभी भी अपने टिन शेड वाले बैठक में शुभचिंतकों से जब मिलते हैं तो यह प्रश्न सामने आता ही है कि इतना महंगा इलाज इस फक्कड़ के वश में कैसे होगा..? फिर भी सब चल रहा है धीरे-धीरे..!पंडित धर्म पाल अवस्थी तो संप्रति में ऐसी विसंगति का शीर्ष भोग रहे हैं जिसमें ही शायद कविता को आदि बीज का स्फुटन संभव हुआ होगा. ऐसी पीड़ा..कि पीड़ा भी कांप जाये. कवि अंसार कंबरी, कमलेश द्विवेदी बताते हैं कि पंडित जी के पास पल भर भी बैठा नहीं जाता और उनसे मिलने के बाद हर पल उन्हीं की ओर खींचता लगता है. पंडित जी के इलाज में शायद ही कोई कमी रही हो. आज्ञाकारी पुत्रों व पुत्र वधुओं के बीच आज भी वह अपनी पीड़ा से कम पत्नी की बीमारी से ज्यादा परेशान दिखते हैं. पंडित जी जैसे कवि व्यक्ति और बुजुर्ग नसीब वालों के हिस्से आते हैं. कानपुर का नसीब ही है कि देश हर कोने में चंद्रशेखर आजाद के वीर छंद उनके माध्यम से ही शेर की भांति दहाड़ गूंजे. आज अगर शासन, प्रशासन व शहर के कथित जागे संगठन व सेवक लोग उनकी खोज-खबर लेते रहते तो शायद पंडित जी के स्वर कागज पर उतर कर गीले नहीं होते. उनमें अभी भी अंगार दहकते, ज्वालामुखी धधकते..! वह अपनी आज की स्थिति के बारे में बताते हैं-'स्वास्थ्य और आमदनी दो ही चीजें इस समय मेरे लिए प्रमुख हैं. आमदनी के लिए पेंशन है जो पर्याप्त है. स्वास्थ्य बहुत ही गड़बड़ है. पक्षाघात ने आवाज छीन ली है. शरीर संतुलित नहीं है. पूरा दाहिना अंग प्रभावित है. फिर जैसे तैसे दैनिक क्रियाएं पूरी कर लेता हूं. भोजन में केवल द्रव्य पदार्थ ही ले पाता हूं. फिर भी ठीक हूं. आपके सामने हूं.अंत में राही जी इस कुनबे में सबके बुजुर्ग हैं. उनकी लंबी बीमारी की तो खबर भी सभी को है. वह जीवन की अंतिम सांस से पहले खुद को तिरंगे में लिपटा कर जाने का अधिकार पत्र चाहते हैं. उन्हें बहुत अफसोस है कि आजादी की जंग में शामिल होने के बाद भी वह हर तरह के मान-सम्मान से तो भरे पूरे हैं लेकिन स्वतंत्रता का सिपाही उन्हें नहीं माना जा रहा. इसके लिए वह अभी भी शासन और प्रशासन से संघर्षरत हैं. राही जी की काव्य प्रतिमा कानपुर की गरिमा है. लेकिन यह गरिमा राही जी के लिए गरल सरीखी होती जा रही है. परवाह उनकी भी किसी को नहीं है.कि 'धर्मÓ के 'राहीÓ 'रघुनाथÓ की मेहंदी कब रची कब सूख गई उन्हें पता ही नहीं चला. शहर के ये चार चराग बीमार हैं, बीमार चरागों को रोशन बनाये रखने की विशेष जिम्मेदारी स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्र 'अंटूÓ जी आपकी भी बनती है. कहना फर्ज हमारा है. बाकी करना क्या है आप जानो. होना क्या है यह ऊपर वाला ही जानें. अंत में अपना एक शेर-उल्टी सीधी चार सांसे एक हिचकी और बस, इसके आगे जिन्दगी का कारवां होता नहीं।इस पूरी आवरण कथा के पीछे हेलो कानपुर का मंतव्य केवल इतना भर है कि शहर के लोग, शहर की व्यवस्था, शहर के जनप्रतिनिधि, सांसद, विधायक, मंत्री, राज्यानुरागी, एवं उद्योगपतिगण कल को यह न कह सकें कि उन्हें खबर ही नहीं लगी.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें